राजनीति में राज्य का अर्थ आवश्यक तत्व
राजनीति में राज्य का अर्थ आवश्यक तत्व प्रस्तावना
राजनीतिशास्त्र का प्रतिपाद्य विषय राज्य है। अतः यह आवश्यक है कि राज्य शब्द पर सूक्ष्मता के साथ विचार किया जाए। हिन्दी में राज्य शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में होता है। फ्रांस, ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन, भारत आदि राज्य कहे जाते हैं, पर साथ ही न्यूयार्क, कैलिफोर्निया आदि जो प्रान्त संयुक्त राज्य अमेरिका के अन्तर्गत हैं, वे भी राज्य कहलाते हैं । स्वतन्त्र भारत के संविधान के अनुसार उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, काश्मीर आदि भी 'राज्य' हैं। यही नहीं, अनेक जमींदार व ताल्लुकेदार अपनी भूसम्पत्ति को भी राज्य व राज कहते हैं। बलरामपुर, महमूदाबाद आदि केवल जमींदारियां थीं, यद्यपि उन्हें भी राज्य कहा जाता था और उनके स्वामी अपने को महाराजा व राजा कहते थे। मध्यकाल में सामन्त पद्धति के युग में न केवल राजाधिराजाओं द्वारा शासित प्रदेश ही राज्य कहलाते थे, बल्कि सामन्त राजाओं व ठाकुरों द्वारा अधिकृत प्रदेशों को भी राज्य कहा जाता था। अंग्रेजी शासन के समय में राजपूताना के अन्तर्गत जयपुर, जोधपुर आदि भी राज्य कहते थे। इतना ही नहीं, जयपुर के महाराजा के अधीन जो अनेक रावराजा आदि थे, उनके प्रदेश भी राज्य कहे जाते थे।
केवल हिन्दी भाषा
में ही नहीं, अंग्रेजी में भी राजनीतिशास्त्र की अनेक संज्ञाओं का उपयोग
इसी प्रकार अनिश्चित व विविध अर्थों में होता है। राज्य को अंग्रेजी में 'स्टेट' कहते हैं। जहाँ
फ्रांस, ब्रिटेन आदि को स्टेट कहते हैं, वहां कश्मीर, जयपुर, न्यूयार्क आदि भी
स्टेट कहे जाते हैं।
पर
राजनीतिशास्त्र में हमें जिस राज्य व स्टेट का प्रतिपादन करना है, उसमें प्रभुता व
सर्वोपरिता (Sovereignty) का होना आवश्यक है। जो प्रदेश किसी अन्य के अधीन हो, जो सम्पूर्ण
प्रभुत्व-सम्पन्न न हो और जिस पर किसी बाह्य सत्ता का नियंत्रण हो, वह
राजनीतिशास्त्र की दृष्टि में राज्य नहीं होता। न्यूयार्क काश्मीर, बिहार आदि को
यद्यपि सामान्यतया 'राज्य' कहा जाता है, पर
राजनीतिशास्त्र जिस 'राज्य' पर विचार करता है, वह इनसे भिन्न
है। फ्रांस, चीन, भारत आदि जो राज्य सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न
(सॉवरेन) हैं, वे ही राजनीतिशास्त्र की दृष्टि में 'राज्य' हैं और उन्हीं पर
यह शास्त्र विचार करता है।
राज्य और सरकार
हम साधारण भाषा में यह भी कहते हैं कि राज्य को धर्म के मामले में हस्तक्षेप नहीं
करना - चाहिए या व्यवसायों पर राज्य का नियन्त्रण उपयोगी है। इन वाक्यों में राज्य
का अभिप्राय 'सरकार' से है। राज्य और सरकार दो भिन्न वस्तुएं हैं।
राज्य के उद्देश्यों व प्रयोजनों की पूर्ति के लिये जो साधन व संगठन बनाया जाता है, उसे 'सरकार' कहते हैं। राज्य
साध्य है और सरकार उसका साधन जब हम कहते हैं कि राज्य को व्यवसाय पर नियंत्रण रखना
चाहिये, तो हमारा अभिप्राय यही होता है कि सरकार को व्यवसायों पर
नियन्त्रण रखना चाहिये।
राज्य स्थिर रहता
है, यद्यपि सरकार में परिवर्तन होता रहता है। रूस में पहले
एकतन्त्र सम्राटों का शासन था। 1917 में वहाँ राज्य क्रान्ति हुई। पहले लोकतन्त्र
सरकार की स्थापना हुई और बाद में साम्यवादी (कम्युनिस्ट) सरकार की । पर जारशाही
सरकार, लोकतन्त्र सरकार और साम्यवादी सरकार की स्थापना से रूसी
राज्य की सत्ता में कोई अन्तर नहीं आया। रूसी राज्य स्थायी रहा, यद्यपि सरकार में
परिवर्तन आते रहे।
14 अगस्त, 1947 तक भारत में
ब्रिटिश सरकार विद्यमान थी। 15 अगस्त, 1947 को भारत की
शासन सत्ता भारतीयों के हाथ में आ गई और स्वतन्त्र भारतीय सरकार की स्थापना हो गई।
यद्यपि सरकार में परिवर्तन आ गया, पर भारतीय राज्य की सत्ता कायम रही।
राजनीति में राज्य का अर्थ राज्य (State)
मनुष्य के अन्य समुदायों के समान राज्य भी एक समुदाय है। इसके भी निश्चित उद्देश्य व निश्चित प्रयोजन है। उन उद्देश्यों व प्रयोजनों की पूर्ति के लिये जब एक साधन (एक ही प्रकार की सरकार ) उपयुक्त नहीं रहता, तो नये साधन (एक नई सरकार ) का अवलम्बन किया जाता है। यही कारण है कि सरकार में बहुधा परिवर्तन होते रहते हैं। इतिहास में हम देखते हैं कि एकतन्त्र शासन (मोनार्की) का अन्त होकर लोकतन्त्र शासन (डेमोक्रेसी) की स्थापना होती है। 1781 में फ्रांस में राज्य क्रान्ति हुई। बूब वंश के स्वेच्छाचारी निरंकुश राजाओं का अन्त होकर वहाँ लोकतन्त्र सरकार की स्थापना हुई। हम यह भी देखते हैं कि लोकतन्त्र शासन की सब शक्ति को कोई एक व्यक्ति अपने हाथ में करके स्वयं एकाधिपति (डिक्टेटर) बन जाता है। जर्मनी में हिटलर और इटली में मुसोलिनी इसी प्रकार एकाधिपति बन गये। राज्य क्रान्ति, षड्यन्त्र आदि द्वारा राज्यों की सरकार में बहुधा परिवर्तन होते रहते हैं। पर इससे राज्य की स्थायित्व में बाधा नहीं पड़ती। जिन राज्यों में लोकतन्त्र शासन होता है, उनमें भी संसद (पार्लियामेंट) में विद्यमान विविध दलों के पारस्परिक संघर्ष के कारण सरकार प्रायः बदलती रहती है। ग्रेट ब्रिटेन में कभी मजदूर दल की सरकार बनती है, कभी कन्जर्वेटिव दल की अमेरिका में डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन दल अपनी सरकारें बनाते रहते हैं। पर सरकार में हुए इन परिवर्तनों के कारण ब्रिटेन व अमेरिका की सत्ता व स्थायित्व में अंतर नहीं आता। राज्य सदा स्थायी रहता है, स्थायित्व उसका एक आवश्यक गुण है। इसके विपरीत सरकार अस्थायी व परिवर्तनशील होती है, उसमें बहुधा परिवर्तन होते रहते हैं।
फ्रांस का राजा
14वां लुई (1643-1715) कहा करता था “राज्य क्या है? मैं ही तो राज्य
हूँ।" पर 14वें लुई की मृत्यु के साथ फ्रेंच राज्य का अन्त नहीं हो गया।
वस्तुतः लुई राज्य नहीं था। हाँ, वह फ्रेंच सरकार का अधिपति अवश्य था। फ्रेंच
सरकार की सब शक्ति उसमें निहित थी, पर लुई राज्य से
भिन्न था। इसी कारण उसके मरने पर फ्रांस की मृत्यु नहीं हो गई। फ्रेंच राज्य स्थिर
रहा. यद्यपि फ्रेंच सरकार में परिवर्तन हो गया।
राज्य सम्पूर्ण
प्रभुत्व-सम्पन्न (Sovereign) होता है, सरकार नहीं सरकार
के पास जो भी शक्ति, अधिकार व सत्ता होती हैं, वह सब उसे राज्य
द्वारा ही प्राप्त होती हैं। संविधान (कॉन्स्टिट्यूशन) द्वारा जो शक्ति सरकार को
प्रदान की जाती है, सरकार उससे अधिक शक्ति प्रयोग में नहीं ला
सकती। राज्य को अधिकार होता है कि सरकार को दी हुई शक्ति में वृद्धि व कमी कर सके।
अभिप्राय यह है कि वास्तविक प्रभुता (सॉवरेन्टी) राज्य में निहित होती हैं, सरकार में नहीं, क्योंकि सरकार तो
राज्य के हाथ में एक साधन मात्र है।
राज्य का लक्षण -
राजनीतिशास्त्र के विविध आचार्यों ने राज्य के लक्षण भिन्न-भिन्न रीति से किये हैं। जर्मन विद्वान शुल्ज ने ठीक ही लिखा है कि राज्य के इतने अधिक लक्षण किये गये हैं कि उनका परिगणन कर सकना कठिन है। प्रत्येक विद्वान ने राज्य का लक्षण भिन्न प्रकार से किया है। इसके दो कारण हैं- (1) भिन्न-भिन्न समयों में राज्य के स्वरूप की भिन्नता - प्राचीन समय में एथेन्स वज्जिगण, स्पार्टा आदि जो गणराज्य थे, उनका स्वरूप वर्तमान युग के विशाल राज्यों की अपेक्षा बहुत कुछ भिन्न था। अतः यदि प्राचीन पण्डितों और अर्वाचीन विद्वानों के राज्य-संबंधी लक्षणों में भेद हो, तो यह स्वाभाविक ही है। (2) कानून का पण्डित राज्य को जिस दृष्टि से देखता है, राजनीतिशास्त्र के विद्वान की दृष्टि उससे भिन्न होती है। विभिन्न विद्वान् राज्य के भिन्न-भिन्न पहलुओं को महत्त्व देते हैं।
इसी कारण उनके द्वारा किये गए राज्य के लक्षणों में भी भेद आ जाता है:
प्राचीन विचारकों द्वारा किये गए राज्य के लक्षण
पाश्चात्य संसार में राजनीतिशास्त्र का सबसे प्राचीन आचार्य अरस्तु (चौथी सदी ई० पू० ) था। वह ग्रीस का निवासी था और राजनीतिशास्त्र पर उसने उनके ग्रन्थों की रचना की थी। उसने राज्य का लक्षण इस प्रकार किया था - "राज्य कुलों और ग्रामों के उस समुदाय का नाम है, जिसका उद्देश्य पूर्ण और सम्पन्न जीवन की प्राप्ति है।" अरस्तु के इस लक्षण के अनुसार राज्य की उत्पत्ति से पूर्व मनुष्यों के अन्य समुदायों का विकास हो चुका था। मनुष्य पहले कुलों में संगठित हुआ। फिर अनेक कुलों के मिलने पर ग्राम की रचना हुई। मनुष्य अकेला रहते हुए जीवन की पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता। समुदाय में संगठित होने पर उसके लिये यह संभव हो जाता है कि वह जीवन की पूर्णता को प्राप्त कर सके। जिन्हें हम सद्गुण कहते हैं, वे समुदाय में रहते हुए मनुष्य के लिये ही संभव है। उपकार, दया, सत्य, अस्तेय आदि गुणों की सत्ता तभी संभव है, जब मनुष्य समुदाय (समाज) में निवास करे। पर कुल व ग्राम सदृश समुदाय में मानव जीवन पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता। इसके लिये यह आवश्यक है कि मनुष्य अधिक विशाल व अधिक पूर्ण समुदाय में संगठित हों। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समुदाय में ही अपने जीवन का भलीभांति विकास कर सकता है। समुदाय का सबसे अधिक उत्कृष्ट रूप राज्य है, जिसमें कुल, ग्राम आदि भी अंगरूप से अन्तर्गत रहते हैं। प्राचीन ग्रीक लोग यह मानते थे कि व्यक्ति की सत्ता समाज के लिये है। व्यक्ति के हितों को समूह के लिये न केवल कुर्बान कर देना उचित है, अपितु व्यक्ति का चरम विकास व पूर्णता ही इस बात में है कि वह अपने को समूह (समष्टि) में लीन कर दे। इसीलिये अरस्तु ने राज्य (जो कि समूह या समुदाय का उत्कृष्ट रूप है) द्वारा पूर्ण वह सम्पन्न जीवन को प्राप्त करने की बात का प्रतिपादन किया था। इसीलिए उसने लिखा था- " प्रत्येक समुदाय का उद्देश्य यही होता है कि वह किसी हित का सम्पादन करे। राज्य एक ऐसा समुदाय है जो अन्य सब समुदायों की अपेक्षा अधिक उत्कृष्ट है और अन्य सब समुदाय जिसके अन्तर्गत होते हैं। अतः राज्य का उद्देश्य सर्वाधिक हित को सम्पादित करना है। "
रोमन साम्राज्य
में सिसरो एक प्रसिद्ध राज्यशास्त्री हुआ है। उसने राज्य का लक्षण इस प्रकार किया
था - " राज्य उस समुदाय को कहते हैं, जिसमें यह भावना
विद्यमान हो कि सबको उस (समुदाय) के लाभों का परस्पर साथ मिलकर उपभोग करना
है।" सिसरो के इस लक्षण में यह विचार प्रधान है कि राज्य रूपी समुदाय में जो
मनुष्य संगठित हैं, वे सब समान रूप से उन लाभों को व उन हितों को
प्राप्त करते हैं, जो राज्य के अतिरिक्त अन्य किसी उपाय व संगठन
द्वारा प्राप्त नहीं किये जा सकते। राज्य की उत्पत्ति व विकास के कारण मनुष्य कुछ
ऐसे लाभों को प्राप्त करने में समर्थ हुआ है, जो उसे पहले
प्राप्त नहीं थे या जो राज्य के बिना उसे प्राप्त नहीं हो सकते थे।
मध्यकालीन यूरोप
पर रोमन विचारधारा का बहुत प्रभाव रहा। इसी कारण इस काल के अन्य राज्यशास्त्रियों
पर सिसरो के विचारों का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। सिसरो के
विचारणीय सार का अनुसरण करते हुए ग्रोसिअस ने राज्य का लक्षण इस प्रकार किया था -
" राज्य ऐसे स्वतन्त्र मनुष्यों के पूर्ण समुदाय का नाम है, जिन्होंने अपना
संगठन सर्वसामान्य लाभों व उपयोगिता की प्राप्ति के लिये किया हो। "
मध्यकालीन यूरोप के अन्य विचारक भी राज्य का लक्षण प्राय: इसी प्रकार से करते रहे।
उनकी दृष्टि में राज्य की ये विशेषताएं होती थीं- (1) राज्य अन्य सब समुदायों की
अपेक्षा अधिक परिपूर्ण ( उच्चतम) समुदाय है। (2) उसका प्रयोजन व उद्देश्य यह है कि
मनुष्य सम्मिलित रूप से उन लाभों को प्राप्त करें, जो केवल राज्य
द्वारा ही प्राप्त किये जा सकते हैं।
आधुनिक विचारकों द्वारा किये गए राज्य के लक्षण-
अर्वाचीन युग में राज-शास्त्रियों ने राज्य पर
विचार करना शुरू किया, तो उन्होंने राज्य के निम्नलिखित तत्वों का
प्रतिपादन किया- (1) जनता (2) प्रदेश व भूमि, (3) शासन और (4)
प्रभुता या सर्वोपरिता किसी ऐसे समुदाय को राज्य नहीं कहा जा सकता, जिसमें ये चारों
बातें न हो। समुदाय मनुष्यों का होना चाहिये, उस समुदाय के पास
कोई अपना निश्चित प्रदेश या भूमिखण्ड होना चाहिये, जो केवल उस मानव
समुदाय का हो और उस उस पर किसी अन्य बाह्य शक्ति का अधिकार व नियन्त्रण न हो। यह
भी आवश्यक है कि यह समुदाय किसी राजनीतिक संगठन में संगठित हो और इसकी सत्ता
सर्वोपरि हो, अन्य कोई समुदाय इसकी अपेक्षा अधिक शक्ति न रखता हो ।
आधुनिक विचारकों
ने राज्य के जो लक्षण किये, उनमें उन्होंने राज्य की इन्हीं चार विशेषताओं
को प्रगट करने का प्रयत्न किया। यहां यह उपयोगी होगा कि हम कतिपय विद्वानों द्वारा
किये गए राज्य के लक्षण को उद्धृत करें।
अंग्रेज विद्वान हालैण्ड ने राज्य का लक्षण इस प्रकार किया है-
“ राज्य मनुष्यों के उस समूह व समुदाय को कहते हैं, जो साधारणतया किसी निश्चित प्रदेश पर बसा हुआ हो और जिसमें किसी एक श्रेणी व बहुसंख्या की इच्छा अन्य सबके मुकाबले में क्रिया में परिणत होती हो।"
हालैण्ड द्वारा किये गए राज्य के इस लक्षण में
निम्नलिखित बातों पर जोर दिया गया है- (1) राज्य मनुष्यों का एक ऐसा समुदाय है, जो साधारणतया
किसी निश्चित प्रदेश पर स्थायी रूप से बसा हुआ हो। (2) इस समुदाय में कुछ लोगों की
इच्छा चलती हो, अन्य सबको इस इच्छा के सम्मुख सिर झुकाना पड़े। अन्य लोग
चाहे इस 'इच्छा' के विरोधी भी क्यों न हों, पर उन्हें दबाना
पड़े। यह इच्छा किसी अल्पसंख्यक श्रेणी की भी हो सकती है और बहुसंख्यक जनता की भी
लोकतन्त्र राज्यों में बहुसंख्यक जनता की इच्छा क्रिया में परिणित होती है। कतिपय
राज्यों में यह भी होता है कि कोई असाधारण शक्ति सम्पन्न मनुष्य या कोई श्रेणी
अपने धन, बुद्धि व शौर्य के बल पर स्वयं अल्पसंख्या में होते हुए भी
बहुसंख्यक लोगों पर शासन करे और अपनी इच्छा के सम्मुख अन्य लोगों की इच्छा को न
चलने दे ।
जर्मन विद्वान ब्लुयुशली के अनुसार
"मनुष्य जाति के राजनीतिक दृष्टि से संगठित हुए एक विशिष्ट भाग का नाम ही राज्य है।"
इस लक्षण में जनता और शासन इन दो तत्वों का भलीभांति
समावेश हो गया है, पर प्रभुता व सर्वोपरिता का समावेश इसमें नहीं
हुआ। जिस समय ब्लुशली ने अपने विचारों का प्रतिपादन किया था, तब जर्मनी में
बहुत-से छोटे-बड़े राज्य थे, यद्यपि एशिया इन विविध राज्यों को अपनी अधीनता
में लाने के लिये प्रयत्नशील था। 'पवित्र रोमन
साम्राज्य की सत्ता भी तब तक पूर्णतया नष्ट नहीं हुई थी। यूरोप के बहुत से
शक्तिशाली व स्वतन्त्र राजा किसी-न-किसी अंश में पवित्र रोमन सम्राट् के प्रभुत्व
को स्वीकार करते थे। इस दशा में प्रभुता व सर्वोपरिता की बात की ब्लुशली ने यदि
महत्त्व न दिया हो, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं ।
बर्गेस ने
ब्लुशली के सदृश ही राज्य को मानव समाज का एक ऐसा विशिष्ट भाग माना है, जिसे एक संगठित
इकाई समझा जा सके। मानव समाज अनेक भागों में विभक्त है। जिस भाग को एक पृथक्
सुसंगठित समुदाय समझा जा सके, वही एक पृथक् राज्य है। इस दृष्टि से फ्रांस, चीन, भारत आदि मानव
समाज के ऐसे विशिष्ट भाग हैं, जिन्हें पृथक् रूप से संगठित इकाई समझा जा सकता
है।
संयुक्त राज्य अमेरिका के उच्चतम न्यायालय ने एक मुकदमे का निर्णय करते हुए राज्य का लक्षण इस प्रकार किया था -
" राज्य स्वतन्त्र मनुष्यों के ऐसे समुदाय का नाम है, जो इस उद्देश्य से संगठित हो कि सबका हित सम्पादित हो सके, जो कुछ उन मनुष्यों का अपना है, उसका वे शान्तिपूर्वक उपभोग कर सकें और दूसरों के प्रति न्याय कर सकें।"
एक अन्य अवसर पर अमेरिका के उच्चतम न्यायालय ने राज्य का लक्षण कुछ भिन्न प्रकार से किया था -
" राज्य स्वतन्त्र मनुष्यों के ऐसे राजनीतिक समुदाय को कहते हैं, जो किसी ऐसे प्रदेश में बसा हुआ हो, जिसकी सीमाएं निश्चित हो और जिसका संगठन किसी ऐसी सरकार के अधीन हो, जिसकी स्थापना शासित लोगों की अनुमति द्वारा हुई हो और जिसकी शक्ति एक लिखित संविधान द्वारा मर्यादित होती हो।"
इस लक्षण से राज्य का स्वरूप भलीभांति स्पष्ट हो जाता है, यद्यपि इसके
अनुसार उन राज्यों को 'राज्य' नहीं कहा जा
सकेगा, जिनमें किसी एकतन्त्र स्वेच्छाचारी राजा का शासन हो या
जिनका कोई निश्चित व लिखित संविधान न हो। संयुक्त राज्य अमेरिका में आजकल जैसी
सरकार है और वहाँ संविधान का जो रूप है, उसका इस लक्षण पर
प्रभाव स्पष्ट है। सम्भवतः, संसार के अनेक पुरातन व वर्तमान राज्यों पर यह
लक्षण लागू नहीं हो सकेगा।
फिलिमोर ने राज्य का जो लक्षण किया है, यह सम्भवतः राज्य के स्वरूप को अधिक स्पष्ट करता है। उसके अनुसार,
“राज्य मनुष्यों का वह समुदाय है जो कि निश्चित प्रदेश व भूमिखंड पर स्थायी रूप में बसा हुआ हो और जो एक कानून, एक अभ्यास और एक रीति-रिवाज द्वारा एक सुदृढ़ संगठन में भलीभांति संगठित हो और जो सुव्यवस्थित सरकार द्वारा उस प्रदेश की सीमा में बसने वाले सब मनुष्यों व उस प्रदेश में विद्यमान सब पदार्थों पर पूरा नियन्त्रण अधिकार व प्रभुत्व रखता हो और जिसे संसार के अन्य किसी भी समुदाय से सन्धि व विग्रह करने का या किसी अन्य प्रकार के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध स्थापित करने का अधिकार हो।"
फिलिमोर ने राज्य का जो
यह लक्षण किया है, उसमें जहाँ भूमि, जनता, सरकार और प्रभुता
इन चारों तत्वों का भलीभांति समावेश हो गया है, वहां साथ ही एक
अन्य बात को भी सूचित किया गया है। राज्य के सब निवासियों को एक कानून, एक अभ्यास व एक
रीति-रिवाज द्वारा भलीभांति सुसंगठित भी होना चाहिए। एक कानून एक अभ्यास एक
रीति-रिवाज व एक परम्परा मनुष्यों व उस विशेषता को उत्पन्न करती है, जिसे राष्ट्रीयता
कहा जाता है। इतिहास के विविध राज्यों में यह प्रवृत्ति रही है कि एकसृदश लोग एक
समुदाय में संगठित हों, एक राज्य के सब निवासी एक राष्ट्रीयता के अंग
हों। फिलिमोर ने राज्य के इस लक्षण में इसी तथ्य को सूचित किया है। पर इस लक्षण के
अनुसार उन राज्यों को 'राज्य' नहीं कहा जा सकेगा, जिनमें विविध
जातियों व राष्ट्रीयताओं के लोग निवास करते हों। उन्नीसवीं सदी के आस्ट्रिया-हंगरी
राज्य में आस्ट्रियन हंगेरियन, चेकोस्लोवाक आदि कितनी ही राष्ट्रीयताओं का
निवास था। इन सबके + कानून, अभ्यास और रीति-रिवाज भी भिन्न-भिन्न थे।
गार्नर ने राज्य
का जो लक्षण किया है, वह शायद सबसे अधिक स्पष्ट व उत्तम है। उसके
अनुसार “राज्य मनुष्यों के उस समुदाय का नाम है, जो संख्या में
चाहे अधिक हो या न्यून, पर जो किसी निश्चित भूखण्ड पर स्थायी रूप से
बसा हुआ हो, जो किसी भी बाह्यशक्ति के नियन्त्रण से पूर्णतया व प्रायः
स्वतन्त्र हो और जिसमें एक ऐसी सुसंगठित सरकार विद्यमान हो, जिसके आदेश का
पालन करने के लिये उस भूखण्ड के प्रायः सब निवासी अभयस्त हों। " इस लक्षण की
विशेषता यह है कि इसमें राज्य के चारों तत्वों भूमि, जनता, शासन (सरकार) और
जहाँ स्पष्ट रूप से समावेश है, वहाँ साथ ही ये बातें भी स्पष्ट हो गई हैं- (1)
राज्य का जनसमुदाय जहाँ चीन, भारत, प्रभुता का रूस
आदि के जनसमुदाय के समान संख्या में बहुत विशाल हो सकता है, वहाँ बेल्जियम, लक्सम्बर्ग, सन मारिनो, अफगानिस्तान आदि
की जनता के समान अल्पसंख्यक भी हो सकता है। जनसंख्या, शक्ति आदि की
दृष्टि से रूस और अफगानिस्तान में अत्यधिक विषमता होते हुए भी राज्य की दृष्टि से
दोनों एक समान स्थिति रखते हैं। (2) प्रभुता व सर्वोपरिता राज्य के आवश्यक तत्व
हैं, पर इतिहास में हम बहुत से ऐसे राज्यों को देखते हैं, जो अविकलरूप से 'सम्पूर्ण
प्रभुत्व-सम्पन्न' नहीं थे। मध्यकाल के बहुत से राजा महाराजा
अपने-अपने राज्य में 'प्रभु' होते हुए भी किसी
अन्य शक्तिशाली राजा को अपना अधिपति स्वीकार करते थे। यूरोप के बहुसंख्यक
मध्यकालीन राजा 'पवित्र रोमन सम्राट्' को अपना अधिपति
मानते थे। मध्यकालीन भारत के बहुत से स्वतन्त्र महाराजा व नवाब दिल्ली के
सुल्तानों व बादशाहों की प्रभुता को स्वीकार करते थे। वर्तमान काल में भी भारत
कनाडा आदि अनेक राज्य 'सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न' होते हुए भी
ब्रिटिश कॉमनवेल्थ के अंग हैं और ऐतिहासिक व अन्य परिस्थितियों के कारण उन्होंने
एक बाह्यशक्ति के साथ ऐसे सम्बन्ध स्थापित किये हुए हैं, जिनके कारण उनकी
प्रभुता व सर्वोपरिता कुछ अंशों में मर्यादित हो सकती है। गार्नर द्वारा किये गए
राज्य के लक्षण में यह गुंजाइश हो जाती है कि ऐसे राज्यों को भी 'राज्य' कहा जा सके।
राजनीतिशास्त्र के विविध आचार्यों द्वारा राज्य के जो लक्षण किये गये हैं, उनमें से कतिपय को यहाँ उद्धृत करने का सही प्रयोजन है कि यह भली-भाँति स्पष्ट हो जाये कि राज्य के प्रधान तत्व निम्नलिखित होते हैं-
(1) राज्य ऐसे मनुष्यों का एक समुदाय है, जो एकसदृश उद्देश्यों से परस्पर संगठित हुए हों।
(2) ये मनुष्य पृथ्वी के किसी निश्चित भाग पर स्थायी रूप से बसे हुए हों और वे इसे अपना घर व मातृभूमि समझते हों
(3) यह समुदाय पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न हो, किसी बाह्य शक्ति व सत्ता का इस पर नियन्त्रण न हो और
(4) इसमें एक ऐसी सरकार विद्यमान हो, जिसके आदेशों का
पालन इस भूखंड के सब निवासी करते हों और यह संस्कार उस राज्य के उद्देश्यों को
पूरा करने का साधन रूप हो ।
राज्यविशेष और राज्यसामान्य-
पर यहां यह ध्यान में रखना चाहिये कि राजनीतिक शास्त्र का
प्रतिपाद्य विषय जो राज्य है, वह कोई राज्यविशेष नहीं है, अपितु राज्य
सामान्य है। चीन, भारत, फ्रांस आदि
राज्यविशेष है। पुरातन काल में एथेन्स, स्पार्टा, रोम, मगध, कोशल, वज्जि आदि जो
राज्य थे, वे भी राज्यविशेष थे। राजनीतिशास्त्र में इन विशिष्ट
राज्यों पर विचार नहीं किया जाता, यद्यपि इन राज्यों के उदाहरण से विषय को सममझने
में सहायता ली जाती है। इतिहास के प्राचीन, मध्यकालीन व
आधुनिक कालों के विभिन्न राज्यों में जो राज्यत्व समान रूप से है. वही
राजनीतिशास्त्र का प्रतिपाद्य विषय है। उस 'राज्य' का क्या स्वरूप
है, उसके क्या अंग हैं, उसका क्या ध्येय
है, उसकी उत्पत्ति किस प्रकार हुई इसी प्रकार के प्रश्नों पर
हमें विचार करना है। फ्रांस व भारत सदृश राज्यविशेष की उत्पत्ति किस प्रकार हुई, उसका स्वरूप व
ध्येय क्या है इन प्रश्नों पर हमें विचार नहीं करना है।
आदर्श राज्य और वास्तविक राज्य
कुछ विचारकों ने आदर्श राज्य और वास्तविक राज्य में भी भेद करने का - प्रयत्न किया है। राज्य हमारे सम्मुख एक आदर्श का चित्र उपस्थित करता है। राज्य का निरन्तर विकास हो रहा है। मानव इतिहास के प्रभातकाल में जो छोटे-छोटे व अव्यवस्थित राज्य थे, उनका स्थान अब ऐसे विशाल व सुव्यवस्थित राज्यों ने ले लिया है, जिनमें विशाल जनता का निवास है। यह भी संभव है कि भविष्य में 'राज्य' विश्वव्यापी हो जाये, सम्पूर्ण मानव समाज एक 'समुदाय' से संगठित हो जाये; राज्य की जनता का अभिप्राय सम्पूर्ण मानव समाज एक 'समुदाय' से संगठित हो जाये; राज्य की जनता का अभिप्राय संपूर्ण मनुष्य जाति और राज्य की भूमि का अभिप्राय संपूर्ण पृथ्वी हो जाये। आधुनिक युग की अंतर्राष्ट्रीय हमें इसी ओर ले जा रही है। जिस समय यह आदर्श क्रिया में परिणत हो जाएगा, तभी राज्य का चरम उत्कर्ष संभव होगा। हम कहते हैं, राज्य मानव समुदाय का सर्वोच्च रूप है; पर राज्य मानव समुदाय का उत्कृष्टतम रूप तभी बनेगा, जब संपूर्ण मनुष्य जाति एक राज्य में संगठित हो जायगी। तभी राज्य उस प्रयोजन की पूर्ति कर सकेगा, जिसके लिए मनुष्यों ने समूह में रहना प्रारंभ किया था और जिसके कारण उसे 'सामाजिक प्राणी' कहा जाता है।
पर राज्य का यह आदर्श अभी वास्तविकता से बहूत दूर है। अभी तो राज्य उसी मानव समुदाय का नाम है, जो किसी निश्चित प्रदेश पर बसा हुआ है और जो सर्वोपरि सत्ता रखते हुए एक ऐसी शक्ति के रूप में संगठित है, जिसके आदेशों का पालन उस प्रदेश के सब निवासी करते हैं।