राज्य की
उत्पत्ति के सिद्धांत (Origin
Theory of the State)
राज्य की उत्पत्ति के सिद्धांत (Origin Theory of the State)
राज्य की
उत्पत्ति, प्रकृति, क्षेत्र तथा विषय
वस्तु के विषय में प्राचीनकाल से ही विवाद होता रहा है। जहाँ नगर-राज्य से राष्ट्र
राज्य तक का सफर तय किया गया है वहीं इसी काल क्रम में राज्य की प्रकृति के विषय
में विभिन्न दृष्टिकोणों का विकास होता रहा है। जैसे यूनानी दार्शनिक प्लेटो और
अरस्तु नगर राज्य को सर्वोच्च संस्था मानते हैं।
वहीं उदारवादी भी
राज्य का समर्थन करते हैं लेकिन उसके कार्यों पर कुछ प्रतिबंध का समर्थन करते हैं
तो कुछ उसके कार्यों को व्यक्ति के प्रत्येक क्षेत्र तक बढ़ाना चाहते हैं। इसी
आधार पर उदारवाद को नकारात्मक और सकारात्मक उदारवाद में विभाजित किया जाता है, इसी तरह अराजकतावादी
राज्य को एक आवश्यक बुराई के रूप में देखते हैं जबकि मार्क्सवादी राज्य को
पूँजीवादियों के हाथ में शोषण का यंत्र मानते हैं। जिसको खूनी क्रांति के द्वारा
समाप्त करना आवश्यक है।
वहीं प्रारंभ के उदार व्यक्तिवादियों ने मनुष्य को स्वतंत्र छोड़ देने की उन्होंने वकालत की और उसके कार्यों में राज्य को हस्तक्षेप न करने की सलाह दी। इस काल में न केवल व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन पर अंकुश लगे हुए थे बल्कि व्यापार करने की भी स्वतंत्रता न थी । अठारहवीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति के कारण राज्य द्वारा अनावश्यक प्रतिबंधों का विरोध होना स्वभाविक था। मशीन युग के कारण विशाल पैमाने पर उत्पादन प्रारंभ हो गया। नए बाज़ार में इस माल को बेचने तथा मुनाफा कमाने के लिए उत्पादकों ने अपने अधिकारों की माँग की। इस पृष्ठभूमि में यदि राज्य को बुराई के रूप में देखा गया तो कोई आश्चर्य नहीं है। यद्यपि यह बुराई तो थी किन्तु आवश्यक भी थी क्योंकि राज्य व्यक्ति के जान व माल की सुरक्षा के लिए आवश्यक था। अतः राज्य को आवश्यक बुराई मानकर इस काल के दार्शनिकों ने विभिन्न आधारों पर प्रतिपादित किया कि राज्य का कार्य नकारात्मक है। व्यक्ति के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। जिन दर्शनिकों ने व्यक्तिवाद के नकारात्मक स्वरूप अर्थात् उदार व्यक्तिवादी परिप्रेक्ष्य का प्रतिपादन किया उनमें एडम स्मिथ, लॉक, जेरमी बैन्थम तथा हर्बर्ट स्पेन्सर प्रमुख हैं जिन्होंने भिन्न-भिन्न आधारों पर राज्य के कार्यक्षेत्र को सीमित बनाने का पक्ष प्रस्तुत किया।
1. एडम स्मिथ के
विचार- राज्य की उत्पत्ति के बारे में
औद्योगिक क्रांति
के काल में स्मिथ ने तत्कालीन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यक्ति के आर्थिक
क्षेत्र में राज्य के हस्तक्षेप का विरोध किया। उसने राज्य के कार्यक्षेत्र को
शांति व्यवस्था व न्याय की स्थापना तक सीमित कर दिया और कहा कि आर्थिक क्षेत्र को
आर्थिक नियमों द्वारा विनियमित होने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया जाए। माँग, पूर्ति व
स्वतंत्र प्रतियोगिता आदि नियम आर्थिक क्षेत्र को व्यवस्था प्रान करते हैं। राज्य
व्यक्ति के आर्थिक क्षेत्र को - नियंत्रित नहीं करेगा। उसका कार्य यह देखना है कि
आर्थिक क्षेत्र में व अन्य आर्थिक क्रियाकलापों में नियमानुसार व्यवहार हो रहा है
या नहीं।
वह राज्य को
पुलिस राज्य मानता था, जिनमें राज्य का
कार्य फुटबॉल के खेल में रैफरी के समान बतलाया और कहा कि जिस प्रकार निर्णायक स्वयं
नहीं खेलता बल्कि देखता है कि सभी खिलाड़ी खेल के नियमों के अनुसार खेलते हैं।
राज्य का कार्य भी आर्थिक क्षेत्र में खेल के निर्णायक के समान है जिसे मात्र यह
देखना चाहिए कि सम्पूर्ण हैं। आर्थिक क्रियाएँ नियमानुसार चल रही हैं या नहीं।
आर्थिक क्षेत्र में राज्य का हस्तक्षेप अनुचित है। उसने राज्य के मुख्यतः
निम्नलिखित कार्यों का समर्थन किया है।
1. बाह्य आक्रमण से देश की रक्षा करना।
2. हिंसक घटनाओं से समाज की रक्षा तथा व्यक्ति को व्यक्ति के शोषण व अत्याचारों से बचाना।
3. सड़कें, पुल, नहरें बैंक, शिक्षा संस्थाएँ
आदि की व्यवस्था करना क्योंकि ये व्यक्तिगत स्तर पर सम्भव नहीं हैं।
2. जॉन लॉक के विचार- राज्य की उत्पत्ति के बारे में
जॉन लॉक का मत था
कि किसी भी राज्य में जनता का निर्णय सर्वोपरि होना चाहिए। वह कहता था कि राज्य एक
मानवीय संस्था है, इसका आधार देवी
अथवा प्राकृतिक नहीं, बल्कि जनता की
सहमति है और प्रभुत्व भी जनता में ही निहित है। वास्तव में लॉक वैधानिक राजतंत्र
की पक्षपाती है।
(क) मानव प्राकृति:
लॉक का राजनीतिक दर्शन मानव प्रकृति पर आधारित है, परन्तु मानव
प्रकृति के संबंध में लॉक के विचार हॉब्स के विरोधी हैं। लॉक का मानव सहयोगी, सहिष्णु, परोपकारी व
शांतिप्रिय है। वह प्रेम,
दया, सहानुभूति, एकता और अच्छाई
की भावनाओं से भरपूर है।
लॉक का मत है कि
सभी मानवीय क्रियाओं का स्रोत इच्छा है। जिस वस्तु से उसे आनंद प्राप्त होता है वह
उसके लिए अच्छी है और जिससे उसे दुख का अनुभव होता है वह उसके लिए बुरी है। लॉक
मानव की शांतिप्रिय एवं सामाजिक प्राणी मानता है।
(ख) प्राकृतिक अवस्थाः
लॉक प्राकृतिक अवस्था का वर्णन करता है। वह मानता है कि प्राकृतिक अवस्था
में राजनीतिक जागृति नहीं थी तो भी मनुष्य सामाजिक भावना से ओत-प्रोत था। वह अन्य
मनुष्यों की उपस्थिति में प्रसन्नता अनुभव करता था। वह स्वार्थी तथा कलहप्रिय न
था। लॉक के अनुसार उस समय मनुष्य की अत्यन्त अल्प आवश्यकताएँ थीं जिन्हें वह बड़ी
सरलता से पूर्ण कर लेता था,
इस समय उसे जीवन, स्वतंत्रता तथा
सम्पत्ति के महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक अधिकार भी प्राप्त थे सब मनुष्य बराबर थे और
"जैसा व्यवहार दूसरों से अपने प्रति चाहते हो, उसी प्रकार दूसरों से व्यवहार करो।" यह
नियम सर्वत्र प्रचलित था। इस कारण मनुष्य प्राकृतिक अवस्था में सुखी था।
लॉक के अनुसार, यह सुखी जीवन
बहुत दिनों तक नहीं चलता। धीरे-धीरे अनेक असुविधाएँ उत्पन्न होने लगीं। पहली
असुविधा तो यह थी कि प्राकृतिक क़ानूनों की कोई निश्चित परिभाषा नहीं थी। दूसरे
न्यायाधीशों की अनुपस्थिति में प्रत्येक व्यक्ति स्वयं अपने अभियोगों का निर्णय भी
कर लेता था। तीसरे न्याय को लागू करने वाले शक्ति का भी अभाव था। इन कठिनाइयों से
छुटकारा पाने के लिए मनुष्यों ने समझौता किया।
(ग) सामाजिक - समझौता:
मनुष्यों ने आपस में मिलकर प्राकृतिक अवस्था को समाप्त करने के लिए समझौता
किया। इस समझौते के परिणामस्वरूप नागरिक समाज अर्थात् राज्य का निर्माण हुआ। इस
नागरिक समाज या राज्य को मनुष्यों ने सारे अधिकार न देकर केवल प्राकृतिक अधिकारों
की व्याख्या करने, न्याय करने तथा
अपराधियों को दण्ड देने के अधिकार ही दिए जिससे उनके जीवन स्वतंत्रता व सम्पत्ति
के अधिकारों की रक्षा हो सके। लॉक कहता है कि व्यक्ति क़ानून की व्याख्या अपने पक्ष
में कर लेता था और अपने कार्यों को स्वयं ही न्यायाधीश के रूप में निर्णय कर लेता
था जिससे उसकी स्वार्थ सिद्धि होती थी। उस काल में न्याय को कार्यान्वित करने वाली
कोई भी शक्ति नहीं थी अतः मनुष्यों ने आपस में समझौता करके जिस नागरिक समाज
अर्थात् राज्य का निर्माण किया उसे उन्होंने अपने इन्हीं अधिकारों को सौंप दिया।
इस समझौते के माध्यम से उन्होंने अपने जीवन स्वतंत्रता व सम्पत्ति के अधिकारों की
सुरक्षा की व्यवस्था की।
'टू ट्रीटाइजेज ऑन गवर्नमेंट' (To Treatises on Government) राज्य की प्रकृति
राज्य की प्रकृति, व्यक्ति के
अधिकारों तथा उसके राजनीतिक दायित्वों का लॉक ने अपने महत्त्वपूर्ण ग्रंथ 'टू ट्रीटाइजेज ऑन
गवर्नमेंट' (To Treatises
on Government) में वर्णन किया है। उसके राजनीतिक चिंतन को निम्नलिखित
प्रकार से रेखांकित किया जा सकता है-
1. राज्य एक नकारात्मक संस्था है-
लॉक ने जिस राज्य का प्रतिपादन किया है उसका स्वरूप नकारात्मक
है। वह राज्य को जनता की नैतिक व आर्थिक उन्नति का दायित्व नहीं देता। वह राज्य को
सीमित कार्य प्रदान करता है। 'शांति व व्यवस्था की स्थापना बाह्य आक्रमण से देश की रक्षा
करना तथा न्यायालयों की व्यवस्था करना जिससे प्राकृतिक अधिकारों की सुरक्षा संभव
हो सके' जैसे सीमित
अधिकार ही वह राज्य को देता है। जन कल्याण के कार्यों को उसने राज्य के
कार्यक्षेत्र से बाहर रखकर नकारात्मक राज्य की संकल्पना प्रस्तुत की है।
2. राज्य व सरकार में भेदः
लॉक ने दो समझौतों की व्यवस्था की है। पहले के अनुसार, जो मनुष्यों ने
आपस में किया, एक नागरिक समाज
अर्थात् राज्य की स्थापना हुई और दूसरे के अनुसार शासन या सरकार की स्थापना हुई।
दूसरा समझौता जनता व शासक के बीच हुआ। इस प्रकार लॉक ने राज्य व सरकार में भेद
किया है, जिसमें राज्य
स्थायी है जबकि शासन अस्थायी है। सरकार राज्य की इच्छा को कार्यान्वित करने वाली
एजेंसी है।
3. शासक को बदला जा सकता है:
शासन की उत्पत्ति जिस समझौते के माध्यम से हुई है उसकी शर्तों की पूर्ति
करना शासन का दायित्व है किन्तु उसका स्वरूप मर्यादित है। यदि शासक न्यायपूर्वक
जनभावना के अनुसार कार्य नहीं करता तो उसे हटाकर नए शासक के हाथ में शक्ति देने का
जनता को अधिकार है।
4. अंतिम शक्ति (प्रभुसत्ता ) जनता में निहित है:
लॉक अंतिम शक्ति अर्थात् प्रभुसत्ता को जनता में निहित कर देता है।
5. शक्ति पृथक्करण सिद्धांतः
लॉक ने शासन को तीन अंगों में विभाजित करके शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत का समर्थन किया जिसमें विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका अपना-अपना विशिष्ट कार्य करती हैं। इतना ही नहीं, वह जन इच्छा को अभिव्यक्त करने वाली विधायिका को अधिक महत्त्वपूर्ण मानता है और उसे कार्यपालिका से अधिक उच्च स्थान देता है।
3. जेरमी बेन्थम के
विचार- राज्य की उत्पत्ति के संबंध में
जेरमी बेन्थम के
उपयोगितावादी विचारों पर डेविड ह्यूम तथा प्रीस्टले के विचारों का प्रभाव पड़ा था, किन्तु
उपयोगितावाद को व्यवस्थित दर्शन का रूप देने का श्रेय जेरमी बेन्थम को ही है।
यद्यपि बेन्थम
मूलत: उपयोगितावादी है किन्तु उसके उपयोगितावाद ने उदारवाद के सिद्धांतों का
समर्थन किया। उसके दर्शन का आधार मानव हित है। वह कहता है कि मनुष्य अपनी दो मूल
प्रवृत्तियों सुख व दुख के करता है। जिस काम से उसे सुख मिलता है, उसी को वह उपयोगी
व हितकारक मानता है और जिस काम से उसे दुख मिलता है, उस काम से वह बचता है क्योंकि उसके लिए वह
कष्टकारक, अहितकारक व
अनुपयोगी होता है। अनुसार कार्य इस प्रकार बेन्थम का विचार है कि मनुष्य के किसी
काम को करने या न करने के पीछे ये ही दो प्रवृत्तियाँ- सुख की अनुभूति तथा दुख की
अनुभूति काम करती हैं। मनुष्य केवल उसी काम को करता है जिस काम के करने से उसको
सुख मिलता है। इसके विपरीत,
जिस काम के करने
से उसे दुख मिलता है उस काम को करने से वह बचता है। बेन्थम के शब्दों में, “प्रकृति ने मानव
समाज को दो सम्प्रभु स्वामियों-दुख व सुख के आधिपत्य में रखा है। इन स्वामियों का
कर्तव्य है कि वे बताएँ कि हमें क्या करना चाहिए और यह निर्णय करें कि हम क्या
करेंगे?"
बेन्थम ने राज्य
व क़ानून की व्याख्या भी उपयोगिता के आधार पर की है। उसके लिए व्यक्ति का हित
सर्वोपरि है। वह कहता है कि राज्य व कानून का महत्त्व उनकी सामाजिक उपयोगिता है।
अतः राज्य का आधार व उसका आदर्श व उसके कार्य सामाजिक उपयोगिता पर आधारित हैं।
राज्य व्यक्तियों का समूह है अतः उसका लक्ष्य 'अधिकतम मनुष्यों का अधिकतम सुख' करना है, वह सुखमय जीवन की
प्राप्ति के लिए गठित किया गया साधन हैं यही राज्य का औचित्य है। राज्य का कार्य
ऐसे क़ानूनों का निर्माण करना है जो सुख देने वाले अर्थात् जनहित में होते हैं।
उपरोक्त विवरण से
स्पष्ट हो जाता है कि बेन्थम ने जिस उपयोगितावाद का प्रतिपादन किया उसके माध्यम से
वह व्यक्तिवाद का समर्थक बन गया। उसके जिन विचारों से उदारवाद की पुष्टि होती है।
उनको संक्षेप में इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है-
(i) व्यक्ति का सुख ही सर्वोपरि है;
(ii) राज्य का लक्ष्य अधिकतम व्यक्तियों को अधिकतम सुख पहुँचाना है क्योंकि इसीलिए उसका निर्माण हुआ है;
(iii) अपने उपरोक्त उद्देश्य की पूर्ति के लिए राज्य को ऐसे क़ानून बनाने चाहिए जो व्यक्ति का अधिकाधिक हित करें। जनहित विरोधी कानूनों का उल्लंघन करना मनुष्य का नैतिक अधिकार है;
(iv) व्यापार में खुली प्रतियोगिता एक ओर उत्तम किस्म की वस्तुओं के निर्माण में सहायक है और दूसरी ओर इसमें वस्तुओं को कम कीमत पर प्राप्त किया जा सकता है।
4. हर्बर्ट स्पेन्सर
के विचार- राज्य की उत्पत्ति के संबंध में
स्पेन्सर उग्र व्यक्तिवादी था जिसने राज्य के कार्यक्षेत्र को अत्यन्त सीमित बनाने पर बल दिया। उसने अपने सम्पूर्ण राजनीतिक विचारों को वैज्ञानिक पृष्ठभूमि में प्रतिपादित किया। उसने डार्विन के प्रकृति विज्ञान के विश्लेषण को मान्यता दी जिसके अनुसार प्रकृति में निरंतर संघर्ष चलता रहता है। प्रकृति में विभिन्न प्राणी जीवित रहने के साधनों का उपयोग करना चाहते हैं अतः उनमें संघर्ष होता है। इस संघर्ष में केवल शक्तिशाली ही जीवित रहता है और वह साधनों का उपभोग करता है। डार्विन के इस दृष्टिकोण का कि प्रकृति में होने वाले संघर्ष में केवल योग्य प्राणी जीवित रहता है और अयोग्य नष्ट हो जाता हैं, स्पेन्सर ने सामाजिक जीवन में उपयोग किया और सिद्ध किया समाज में भी निरंतर संघर्ष होता रहता है और प्राकृतिक नियमों के अनुसार इसमें 'योग्यता की विजय' (Survival of the fittest) अर्थात् योग्य व शक्तिशाली व्यक्ति का विजयी होना और अयोग्य व शक्तिहीन व्यक्ति का नष्ट होना अवश्यम्भावी है। इस आधार पर स्पेन्सर ने स्पष्ट किया कि प्रकृति के कार्य में राज्य को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। राज्य के हस्तक्षेप से व्यक्ति के स्वाभाविक विकास में अवरोध उत्पन्न होता है।
स्पेन्सर राज्य
को आवश्यक बुराई मानता है,
वह बुराई से पैदा
हुआ है। वह अकल्याणकारी संस्था है। अतः यदि राज्य व्यक्तियों के पारस्परिक संबंधों
में हस्तक्षेप करेगा तो उससे बुराई पैदा होगी और मानव समाज का विकास बन्द हो जाएगा।
राज्य का काम केवल यह देखना है कि समाज के विभिन्न व्यक्तियों को प्रकृति के
अनुसार व्यवहार करने की स्वतंत्रता मिल रही है या नहीं। अतः राज्य का कार्य
व्यक्ति के विकास के मार्ग की बाधाओं को दूर करना है। स्पेन्सर का कहना है कि
राज्य की प्रकृति व्यक्ति का अहित करने की है अतः उसको शिक्षा स्वास्थ्य, दरिद्रों की
सहायता, दुर्बल वर्ग की
सुरक्षा आदि के कार्य नहीं दिए जा सकते। वह राज्य को निषेधात्मक कार्य देने के
पक्ष में है अर्थात् राज्य का कार्यक्षेत्र केवल समाज की बाह्य शत्रुओं से रक्षा
करना, आंतरिक संघर्ष व
लूटमार से बचाव करने तक ही सीमित है।
स्पेन्सर ने 'योग्यतम की विजय' के सिद्धांत को
आर्थिक क्षेत्र में भी लागू किया। वह कहता है कि उद्योग व व्यापार स्वतंत्र
प्रतिस्पर्धा के सिद्धांत पर चलने चाहिए। राज्य को उनके प्राकृतिक विकास में
हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। व्यक्तिगत सम्पत्ति की प्राप्ति तथा स्वायत्त
आर्थिक संस्थाओं के विकास में राज्य के नियंत्रण या हस्तक्षेप का उसने विरोध किया।
वह राज्य को निम्नलिखित तीन काम देने के पक्ष में है-
(i) विदेशी शत्रुओं से रक्षा करना ।
(ii) आंतरिक शांति व व्यवस्था स्थापित करना,
(iii) वैध समझौतों को
लागू करना ।
बीसवीं शताब्दी में भी कुछ नकारात्मक उदारवादी उत्पन्न हुए हैं जिन्होंने कल्याणकारी राज्यों के कार्यों को अत्यधिक सीमित कर देने की वकालत की है।