राजनीतिक सिद्धान्त की प्रकृति एवं महत्त्व (Nature and Significance of Political Theory)
राजनीतिक सिद्धांत का अर्थ, प्रकृति, विशेषताएँ एवं प्रकार - प्रस्तावना
राज्य, राजनीतिक संस्थाओं और सरकार की प्रकृति, कार्यों एवं उद्देश्यों का क्रमबद्ध अध्ययन काफी पुराना है। राजनीतिक गतिविधि एक ऐसी गतिविधि है जो राज्य के माध्यम से व्यक्ति के सामूहिक जीवन को नियमित करती हैं। ग्रीक राज्यों के समय से ही राजनीतिक चिन्तन कुछ मूल प्रश्नों के उत्तर तलाश करता चला आ रहा है, जैसे- राजनीतिक गतिविधियाँ कितनी मौलिक और महत्त्वपूर्ण है? यह मानव सभ्यता के कौन से आधार उपलब्ध करवाती है जो व्यक्ति को बाकी सभी जीवों से अलग करते हैं? मानव जीवन की समुदाय में मिलकर रहने की मौलिक समस्या को कैसे सुलझाया जा सकता है क्योंकि समुदाय में रहना मानव प्रकृति के लिए आवश्यक ही नहीं बल्कि उसके व्यक्तिगत जीवन का सार भी है।
राजनीतिक
सिद्धान्त समाज की राजनीतिक घटनाओं तथा प्रक्रियाओं का वर्णन, व्याख्या और
विश्लेषण करते हैं तथा उनकी कमियों को दूर करने के उपाय करते हैं। राजनीतिक
सिद्धान्त थोड़ा जटिल विषय है क्योंकि पाश्चात्य राजनीतिक चिन्तन का इतिहास, जिसका ये
सिद्धान्त एक अभिन्न अंग हैं, 2400 वर्षों से भी अधिक पुराना है तथा इसमें
विभिन्न राजनीतिक दार्शनिकों, धर्मशास्त्रियों, अर्थशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों, राजाओं तथा अन्य
लोगों ने अपना-अपना योगदान दिया है। राजनीतिक सिद्धान्तकारों की सूची काफी लम्बी
है और इन लोगों की विषय के प्रति रुचि और लगन इतनी व्यापक एवं भिन्न रही है कि एक
छोटे से प्रश्न- 'राजनीतिक सिद्धान्त क्या है?'- का उत्तर देना
काफी पेचीदा काम है। इसके अतिरिक्त, राजनीतिक चिन्तन
के लम्बे इतिहास में सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में विभिन्नता तथा परिवर्तनों के
कारण राजनीतिक सिद्धान्तों के विषय क्षेत्र तथा अध्ययन पद्धति दोनों में काफी
अन्तर आता रहा है।
अध्ययन के
दृष्टिकोण से राजनीतिक सिद्धान्तों को हम कुछ विशिष्ट धाराओं में बाँट लेते हैं
जैसे क्लासिकी, उदारवादी, मार्क्सवादी, व्यवहारवादी, समकालीन आदि ।
उदाहरण के लिए, जहाँ क्लासिकी राजनीतिक सिद्धान्तों पर दर्शनशास्त्र का
अत्यधिक प्रभाव था और सिद्धान्तों का उद्देश्य राजनीतिक घटनाओं का वर्णन, व्याख्या, निर्धारण और मूल्यांकन
सभी कुछ था, वहाँ व्यवहारवाद ने राजनीतिक सिद्धान्तों में विज्ञान को
अधिक महत्त्व दिया और इन्हें केवल राजनीतिक वास्तविकता के वर्णन और व्याख्या तक ही
सीमित रखा। पिछले कुछ वर्षों से समकालीन राजनीतिक सिद्धान्त दार्शनिक और वैज्ञानिक
पक्षों में समन्वय करवाने के प्रयत्न में लगे हुए हैं।
राजनीति क्या है? 'राजनीतिक' का सैद्धान्तीकरण (What is Politics-Theorizing the 'Political')
राजनीतिक सिद्धान्त का अर्थ क्या है इसे सही ढंग से समझने के लिए 'राजनीतिक' तथा 'सिद्धान्त' इन दोनों शब्दों को अलग-अलग समझना आवश्यक है। यहाँ शब्द 'सिद्धान्त' तथा 'राजनीतिक' एक दूसरे की विशेषता बताते हैं कि राजनीति सिद्धान्त या राजनीति का सिद्धान्त किसी विशिष्ट विषय की तरफ इशारा करते हैं। आइये इन्हें थोड़ा बारीकी से समझें। पहला, सिद्धान्त का अर्थ क्या है? शब्द 'थ्यूरी' (Theory) एक ग्रीक शब्द है जहाँ यह दो अन्य शब्दों में सम्बन्धित था जो विचार करने योग्य है- (i) थ्यूरिया (Theoria ) जिसका अर्थ है जो हमारे आसपास घटित हो रहा है उसे समझने की क्रिया अथवा प्रक्रिया; इसे 'सैद्धान्तीकरण' (Theorizing ) कहा जाता है तथा (ii) थ्योरमा (Theorema) जिसका अर्थ है वह निष्कर्ष जो इस सैद्धान्तीकरण की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप निकलते हैं, इन्हें थ्योरम (Theorem) कहा जाता है। इन दोनों शब्दावलियों की पहली विशिष्टता यह है कि ये सैद्धान्तीकरण प्रक्रिया (activity of theorizing ) तथा इस प्रक्रिया से निकलने वाले निष्कर्षो (outcome of the activity) में अन्तर करती हैं। अर्थात् शब्द सैद्धान्तीकरण का सम्बन्ध किसी घटना को समझने का प्रयत्न है। इसका अभिप्राय किसी परिणाम अथवा निष्कर्ष को सिद्ध करना अथवा उसे वैध ठहराना नहीं है। यह केवल खोज, अन्वेषण अथवा जाँच की प्रक्रिया है। सैद्धान्तीकरण उन घटनाओं के इर्द-गिर्द आरम्भ होता है जो हमारे आसपास घटित हो रही होती है और जिनके बारे में हम थोड़ा-बहुत जानते हैं और सैद्धान्तीकरण की प्रक्रिया इसलिए आरम्भ होती है क्योंकि सिद्धान्तकार इन घटनाओं के प्रति अधूरे ज्ञान से असंतुष्ट होता है और वह इसे विस्तारपूर्वक एवं तार्किक स्तर पर समझना चाहता है। सैद्धान्तीकरण शोध की प्रक्रिया के माध्यम से समझने की प्रक्रिया हैं। इस सैद्धान्तीकरण के परिणामस्वरूप प्राप्त किए गए निष्कर्ष अर्थात् 'थ्योरम' किसी घटना की बेहतर समझ होगी जिसके बारे में हम पहले केवल अस्पष्ट रूप से जानते थे। अतः सैद्धान्तीकरण का अभिप्राय किसी विषय अथवा घटना को समझने का निरन्तर, अविरल, अबाध प्रयत्न होता है। यह ऐसे विषय अथवा घटना से आरम्भ होता है जिसके बारे में हम थोड़ा बहुत । जानते हैं परन्तु जिसे विस्तारपूर्वक और स्पष्ट रूप से जानने की आवश्यकता है अर्थात् यह किसी घटना अथवा विषय के बारे में और अधिक जानने तथा ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया है और इसका मूल मन्त्र है- 'समाप्त' शब्द का नाम मत लो (Never say the end); अर्थात् समझने की यह प्रक्रिया उतनी देर तक चलती रहेगी जब तक कि घटनाएँ अथवा विषय पूरी तरह पारदर्शी नहीं हो जाते; जब तक रहस्यों की आखिरी गुत्थी नहीं सुलझ जाती या जब तक सिद्धान्तकार के पास पूछने लायक प्रश्न समाप्त नहीं हो जाते एक सिद्धान्तकार का कार्य किसी अनुभव अथवा घटना के तथ्य को कुछ एक अवधारणाओं या यदि हो सके तो अवधारणाओं की व्यवस्था के आधार पर समझना होता है अर्थात् सम्बद्ध अवधारणाओं के समूह के आधार पर जैसे विचारमन्थन उद्देश्य मन्शा, निष्कर्ष, औचित्य, स्वतन्त्रता, समानता, सन्तुष्टि आदि।
दूसरा, यदि
सैद्धान्तीकरण का अर्थ किसी विषय को समझने की इच्छा है तो 'राजनीतिक वस्तुतः
वह शर्त, सीमा अथवा केन्द्रबिन्दु है जिसका सैद्धान्तीकरण किया जाना
है। राजनीतिक सिद्धान्त में 'राजनीतिक' का अभिप्राय
राजनीतिक से है। थ्योरी (सिद्धान्त) की तरह 'पॉलिटिक्स' (राजनीतिक) शब्द
भी एक ग्रीक शब्द हैं जो शब्द 'पोलिस' (Polis) से निकला है जिसे
'नगर-राज्य' (city-state) कहा जाता है
अर्थात किसी भी समुदाय के अच्छे जीवन से सम्बन्धित सभी पक्षों के लिए निर्णय लेने
की सामूहिक शक्ति । अरस्तु जैसे सिद्धान्तकारों ने राजनीतिक प्रक्रियाओं तथा उनके
कार्यान्वयन को समझने के सन्दर्भ में राजनीतिक को परिभाषित करने की कोशिश की।
अरस्तु का यह कथन कि 'मनुष्य एक राजनीतिक प्राणी है'- समाज की
अन्तर्निहित मानवीय आवश्यकता की तरफ इशारा करता है तथा इस तथ्य की तरफ भी कि मानव
अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति तथा आत्म-सिद्धि केवल राजनीतिक समुदाय के माध्यम से ही
प्राप्त कर सकता है। अरस्तु के लिए 'राजनीतिक' महत्त्वपूर्ण
इसलिए था क्योंकि यह एक ऐसे साझे राजनीतिक स्थान का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें
सभी नागरिक भाग ले सकते हैं।
अपने आधुनिक रूप में 'राजनीतिक' शब्द राज्य तथा इससे सम्बन्धित संस्थाओं जैसे सरकार विधानमंडल अथवा सार्वजनिक नीति का प्रतिनिधित्व करता है। विभिन्न विचारधाराओं के बावजूद, 'राजनीतिक' के संदर्भ में अभी हाल तक आधुनिक 'नगर राज्य' अथवा राज्य अधिकतर राजनीतिक सिद्धान्तकारों का साझा विषय रहा है। जैसे कि विल
किमिलिका लिखते हैं, 'अधिकतर पश्चिमी राजनीतिक सिद्धान्तकार नगर-राज्य के एक ऐसे आदर्शवादी मॉडल पर कार्य करते आये हैं जिसमें सभी नागरिक एक सामान्य वंश, भाषा तथा संस्कृति साझी करते हैं।' यहाँ राजनीतिक 'सिद्धान्त के 'राजनीतिक पक्ष का सम्बन्ध रहा है-राज्य तथा सरकारों के स्वरूप प्रकृति तथा संगठन एवं इन सभी का व्यक्तिगत नागरिकों के साथ सम्बन्ध का अध्ययन।
राजनीतिक
सिद्धान्तों की उदारवादी परम्परा का यह प्रमुख फोकस रहा है। इसके विपरीत
मार्क्सवादी विचारधारा प्रबल रूप से उदारवाद के इस 'राजनीतिक' तथा 'गैर-राजनीतिक
अन्तर को पूरी तरह रद्द कर देता है और यह तर्क देता है कि राजनीतिक शक्ति और कुछ
नहीं, केवल आर्थिक शक्ति की दास होती है। परन्तु समस्त रूप से, अवधारणा के स्तर
पर असमंजसता के बावजूद, राजनीति के सैद्धान्तीकरण का साझा आधार अभी भी
राज्य ही है।
तथापि, पिछले तीन दशकों
में राजनीतिक की स्थापित अवधारणाओं के प्रति असन्तोष बढ़ता जा रहा है, मुख्यतः इन
आधारों पर कि ये समकालीन जीवन के अनेक तथ्यों के साथ मेल नहीं खाती या ये 'राजनीतिक' की समकालीन धारणा
की उचित अभिव्यक्त नहीं कर पा रही। अतः 'राजनीतिक की
राज्य तथा सरकार की अवधारणाओं के अतिरिक्त 'राजनीतिक' के वर्तमान अन्य
दावेदार - (i) समानता, स्वतंत्रता, तार्किकता, निष्पक्षता तथा
न्याय की साझी धारणाओं पर आधारित राजनीतिक का विचार तथा (ii) शक्ति, वर्ग, लिंग, औपनिवेशिक अथवा
विशिष्ट वर्गीय राजनीतिक के साथ सम्बन्ध। साथ ही, 'राजनीतिक की
वर्तमान धारणा में कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण क्षेत्र भी निहित है जैसे उदारवाद, मार्क्सवाद, संकीर्णवाद, समुदायवाद, अस्मिता, नारीवाद, नागरिकता, प्रजातन्त्र, शक्ति, सत्ता, वैधता, राष्ट्रवाद
वैश्वीकरण तथा पर्यावरण | राजनीतिक सिद्धान्त से सम्बन्धित पाठ्यक्रमों
का उद्देश्य विद्यार्थियों को ऐसे व्यक्तियों के अनुभव के साथ अवगत करवाना होता है
जो दिन-प्रतिदिन की राजनीतिक से सम्बद्ध रहे हैं या ऐसे व्यक्तियों के विचारों के
साथ जिन्होंने इसका गहन अध्ययन किया है।
राजनीतिक
सिद्धांत का अर्थ प्रकृति विशेषताएँ एवं प्रकार (Meaning, Nature,
Characteristics and Variety of Political Theory)
राजनीतिक सिद्धान्त - कुछ परिभाषायें (Political Theory - Some Definitions)
'राजनीतिक' तथा 'सिद्धान्त' शब्दों के
स्पष्टीकरण के बाद अब हम राजनीतिक सिद्धान्तों को कुछ परिभाषाओं के माध्यम से
समझने का प्रयत्न करते हैं। सर्वसाधारण स्तर पर राजनीतिक सिद्धान्त राज्य से सम्बन्धित
ज्ञान है जिसमें 'राजनीतिक' का अर्थ है 'सार्वजनिक हित के
विषय तथा सिद्धान्त का अर्थ है 'क्रमबद्ध ज्ञान । डेविड हैल्ड के अनुसार, राजनीतिक
सिद्धान्त " राजनीतिक जीवन से सम्बन्धित धारणाओं और सामान्य नियमों का वह
समूह है जिसमें सरकार, राज्य और समाज की प्रकृति, उद्देश्य तथा
प्रमुख विशेषताएँ एवं व्यक्ति की राजनीतिक क्षमताओं के बारे में विचार, परिकल्पनायें और
विवरण निहित होता है।" ऐन्डू हैकर के अनुसार, “राजनीतिक
सिद्धान्त जहाँ एक तरफ अच्छे समाज और अच्छे राज्य से सम्बन्धित नियमों की निष्पक्ष
खोज है, वहाँ दूसरी तरफ ये राजनीतिक और सामाजिक वास्तविकता का
निष्पक्ष ज्ञान है।" एक अन्य लेखक जॉर्ज कैटलिन के अनुसार, “राजनीतिक
सिद्धान्त राजनीतिक विज्ञान और राजनीतिक दर्शनशास्त्र दोनों का मिश्रण है। जहाँ
विज्ञान सम्पूर्ण सामाजिक जीवन के नियन्त्रण के विभिन्न स्वरूपों की प्रक्रिया की
तरफ ध्यान दिलाता है, अर्थात् इसका सम्बन्ध साधनों से है, वहाँ राजनीतिक
दर्शन का सम्बन्ध उन साध्यों तथा मूल्यों से है जब व्यक्ति इस तरह के प्रश्नों पर
विचार करता है- राष्ट्रीय हित क्या होता है? या "एक
अच्छा समाज क्या होता है?" इसी तरह कोकर के अनुसार, 'राजनीतिक
सिद्धान्तों का सम्बन्ध राजनीतिक सरकार, इसके स्वरूपों
तथा गतिविधियों के उस अध्ययन से है जो केवल उन तथ्यों के आधार पर नहीं किया जाता
जिनकी व्याख्या, तुलना तथा परख का सम्बन्ध तत्काल तथा अस्थायी प्रभावों से
है बल्कि उन तथ्यों तथा मूल्यांकन के आधार पर भी किया जाता है जो व्यक्ति की
चिरस्थायी आवश्यकताओं, इच्छाओं तथा विचारों से सम्बन्धित होते हैं।' राजनीतिक
सिद्धान्तों को हम गुल्ड और कोल्ब की व्यापक परिभाषा से बेहतर समझ सकते हैं। उनके
अनुसार, 'राजनीतिक सिद्धान्त राजनीतिशास्त्र का वह भाग है जिसके
निम्नलिखित अंग हैं:
(i) राजनीतिक दर्शनशास्त्र- यह राजनीतिक विचारों के इतिहास का अध्ययन और नैतिक मूल्यांकन से सम्बन्धित है;
(ii) एक वैज्ञानिक पद्धति;
(iii) राजनीतिक विचारों का भाषा विषयक विश्लेषण; तथा
(iv) राजनीतिक व्यवहार
के सामान्य नियमों की खोज तथा उनका क्रमबद्ध विकास।
उपरोक्त
परिभाषाओं के आधार पर हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि राजनीतिक सिद्धान्त
मुख्यत: दार्शनिक और व्यावहारिक दृष्टिकोण से राज्य का अध्ययन है। सिद्धान्तों का
सम्बन्ध केवल राज्य तथा राजनीतिक संस्थाओं की व्याख्या, वर्णन तथा
निर्धारण से ही नहीं हैं बल्कि उसके नैतिक उद्देश्यों का मूल्यांकन करने से भी है।
इनका सम्बन्ध केवल इस बात का अध्ययन करना ही नहीं है कि राज्य कैसा है बल्कि यह भी
कि राज्य कैसा होना चाहिये। एक लेखक के अनुसार, राजनीतिक
सिद्धान्तों को एक गतिविधि के रूप में देखा जा सकता है जो व्यक्ति के सार्वजनिक और
सामुदायिक जीवन से सम्बन्धित प्रश्न पूछती है, उसके सम्भव उत्तर
तलाश करती है तथा काल्पनिक विकल्पों का निर्माण करती है। अपने लम्बे इतिहास में ये
इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर खोजते रहे हैं जैसे- राज्य की प्रकृति और उद्देश्य
क्या है? एक राज्य दूसरे राज्य से श्रेष्ठ क्यों? राजनीतिक संगठनों
का उद्देश्य क्या है? इस उद्देश्यों के मानदण्ड क्या होते हैं? राज्य तथा
व्यक्ति में सम्बन्ध क्या है? आदि। प्लेटो से लेकर आज तक राजनीतिक चिन्तक इन
प्रश्नों के उत्तर तलाश रहे हैं क्योंकि इन उत्तरों के साथ व्यक्ति का भाग्य
अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। आरम्भ से ही सिद्धान्त उन नियमों की खोज में लगे हुए
हैं जिनके आधार पर व्यक्ति एक ऐसे राजनीतिक समुदाय का विकास कर सके जिसमें शासक और
शासित दोनों सामान्य हित की भावना से प्रेरित हों। यह आवश्यक नहीं कि राजनीतिक
सिद्धान्त सभी राजनीतिक प्रश्नों के कोई निश्चित व अन्तिम हल ढूँढ़ने में सफल हो
जायें परन्तु ये हमें उन प्रश्नों के हल के लिये सही दिशा संकेत अवश्य दे सकते
हैं।
राजनीतिक
सिद्धान्तों की विशेषतायें (Characteristics of Political Theory)
उपरोक्त चर्चा के
आधार पर राजनीतिक सिद्धान्तों की कुछ सामान्य विशेषताएँ स्पष्ट की जा सकती हैं।
राजनीतिक सिद्धान्त मूलत: व्यक्ति की बौद्धिक और राजनीतिक कृति हैं। सामान्यतः यह
एक व्यक्ति का चिन्तन होते हैं जो एक राजनीतिक वास्तविकता अर्थात् राज्य की
सैद्धान्तिक व्याख्या करने का प्रयत्न करते हैं। प्रत्येक सिद्धान्त अपने-आप में
एक परिकल्पना होता है जो सही अथवा गलत दोनों हो सकता है और जिसकी आलोचना की जा
सकती है। अतः सिद्धान्तों के अंतर्गत हम विभिन्न चिंतकों द्वारा किये गये अनेक
प्रयत्न पाते हैं जो राजनीतिक जीवन के रहस्यों का उद्घाटन करते रहे हैं। इन चिन्तकों
ने अनेक व्याख्याएँ प्रस्तुत की हैं जो हो सकता है हमें प्रभावित न करे, परंतु जिनके बारे
में हम कोई अन्तिम राय (सही अथवा गलत ) स्थापित नहीं कर सकते। राजनीतिक सिद्धान्त
राजनीतिक जीवन के उस विशेष सत्य की व्याख्या करते हैं जैसा कोई चिंतक उसे देखता या
अनुभव करता है। ऐसे राजनीतिक सत्य की अभिव्यक्ति हमें प्लेटो के 'रिपब्लिक', अरस्तु के 'पॉलिटिक्स' अथवा रॉल्स की 'ए थ्योरी ऑफ
जस्टिस' में मिलती है।
दूसरे, राजनीतिक
सिद्धान्तों में व्यक्ति, समाज तथा इतिहास की व्याख्या होती है। ये
व्यक्ति और समाज की प्रकृति की जाँच करते हैं: एक समाज कैसे संगठित होता है और
कैसे काम करता है, इसके प्रमुख तत्त्व कौन से हैं, विवादों के
विभिन्न स्रोत कौन से हैं, उन्हें किस प्रकार हल किया जा सकता है आदि ।
तीसरे, राजनीतिक
सिद्धान्त किसी विषय विशेष पर आधारित होते हैं, अर्थात्, हालाँकि एक विचारक
का उद्देश्य राज्य - की प्रकृति की व्याख्या करना ही होता है परंतु वह विचारक एक
दार्शनिक, इतिहासकार, अर्थशास्त्री, धर्मशास्त्री
अथवा समाजशास्त्री कुछ भी हो सकता है। अतः हम कई तरह के राजनीतिक सिद्धान्त पाते
हैं जिनमें इन विषयों की अद्वितीयता के आधार पर अंतर किया जा सकता है।
चौथे, राजनीतिक सिद्धान्तों का उद्देश्य केवल राजनीतिक वास्तविकता को समझना और उसकी व्याख्या करना ही नहीं है बल्कि सामाजिक परिवर्तन के लिये साधन जुटाना और ऐतिहासिक प्रक्रिया को तेज करना भी है। जैसा कि लास्की लिखते हैं, राजनीतिक सिद्धान्तों का कार्य केवल तथ्यों की व्याख्या करना नहीं हैं। परन्तु यह निर्धारण करना भी है कि क्या होना चाहिए। अतः राजनीतिक सिद्धान्त सामाजिक स्तर पर सकारात्मक कार्य तथा उनके कार्यान्वयन के लिए सुधार, क्रांति अथवा संरक्षण जैसे साधनों की सिफारिश करते हैं। इनका संबंध साधन तथा साध्य दोनों से है। ये दोहरी भूमिका निभाते हैं: 'समाज को समझना और उसकी गलतियों में सुधार करने के तरीके जुटाना । '
पांचवें, राजनीतिक
सिद्धान्तों में विचारधारा का समावेश भी होता है। आम भाषा में विचारधारा का अर्थ
विश्वासों, मूल्यों और विचारों की उस व्यवस्था से होता है जिससे लोग
शासित होते हैं। आधुनिक युग में हम कई तरह की विचारधाराएँ पाते हैं जैसे उदारवाद, मार्क्सवाद, समाजवाद आदि।
प्लेटो से लेकर आज तक सभी राजनीतिक सिद्धान्तों में किसी-न-किसी विचारधारा का
प्रतिबिम्ब अवश्य है। राजनीतिक विचारधारा के रूप में राजनीतिक सिद्धान्तों में उन
राजनीतिक मूल्यों, संस्थाओं और व्यवहारों की अभिव्यक्ति होती हैं
जो कोई समाज एक आदर्श के रूप में अपनाता है। उदाहरण के लिये पश्चिमी यूरोप और
अमरीका के सभी राजनीतिक सिद्धान्तों में उदारवादी विचारधारा प्रमुख रही है। इसके
विपरीत चीन और पूर्व सोवियत यूनियन में एक विशेष प्रकार के मार्क्सवाद का प्रभुत्व
रहा। इस संदर्भ में ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रत्येक विचारधारा स्वयं को
सर्वव्यापक और परम सत्य के रूप में प्रस्तुत करती हैं और दूसरों को अपनाने के लिये
बाध्य करती हैं। परिणामस्वरूप, वैचारिक संघर्ष आधुनिक राजनीतिक सिद्धान्तों का
एक विशेष अंग रहा है।
राजनीतिक सिद्धान्त का महत्त्व
राजनीतिक सिद्धान्तों के महत्त्व को इसके द्वारा किये जाने वाले कार्यों और इनमें निहित उद्देश्यों के आधार पर समझा जा सकता है। राजनीतिक सिद्धान्त राजनीतिक मूल्यों की वह व्यवस्था है जो कोई समाज अपनी राजनीतिकवास्तविकता को समझने और आवश्यकता पड़े तो इसमें परिवर्तन करने के लिये अपनाता है। यह अच्छे जीवन की प्रकृति, इसे प्राप्त करने के लिये संभव संस्थाएँ, राज्य के उद्देश्य इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये सर्वोत्तम राज्य प्रबंध जैसे विषयों का उच्च स्तरीय अध्ययन है। राजनीतिक सिद्धान्तों का महत्त्व इस बात में है कि ये ऐसे नैतिक मानदण्ड प्रदान करते हैं जिनसे राज्य की नैतिक योग्यता की जाँच की जा सके। आवश्यकता पड़ने पर ये वैकल्पिक राजनीतिक प्रबन्ध और व्यवहार का ढाँचा भी प्रदान करते हैं।
समग्र रूप में राजनीतिक सिद्धान्त
(i) राजनीतिक घटनाओं की व्याख्या करते हैं,
(ii) इस व्याख्या के दार्शनिक और वैज्ञानिक आधार प्रदान करते हैं,
(iii) राजनीतिक उद्देश्यों और कार्यों का चयन करने में सहायता करते हैं तथा
(iv) राजनीतिक व्यवस्था का नैतिक आधार प्रदान करते हैं।
जैसा कि ऊपर
स्पष्ट किया गया है, मानव समाज की मौलिक समस्या समुदाय में इकट्ठा
रहना है। इस संदर्भ में राजनीति एक ऐसी प्रक्रिया है जो समाज के सामूहिक
कार्यकलापों को प्रबंधित करती है। सिद्धान्तों का महत्त्व उन दृष्टिकोणों और पद्धतियों
की खोज करना है जो राज्य और समाज की प्रकृति, सरकार का
सर्वश्रेष्ठ रूप, व्यक्ति और राज्य में संबंध तथा स्वतंत्रता, समानता, संपत्ति, न्याय आदि की
धारणाओं का विकास कर सकें। इन अवधारणाओं का विकास उतना ही आवश्यक है जितना समाज की
शान्ति, व्यवस्था, सामन्जस्य, स्थायित्व और
एकता । वास्तव में सामाजिक स्तर पर शान्ति और व्यवस्था बहुत हद तक इस बात पर
निर्भर करती है कि हम स्वतंत्रता, समानता और न्याय जैसी धारणाओं की व्याख्या और
इनका कार्यान्वयन कैसे करते हैं।
समकालीन समाज में
हम कई तरह की समस्याओं का सामना कर रहे हैं जैसे गरीबी, अत्यधिक जनसंख्या, भ्रष्टाचार, जातीय तनाव, प्रदूषण, व्यक्ति समाज और
राज्य में विवाद आदि। राजनीतिक सिद्धान्तों का महत्त्वपूर्ण कार्य इन समस्याओं का
गहराई से अध्ययन और विश्लेषण करके राजनेताओं को वैकल्पिक साधन प्रदान करना होता
है। डेविड हैल्ड के अनुसार, राजनीतिक सिद्धान्तों का महत्त्व इस बात से
प्रकट होता है कि एक क्रमबद्ध अध्ययन के अभाव में राजनीति उन स्वार्थी और अनभिज्ञ
राजनीतिक नेताओं के हाथ का खिलौना मात्र बन कर रह जायेगी जो इसे शक्ति प्राप्त
करने के एक यन्त्र के अतिरिक्त कुछ नहीं समझते।
संक्षेप में, राजनीतिक
सिद्धान्तों का महत्त्व निम्नलिखित आधारों पर समझा जा सकता है:
1. ये राज्य और सरकार की प्रकृति तथा उद्देश्यों का क्रमबद्ध ज्ञान उपलब्ध करवाते हैं,
2. ये सामाजिक और राजनीतिक वास्तविकता तथा किसी भी समाज के आदर्शों एवं उद्देश्यों में संबंध स्थापित करने में सहायता करते हैं।
3. ये व्यक्ति को सामाजिक स्तर पर अधिकार, कर्तव्य, स्वतंत्रता, समानता, सम्पत्ति, न्याय आदि के बारे में सचेत करवाते हैं।
4. ये सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था को समझने तथा उससे संबंधित समस्याओं, जैसे गरीबी, हिंसा, भ्रष्टाचार, जातिवाद आदि के साथ जूझने के सैद्धान्तिक विकल्प प्रदान करते हैं।
5. सिद्धान्तों
का कार्य केवल स्थिति की व्याख्या करना नहीं होता। ये सामाजिक सुधार अथवा
क्रांतिकारी तरीकों से परिवर्तन सम्बन्धी सिद्धान्त भी प्रस्तुत करते हैं।
जब किसी समाज के राजनीतिक सिद्धान्त अपनी भूमिका सही तरीके से निभाते हैं तो वे मानवीय विकास का एक महत्त्वपूर्ण साधन बन जाता है। जनसाधारण को सही सिद्धान्तों से परिचित करवाने का अर्थ केवल उन्हें अपने उद्देश्य और साधनों को सही तरीके से चुनने में सहायता करना ही नहीं है। बल्कि उन रास्तों से भी बचाना है जो उन्हें निराशा की तरफ ले जा सकते हैं।