राजनीतिक शक्ति का अर्थ और व्याख्या
राजनीति में शक्ति और सत्ता प्रस्तावना ( Introduction)
राजनीति विज्ञान
के अध्ययन के अन्तर्गत यह आवश्यक हो जाता है कि हमारे द्वारा मानव के सार्वजनिक
व्यवहार को निर्धारित करने वाले और राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित करने वाले
तत्वों का अध्ययन किया जाये और यदि यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाया जाये तो इस
सम्बन्ध में जो तत्व सबसे प्रमुख रूप में उभरकर हमारे सामने आता है, वह निश्चित रूप
से 'शक्ति' ही है। प्रारम्भिक काल से लेकर अब तक राजनीतिक
विज्ञान विषय के विद्वानों द्वारा शक्ति के महत्त्व को स्वीकार किया जाता रहा है।
भारत में राजनीतिक विज्ञान के जनक कौटिल्य ने 'दण्ड शक्ति' जो कि शक्ति का ही पर्याय है, को राजनीति का
मूल आधार माना है। एक स्थान पर वे लिखते हैं कि " समस्त सांसारिक जीवन का मूल
आधार दण्ड-शक्ति ही है।" वस्तुतः समस्त भारतीय साहित्य दण्ड-शक्ति के महत्त्व
से भरा पड़ा है। पाश्चात्य राजनीतिक विज्ञान के अन्तर्गत भी यही बात देखी जा सकती
है। बैकर (Becker) के अनुसार, “राजनीति शक्ति से
अपृथकनीय है" और कैटलिन ने राजनीति को शक्ति का विज्ञान' माना है।
बर्ट्रेण्ड रसल ने तो शक्ति को समाज विज्ञान की मूलभूत अवधारणा के रूप में माना है
और एल. एस. अलमर के कथनानुसार, "सभी सामाजिक
विज्ञानों में शक्ति की धारणा से इतना सम्बन्धित कोई भी नहीं है जितना कि राजनीतिक
विज्ञान है। अरस्तु से लेकर आज तक के राजनीतिक लेखकों की विषय-वस्तु का विश्लेषण
करने पर यह निस्सन्देह स्पष्ट हो जाता है कि शक्ति इसमें एक केन्द्रीय धारणा रही, जिसके सहारे
राजनीतिक विज्ञान को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया" आर. एम. मैकाइवर, बायर्सटेड, ह्वाटकिन्स और
विलियम ए. रोबसन आदि के द्वारा भी ऐसे विचार व्यक्त किये गये हैं।
राजनीतिक विज्ञान
में शक्ति की धारणा को समझना इसलिए भी आवश्यक हो जाता है कि इस सम्बन्ध में जो
मिथ्या विचार प्रचलित हैं, उन्हें दूर किया जा सके। लार्ड एक्टन का
प्रसिद्ध कथन कि 'शक्ति भ्रष्ट करती है और निरंकुश शक्ति
पूर्णतया भ्रष्ट कर देती है, हमारे मन और मस्तिष्क में शक्ति के प्रति एक
दुर्भावना को जन्म देती है। वस्तुस्थिति यह है कि शक्ति तो सामाजिक व्यवस्था के
लिए नितान्त आवश्यक है और शक्ति के बिना किसी प्रकार की सामाजिक व्यवस्था की
कल्पना नहीं की जा सकती, केवल शक्ति अति या शक्ति के दुरुपयोग के साथ ही
भ्रष्टाचार को जोड़ा जा सकता है। इसी प्रकार एक नैतिक धारणा के रूप में 'सत्यमेव जयते' नितान्त
औचित्यपूर्ण विचार हैं और मानवीय जीवन में हमारा आदर्श यही होना चाहिए, लेकिन
वस्तुस्थिति यह है कि सत्य के पीछे शक्ति के बल होने पर ही उसके विजय की आशा की जा
सकती है। यथार्थवादी दृष्टिकोण से सत्य और शक्ति एक-दूसरे के विरोधी नहीं, वरन् पूरक हैं और
पास्कल (Pascal) ने इस आधार पर ही न्याय और शक्ति के संयोजन की आवश्यकता के
विषय में अपने विचार व्यक्त किये हैं।
राजनीति में शक्ति का अर्थ और व्याख्या
रॉबर्ट ए. डैल के मतानुसार, शक्ति के अध्ययन की प्रमुख कठिनाई यह है कि इसके अनेक अर्थ होते हैं। वस्तुस्थिति यही है और शक्ति को विभिन्न विचारकों ने अलग-अलग रूप से परिभाषित किया है।
शक्ति की कुछ परिभाषाएँ इस प्रकार हैं:
रॉबर्ट बायर्सटेड के अनुसार, “शक्ति बल प्रयोग की योग्यता है न कि उसका वास्तविक प्रयोग। "" मैकाइवर “शक्ति होने से हमारा अर्थ व्यक्तियों या व्यक्तियों के व्यवहार को नियन्त्रित करने, विनियमित करने या निर्देशित करने की क्षमता से है।'
मॉर्गेन्थाङ " शक्ति का प्रयोग करने वालों तथा उनके बीच, जिन पर इसे लागू किया जा रहा है, एक मनोवैज्ञानिक सम्बन्ध होता है। शक्ति में वह प्रत्येक वस्तु सम्मिलित है, जिसके माध्यम से व्यक्तियों पर नियन्त्रण स्थापित किया जाता तथा उसे बनाये रखा जाता है।"
गोल्डहैमर तथा शिल्स के अनुसार, “एक व्यक्ति को उतना ही शक्तिशाली कहा जाता हैं जितना कि वह अपने लक्ष्यों के अनुरूप दूसरों के व्यवहार को प्रभावित कर सकता है। "
आर्गेन्सकी “ शक्ति से दूसरे के आचरण को अपने लक्ष्यों के अनुसार प्रभावित करने की क्षमता है। "
लासवेल, केपलान और हरबर्ट साइमन ने शक्ति को 'प्रभाव प्रक्रिया' (Influence Process) के रूप में परिभाषित किया है। उसके मतानुसार शक्ति का उपयोग करते हुए दूसरों की नीतियों और कार्यों को प्रभावित किया जाता है तथा इस प्रक्रिया में दोनों पक्षों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है।
राबर्ट ए. डैल के अनुसार, “शक्ति के लोगों
के पारस्परिक सम्बन्धों की एक ऐसी विशेष स्थिति का नाम है जिसके अन्तर्गत एक पक्ष
द्वारा दूसरे पक्ष को प्रभावित कर उससे कुछ ऐसे कार्य कराये जा सकते हैं जो उसके
द्वारा अन्यथा न किये जाते । "
लासवेल और केपलान
की उपर्युक्त धारणाओं के अन्तर्गत शक्ति को प्रभाव का पर्यायवाची माना गया है। कुछ
परिस्थितियों में यह सत्य होता है, लेकिन सभी
परिस्थितियों में नहीं। शक्ति और प्रभाव एक ही व्यक्ति में पाये जा सकते हैं और
अलग-अलग व्यक्तियों या व्यक्ति समूहों में स्थित भी हो सकते हैं।
शक्ति और प्रभाव
दोनों प्रभावित व्यक्ति के व्यवहार को परिवर्तित करते हैं, किन्तु उस
व्यक्ति का व्यवहार शक्ति के कारण परिवर्तित हुआ या प्रभाव के कारण इसका निर्णय
स्वयं वही कर सकता है। ये दोनों एक-दूसरे के लिए वर्द्धनकारी भी हो सकते हैं।
वास्तव में शक्ति
मानव जीवन का एक सरल तत्व होने के स्थान पर बहुत अधिक जटिल और मैकाइबर के अनुसार
एक बहुपक्षीय तत्व है। उदाहरण के लिए, जब यह कहा जाता
है कि प्रधानमन्त्री की मन्त्रिमण्डल पर कुछ शक्तियाँ हैं तो यह कथन पूर्णतया
निरर्थक न होते हुए भी बहुत अधिक उपयोगी नहीं है। शक्ति का सही रूप जानने के लिए.
अनेक बातों का उल्लेख करना होगा। उदाहरण के लिए, प्रधानमन्त्री की
शक्ति का स्रोत क्षेत्र एवं आधार क्या है, मन्त्रिमण्डल पर
अपनी शक्ति का प्रयोग करने के लिए प्रधानमन्त्री द्वारा कौन-कौन से साधन अपनाये
जाते हैं, मन्त्रिमण्डल पर उसकी शक्ति की मात्रा कितनी है तथा यह
शक्ति कितनी व्यापक है।
निष्कर्ष रूप में
राजनीतिक शक्ति के सम्बन्ध में तीन बातें कही जा सकती हैं। प्रथम, राजनीतिक शक्ति
धारण करने वालों में उच्च अधीनस्थ सम्बन्ध प्रकट होना स्वाभाविक है। द्वितीय, राजनीतिक शक्ति
का प्रयोग अन्ततोगत्वा सामान्य जनता पर होता है और उसे सत्ता का प्रयोग करने वालों
की बात माननी होती है। तृतीय, राजनीतिक शक्ति मनोवैज्ञानिक सम्बन्ध प्रकट
करती है, न कि भौतिक सम्बन्ध ।
शक्ति का बल, प्रभाव और सत्ता से भेद
(Distinction of Power with Force, Influence and Authority)
शक्ति और बल (Power and Force)
सामान्यतया शक्ति और बल को एक ही समझ लिया जाता है, किन्तु वास्तव में इन दोनों में अन्तर है। शक्ति बल का पर्याय नहीं है, क्योंकि शक्ति प्रच्छन्न बल है और बल प्रकट शक्ति । शक्ति की पृष्ठभूमि में बल रह सकता है, किन्तु वह बिल्कुल अलग है। शक्ति अप्रकट तत्व है, बल प्रकट तत्व है। बल का अर्थ है शास्तियों (Sanctions) की प्रयुक्ति या प्रतिबन्धों की व्यवस्था, जिसमें साधारण जुर्माने से लेकर प्राणदण्ड तक शमिल है। इस दृष्टि से शक्ति एक मनोभाव अथवा पूर्ण क्षमता है जो कि बल को सम्भव बनाती है।
रॉबर्ट बायर्सटेड
के अनुसार, “शक्ति बल प्रयोग की योग्यता है न कि उसका वास्तविक
प्रयोग।" वास्तव में, बल शक्ति का एक रूप है, किन्तु बल ही
शक्ति नहीं है। बायर्सटेड ने शक्ति के तीन रूप बताये हैं: बल, प्रभाव तथा
प्रभुत्व । बल शक्ति के दमन में उसी प्रकार रहता है, जैसे बादल में बिजली रहती है। जब बल अमर्यादित तथा
लक्ष्यहीन होता है, तब उसे दमन कहा जाता है। स्वीकृत, सीमित तथा
नियन्त्रित बल को शस्तियाँ कहा जाता है, प्रकार शक्ति बल
की तुलना में निश्चित रूप से एक व्यापक तत्व है। इस
राजनीतिक शक्ति एवं सैनिक शक्ति में अन्तर
(Distinction between Political Power and Mili- tary Power)-
यद्यपि राजनीतिक शक्ति और सैनिक शक्ति दोनों व्यापक
दृष्टिकोण से शक्ति के ही प्रकार हैं, किन्तु इन्हें एक
ही नहीं समझ लिया जाना चाहिए। राजनीतिक शक्ति एक जटिल शब्द है जिसमें सदैव ही
शक्ति के अन्य रूप भी सम्मिलित होते हैं जैसे धन, शस्त्र सामग्री, नागरिक सत्ता, मत पर प्रभाव आदि
। सैनिक शक्ति एक स्पष्ट तत्व है तो सैन्य बल पर आधारित होता है। राजनीति में
सैनिक शक्ति का स्थान अत्यन्त गौण रहता है क्योंकि शक्ति वास्तविक बल प्रयोग नहीं, वरन् बल प्रयोग
की क्षमता है। मोर्गेन्थाउ ने राजनीतिक शक्ति को मनोवैज्ञानिक शक्ति माना है जिसके
अनुसार मनुष्य दूसरे मनुष्य की क्रियाओं तथा मस्तिष्कों पर नियन्त्रण रखता है
सैनिक शक्ति दमन का वास्तविक प्रयोग है। जब हिंसा या दमन का वास्तविक प्रयोग किया
जाता है तो उसका अर्थ है कि सैनिक या अर्द्ध-सैनिक शक्ति के पक्ष में राजनीतिक
शक्ति ने अधित्याग (addiction) कर दिया है, किन्तु डायक
सैनिक शक्ति को भी राजनीतिक शक्ति के अन्तर्गत रखने के पक्ष में है। उसके अनुसार
संघर्ष राजनीति का मूल सार है चाहे वह शब्दों द्वारा या हिंसा द्वारा किया जाय। इस
दृष्टि से सैनिक शक्ति को राजनीतिक शक्ति का एक उप-विभाग समझा जाना चाहिए। फिर भी
सैनिक शक्ति राजनीतिक शक्ति की पृष्ठभूमि में ही रहती है।
राजनीतिक शक्ति
मनोवैज्ञानिक प्रभाव नेतृत्व तथा स्वेच्छा जैसे तत्वों पर आधारित हो सकती हैं।
शक्ति एवं प्रभाव
(Power and Influence)
समानताएँ
शक्ति
और प्रभाव यदि कुछ आधारों पर एक-दूसरे के समान हैं तो दूसरी और इनमें महत्त्वपूर्ण
असमानताएँ भी हैं। ब्रचाश और बारात (Brachach and Barat) ने अपनी पुस्तक 'Political
Power' में इन दोनों में अनेक असमानताएँ बतायी हैं। इन लेखकों के
अनुसार शक्ति एवं प्रभाव दोनों ही बौद्धिक एवं सम्बन्धात्मक हैं तथा एक-दूसरे को
सबलता प्रदान करते हैं। दोनों औचित्यपूर्ण हो जाने के पश्चात् ही प्रभावशाली होते
हैं। प्रभाव शक्ति उत्पन्न करता है तथा शक्ति प्रभाव को दोनों को एक-दूसरे की
आवश्यकता पड़ती है। शक्ति और प्रभाव अलग-अलग व्यक्ति में हो सकते हैं और शक्ति तथा
प्रभाव दोनों के दर्शन एक ही व्यक्ति में किये जा सकते हैं। शक्ति एवं प्रभाव
दोनों प्रभावित व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करते हैं, किन्तु वह
व्यक्ति शक्ति के कारण परिवर्तित हुआ या प्रभाव के कारण, यह मालूम करना
कठिन होता है। इसका निर्णय तो वास्तव में स्वयं वही कर सकता है। ये दोनों एक-दूसरे
के लिए वर्द्धनकारी भी हो सकते हैं।
असमानताएँ -
शक्ति और प्रभाव एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हुए भी इनमें महत्त्वपूर्ण भेद हैं:
(1) शक्ति दमनात्मक होती है और उसके पीछे कठोर भौतिक बल एवं प्रतिबन्धों का प्रयोग
होता है। जब शक्ति का प्रयोग किया जाता है तो शक्ति से प्रभावित होने वाले व्यक्ति
या समूह के पास उसे स्वीकार करने के अलावा और कई विकल्प नहीं होता। प्रभाव
अनुनयात्मक स्वेच्छापूर्ण तथा मनोवैज्ञानिक होता है।
(2) शक्ति प्राय:
शक्तिधारक के पास एक स्वतन्त्र तत्व के रूप में रहती है। उसका प्रयोग शक्तिधारक
दूसरों की इच्छा के विरुद्ध एवं प्रतिरोध के रहते हुए कर सकता है। प्रभाव
सम्बन्धात्मक होता है और उसकी सफलता का आधार प्रभावित व्यक्ति की सहमति या
स्वीकृति होती है अर्थात् प्रभाव प्रभावित व्यक्ति की स्वेच्छा पर निर्भर होता है।
(3) शक्ति को
अप्रजातन्त्रात्मक माना जाता है। वह प्रति शक्ति (counter-power) को आमन्त्रित
करती है तथा भय पर आधारित होती है। इसके विरुद्ध प्रभाव पूर्णतया प्रजातन्त्रात्मक
माना जाता है। उसका अनुपालन स्वेच्छा से किया जाता है। 'प्रभाव' का प्रभाव विचार
की समानताओं और मूल्यों की समरूपता के कारण होता है।
(4) शक्ति और
शक्ति के प्रयोग पर अनेक सीमाएँ लगी होती हैं। शक्ति कितनी ही अधिक क्यों न हो, उसे किसी-न-किसी
तरह के प्रभाव के सहारे की आवश्यकता पड़ती है अन्यथा शक्ति के दुर्बल होते ही या
प्रतिबन्धों के अभाव में उसका अनुपालन नहीं किया जाएगा। प्रभाव की शक्ति असीम होती
है और प्रभाव प्राप्त कर लेने पर उसका खुलकर लाभ उठाया जा सकता है क्योंकि प्रभावक
और प्रभावित के बीच एक सद्भावनापूर्ण सम्बन्ध स्थापित हो जाता है सच्चे रूप में
प्रभाव प्राप्त हो जाने पर शक्ति अनावश्यक हो जाती है।
(5) शक्ति का
सभ्यता एवं संस्कृति के बाहरी तत्व के रूप में समझा जाना चाहिए। उसका प्रयोग
निश्चित सीमित और विशिष्ट रूप से ही किया जा सकता है। उसके प्रयोगकर्ता का स्वरूप
प्रायः सुनिश्चित होता है जबकि प्रभाव प्रायः व्यक्तिगत, अमूर्त तथा
अस्पष्ट होता है।
कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिनमें शक्ति और प्रभाव एक-दूसरे से पूर्णतया पृथक् रहते हैं। एक व्यक्ति शक्ति रखते हुए भी प्रभावहीन हो सकता है। उदाहरण के लिए, 25 मार्च, 1971 से 16 दिसम्बर, 1971 तक याह्य खाँ की पूर्वी बंगाल के सम्बन्ध में यही स्थिति थी। उन्हें पूर्वी बंगाल के सम्बन्ध में केवल शक्ति प्राप्त थी, प्रभाव नहीं दूसरी ओर शेख मुजीबुर्रहमान को दिसम्बर 1971 के पूर्व पूर्वी बंगाल के सम्बन्ध में प्रभाव ही प्राप्त था, शक्ति या सत्ता नहीं । अतः प्रभाव को शक्ति की आवश्यकता नहीं पड़ती और शक्ति भी बिना प्रभाव के रह सकती है। लेकिन यह स्थिति " साधारणतया लम्बे समय तक नहीं रहती। शेख मुजीब जिन्हें 16 दिसम्बर, 1971 के पूर्व केवल प्रभाव प्राप्त था, उन्होंने दिसम्बर 1971 में बंगलादेश के सम्बन्ध में शक्ति भी प्राप्त कर ली।