राजनीति में प्रभाव और उसका (Influence in Politics in Hindi)
राजनीति में प्रभाव और उसका
रॉबर्ट डहल के अनुसार, राजनीतिक विश्लेषण में शक्ति और प्रभाव केन्द्रीय अवधारणाएँ हैं न केवल क्रियात्मक राजनीति वरन् सामान्य सामाजिक जीवन में भी प्रभाव बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण तत्व है। व्यावहारिक जीवन का एक तथ्य यह है कि मानव की सांस्कृतिक प्रगति के साथ-साथ शक्ति की तुलना में प्रभाव का महत्त्व निरन्तर बढ़ता जा रहा है। यह कहना अत्युक्ति न होगा कि आज की सर्वाधिक लोकप्रिय शासन व्यवस्था लोकतन्त्र का रथ तो प्रभाव के घोड़े ही खींचते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में भी प्रभाव की भूमिका निरन्तर बढ़ती जा रही है। प्रत्येक व्यक्ति, समुदाय, समूह या संस्था अपना प्रभाव बढ़ाने में लगी रहती है। सभी अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। सभी यह जानना चाहते हैं कि दूसरों की तुलना में उनका प्रभाव कितना है कौन सबसे अधिक प्रभावशाली है, वे अपने प्रभाव को कब और कैसे बढ़ा सकते हैं आदि ।
राजनीतिक नेताओं और उम्मीदवारों आदि के लिए तो प्रभाव जीवन-मरण का प्रश्न है। स्वयं अपने और विपक्षियों के प्रभाव का सही सही मूल्यांकन न कर पाने पर राजनीतिक नेताओं के राजनीतिक जीवन की इतिश्री हो जाती है। वस्तुतः प्रभाव का आकलन एक समस्या है और राजनीति विज्ञान में प्रभाव का मूल्यांकन करने के लिए अब तक किसी समुचित उपागम, सिद्धान्त या विचारबन्ध का विकास नहीं हो पाया है।
प्रभाव अर्थ और व्याख्या
प्रभाव के अर्थ के सम्बन्ध में राजवेत्ता एकमत नहीं है। विभिन्न व्यक्तियों, गुटों समुदायों, संस्थाओं तथा राज्यों के बीच विद्यमान अन्तर्सम्बन्ध को प्रभाव की संज्ञा दी जाती है। रॉबर्ट ए. डहल के अनुसार, “विभिन्न कर्ताओं के मध्य व्याप्त सम्बन्ध ही प्रभाव है जिसमें एक कर्ता दूसरे कर्ताओं को ऐसा कुछ करने के लिए प्रेरित करता है जैसा वह पहले नहीं करते थे।" ब्रचाश की मान्यता है कि कोई व्यक्ति किसी विशिष्ट क्षेत्र में उस सीमा तक दूसरे पर प्रभाव रखता है कि वह व्यक्ति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से बिना किसी उग्र रूप से वंचित करने की धमकी दिये उसको अपना कार्य या कार्य करने का ढंग बदलने के लिए विवश कर दे। लासवेल ने भी प्रभाव की इसी प्रकार से व्याख्या की है। इस विवेचना के आधार पर प्रभाव वह क्षमता है जिसके माध्यम से बिना बल प्रयोग किये दूसरों के व्यवहार को बदला जा सके। यह सर्वमान्य विचार है कि प्रभाव में बल प्रयोग एवं दमन की प्रवृत्तियाँ नहीं होती हैं।
प्रभाव की प्रकृति
रोवे के अनुसार, राजनीतिक जीवन का एक तथ्य यह है कि प्रभाव सर्वत्र असमान रूप से बँटा हुआ होता है। रोवे ने राजनीतिक प्रभाव की असमानता का विशेष रूप से उल्लेख किया है। व्यवहार के अन्तर्गत सामान्यतया विशाल जनसंख्या का प्रभाव कम हो सकता है, जबकि अल्पसंख्यक अभिजन अधिक प्रभावशाली होते हैं। यह स्थिति विकसित और विकासशील दोनों ही श्रेणी के देशों में देखी जा सकती है, यद्यपि विकासशील देशों में अभिजन की प्रभावशीलता अधिक होती है।
अरस्तु, रूसो, मार्क्स आदि अनेक राजनीतिक विचारकों ने अपने-अपने ढंग से राजनीतिक प्रभाव के असमान वितरण की विवेचना की है। अरस्तु इस सम्बन्ध में शिक्षा-दीक्षा को अधिक महत्त्वपूर्ण तत्व मानता है, लेकिन मार्क्स के अनुसार राजनीतिक प्रभाव आर्थिक शक्ति अर्थात् सम्पत्ति का अनुगमन करता है। समाज में जिन व्यक्तियों को उत्पादन के साधनों पर अधिकार होता है, उन्हें अधिक आर्थिक शक्ति प्राप्त होती है और उन्हें ही अधिक राजनीतिक प्रभाव भी प्राप्त हो जाता है।
रोवे के अनुसार, राजनीतिक प्रभाव के स्रोत हैं: सम्पत्ति, शिक्षा, महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ, स्वास्थ्य, व्यक्तिगत आकर्षण और कुशलता आदि ।
राजनीतिक प्रभाव की असमानता के प्रमुख कारण निम्न हैं:
1. राजनीतिक साधनों का भेदः
राजनीतिक प्रभाव की प्राप्ति राजनीतिक साधनों पर निर्भर करती है। जीवन में कुछ लोगों को उत्तराधिकार में ही महत्त्वपूर्ण साधन, सम्पत्ति, ख्यातिप्राप्त कुल आदि प्राप्त हो जाते हैं, लेकिन कुछ व्यक्ति इनसे वंचित रहते हैं। एक निश्चित आयु के बाद व्यक्ति सामान्य साधन और राजनीतिक साधन जुटाने की प्रक्रिया में लगते हैं। इस प्रक्रिया में कुछ आगे निकल जाते हैं, कुछ सामान्य प्रगति कर पाते हैं जबकि कुछ बहुत पीछे रह जाते हैं। स्वाभाविक रूप से जो व्यक्ति अधिक राजनीतिक साधन जुटा लेते हैं, उन्हें ही अधिक राजनीतिक प्रभाव प्राप्त हो जाता है। राजनीतिक साधनों पर असमान नियन्त्रण राजनीतिक प्रभाव की असमानता का सबसे प्रमुख कारण है।
2. कार्यों का विशेषीकरण:
प्रत्येक समाज में कार्यों का विशेषीकरण होता है और कुछ लोग विशेष कार्यों के सम्बन्ध में अधिक ज्ञान और कुशलता रखते हैं तथा विशेष प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं। दूसरी ओर अन्य कुछ कार्य कम महत्त्वपूर्ण होते हैं। यदि अन्य बातें समान हों तो जो व्यक्ति अपना सामान्य व्यवसाय करते हुए अधिक संख्या में व्यक्तियों के सम्पर्क में आते हैं और समाज में अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य करतें हैं, स्वाभाविक रूप से उन्हें राजनीतिक प्रभाव की प्राप्ति हो जाती है। सभी देशों में वकील और पत्रकार अन्य व्यक्तियों की तुलना में राजनीतिक प्रभाव की दृष्टि से लाभकारी स्थिति में देखे गये हैं।
3. लक्ष्यों और अभिप्रेरणाओं का भेदः
व्यक्तियों के लक्ष्य और अभिप्रेरणाएँ भी अलग-अलग होती हैं। यदि व्यक्तियों को समुचित साधन जुटा दिये जायें, तो भी अनेक कर्ता उसका उपयोग राजनीतिक प्रभाव की प्राप्ति के लिए करते हैं, जबकि अन्य कुछ अपने आपको सम्पत्ति जुटाने तक सीमित कर लेते हैं। राजनीतिक व्यवस्था में कुछ लोग सरकार के द्वारा अपनाई और लागू की जाने वाली नीतियों, नियमों तथा विनियमों पर विशेष प्रभाव रखने का प्रयास करते हैं। दूसरे शब्दों में, वे राजनीतिक प्रभाव प्राप्त करने की चेष्टा में लगे रहते हैं और राजनीतिक प्रभाव के क्षेत्र में उनके आगे बढ़ने की सम्भावना अधिक रहती है। इसके अतिरिक्त कुछ व्यक्ति प्रत्यक्ष राजनीतिक प्रभाव प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं, लेकिन कुछ व्यक्ति प्रत्यक्ष प्रभाव प्राप्त करने के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को देखकर या अन्य कारणों से अपने आपको परोक्ष प्रभाव तक सीमित कर लेते हैं।
4. कार्यकुशलता का भेदः
विभिन्न व्यक्ति जो अपने साधनों के आधार पर राजनीतिक प्रभाव प्राप्त करने की चेष्टा में लगे रहते हैं, उनमें राजनीतिक साधनों का प्रयोग करने की कुशलता में भी विभिन्नता होती है। आवश्यक साधन जुटा लेने पर भी, कुछ कर्ता दूसरों की तुलना में उनका प्रयोग अधिक कुशलतापूर्वक तथा प्रभावपूर्ण ढंग से कर लेते हैं। राजनीतिक प्रभाव के क्षेत्र में सहायकों की कुशलता एवं उन्हें प्राप्त साधनों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। इस सम्बन्ध में एक तथ्य यह है कि अधिक कार्यकुशल व्यक्ति ही अधिक क्षमतावान और साधन सम्पन्न सहायक जुटाने में सफल रहते हैं।
वर्तमान और वास्तविक प्रभाव बनाम सम्भावित प्रभावः
वर्तमान अथवा वास्तविक प्रभाव, प्रभाव के क्षेत्र में वस्तुतः विद्यमान वर्तमान स्थिति का नाम है, जबकि सम्भावित प्रभाव के अन्तर्गत भविष्य की सम्भावनाओं का अध्ययन किया जाता है। प्रभावक का वर्तमान प्रभाव उसके सम्भावित प्रभाव से भिन्न हो सकता है। अवसर पाते ही एक साधारण व्यक्ति नेता बन सकता है। ऐसा हो सकता है कि कोई व्यक्ति राष्ट्रीय अथवा राज्य स्तर पर वर्तमान समय में राजनीतिक प्रभाव न रखता हो, लेकिन उसके पास जो साधन हैं और अपने साधनों को वर्तमान समय में वह जो दिशा प्रदान कर रहा है, उनके आधार पर उसके भविष्य में अधिक प्रभावी होने की सम्भावनाएँ दिखाई दे सकती हैं। इसी प्रकार किसी औद्योगिक क्षेत्र में वर्तमान समय में एक विशेष मजदूर संघ अधिक प्रभावी हो सकता है, लेकिन भविष्य में किसी अन्य मजदूर संघ के प्रभावी होने की सम्भावनाएँ हो सकती हैं। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में आज अमरीका और रूस महाशक्तियाँ हैं, जबकि चीन और भारत को सम्भावित महाशक्तियाँ समझा जाता है। वर्तमान प्रभावधारी और सम्भावित प्रभावधारी उस समय विशेष रूप से अलग-अलग हो जाते हैं जबकि वर्तमान प्रभावधारी को निरन्तर सफलताएँ प्राप्त न हो रही हों, सम्भावित प्रभावधारी के पास भी पर्याप्त साधन हों और सम्भावित प्रभावधारी द्वारा वर्तमान प्रभावधारी को गम्भीर चुनौती दी जा रही हो। दिसम्बर, 1982 में आन्ध्र की राजनीति में एन. टी. रामाराव और उनका दल 'तेलगू देशम' सम्भावित प्रभावधारी का ही उदाहरण है। राजनीति में वास्तविक एवं वर्तमान प्रभाव तो महत्त्वपूर्ण है ही, लेकिन सम्भावित प्रभाव भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। भविष्य की राजनीतिक स्थिति की कल्पना सम्भावित प्रभाव के सन्दर्भ में ही की जा सकती है।
प्रभाव मापन की समस्या
प्रभाव के स्रोत प्रायः गुप्त, जटिल एवं अस्पष्ट होते हैं। अतः प्रभाव का मापन प्रायः एक कठिन समस्या बन जाता है, लेकिन लोकतन्त्र खुली राजनीतिक प्रतियोगिता और प्रभाव पर आधारित शासन व्यवस्था होने के कारण प्रभाव का मापन आवश्यक हो जाता है। प्रभाव व्यक्तियों, समूहों, संघों आदि के बीच में एक सम्बन्ध है। इनके बीच में स्थापित प्रभाव के सम्बन्ध को तथा उसकी दिशा एवं अस्तित्व को जाना जा सकता है। लोकतन्त्र में सदैव ही यह जानना आवश्यक होता है कि विशिष्ट राजनेताओं और सामान्य नागरिकों के बीच प्रभाव की स्थिति क्या है। राजनीति विज्ञान के जनक अरस्तु ने भी जब राजनीतिक व्यवस्थाओं का वर्गीकरण संख्यात्मक आधार पर किया, तब इस वर्गीकरण के आधार पर उसका आशय यह जानना था कि उस राजव्यवस्था में एक व्यक्ति का प्रभाव है, अल्पसंख्या का प्रभाव है या बहुमत का प्रभाव। राजनीतिक विश्लेषण में प्रभाव का तुलनात्मक अध्ययन सदैव ही महत्त्वपूर्ण होता है।
रॉबर्ट डहल ने प्रभाव की एक सामान्य परिभाषा दी है जो तुलना की सम्भावनाओं को बताती है। यदि 'ए' 'बी' को प्रभावित करता है और उसकी मात्रा 'एक्स' है तो हम 'ए' का 'बी' पर 'एक्स-1' प्रभाव कहेंगे। यदि प्रभाव की मात्रा 'एक्स 2' हैं तो हम कहेंगे कि प्रभाव की मात्रा अधिक बढ़ गयी है। इसी आधार पर सभी प्रभावों की तुलना की जा सकती है।
डहल के अनुसार, प्रभाव मापन और इस प्रसंग में तुलना का कार्य निम्नलिखित आधार पर किया जा सकता है:
(1) प्रभावित व्यक्तियों की स्थिति में परिवर्तन की मात्रा का ज्ञान प्राप्त किया जाना चाहिए। इसके अन्तर्गत यह मालूम किया जाता है कि विभिन्न प्रभावित व्यक्तियों की प्रारम्भिक स्थिति क्या थी तथा बाद में उसमें क्या और कितना अन्तर आया।
(2) प्रभाव की मात्रा को उसके अनुपालन में खर्च की जाने वाली मनोवैज्ञानिक कीमत की दृष्टि से भी ज्ञात किया जा सकता है। जब कोई हड़ताल होती है तब हड़ताल में भाग लेने वाले सभी कर्मचारियों की मानसिक प्रतिक्रिया भिन्न-भिन्न होती है।
(3) यह मालूम किया जा सकता है कि विभिन्न व्यक्तियों में कार्यपालन की सम्भावना की कितनी मात्रा है। व्यवस्थापिकाओं में किसी विधेयक पर प्राप्त होने वाले पक्ष और विपक्ष में मतों का अनुमान इसी प्रकार लगाया जाता है।
(4) अनेक बार अनुक्रियाओं के विस्तार की भिन्नता से प्रभाव का अनुमान लगाया जाता है। जैसे चुनावों में खड़े होने वाले विभिन्न उम्मीदवार जितनी संख्याओं में मत प्राप्त करते हैं, उनकी संख्याओं को उनके निर्वाचन क्षेत्र में पाये जाने वाले प्रभाव के रूप में देखा जा सकता है।
(5) प्रभावित होने वाले व्यक्तियों की संख्या के आधार पर प्रभाव का तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता है। चुनावों के समय अमरीकी राष्ट्रपति, ब्रिटिश अथवा भारतीय दलों की विजय-पराजय की भविष्यवाणियाँ इन्हीं आधारों पर की जाती हैं।
रॉबर्ट डहल ने प्रभाव मापन के प्रसंग में कुछ सावधानियाँ बरते जाने का निर्देश भी दिया है:
(i) सापेक्ष प्रभाव को निश्चित करने के लिए जितने मापन सम्भव हों, उनके लिए सभी सूचनाएँ एकत्रित की जायें।
(ii) उपलब्ध सूचना के अनुसार तुलनात्मक विधि अपनायी जाये।
(iii) स्पष्टता और सूक्ष्मता के लिए एक विचार चित्र (Puradigun) सम्मुख रखा जाय।
(iv) अधिक प्रामाणिक सूचनाएँ प्राप्त होने पर वर्तमान मापन को छोड़ देने के लिए तैयार रहना चाहिए।
वस्तुत: प्रभाव - सिद्धान्त की दिशा में अनेक कठिनाइयाँ हैं। ये स्वरूप निर्धारण से लेकर इकाई परिसीमन विश्लेषण, सत्यापन, तुलना, परिचालन और मापन तक फैली हुई हैं। इन कठिनाइयों और समस्याओं के कारण प्रभाव सिद्धान्त विकसित करने के लिए बहुत थोड़े राज- वैज्ञानिकों ने प्रयास किया है। ये भी लघुस्तरीय एवं सीमित प्रयास ही माने जा सकते हैं।
प्रभाव और सत्ता
सामान्य बोलचाल और व्यवहार में प्राय: प्रभाव और सत्ता को पर्यायवाची मान लिया जाता है, परन्तु राजनीति विज्ञान के अन्तर्गत इन दोनों शब्दों में महत्त्वपूर्ण अन्तर है। प्रभाव को एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया जा सकता है जो अनिवार्यतया सम्बन्धात्मक होती है और जिसमें अनेक तत्व विद्यमान होते हैं। प्रभाव एक ऐसी उपलब्धि है, जिसमें निश्चितता, स्थिरता और स्थायित्व के तत्व का सदैव ही अभाव होता है। प्रभाव औपचारिक या सीमित नहीं होता । प्रभाव का उदय संगत तथा सम्बद्ध सूचनाओं के आधार पर होता है। एक व्यक्ति द्वारा अन्य को प्रभावित करने की चेष्टा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से की जा सकती है। प्रभावित करने की इस चेष्टा के अन्तर्गत वाद-विवाद, अनुनय-विनय, प्रचार और व्यक्तिगत प्रभाव आदि का सहारा लिया जाता है। कई बार यह समस्त प्रक्रिया ऐसे रूप में सम्पन्न होती है कि प्रभावित को शायद पता ही न पड़े कि वह प्रभावित हो रहा है। प्रभाव एक सम्बन्धात्मक प्रक्रिया है और उसमें प्रभावक तथा प्रभावित के मध्य अनेक तत्व विद्यमान रहते हैं; जैसे, समान मूल्य, वातावरण, शैली, प्रभावक एवं प्रभावित का व्यक्तित्व, आवश्यकताएँ तात्कालिक लक्षण आदि। राजनीतिक नेता अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रभाव का विस्तार करने के प्रयत्नों में लगे रहते हैं और इस हेतु उनके द्वारा विभिन्न परिस्थितियों में अलग-अलग शैलियाँ तथा साधन अपनाये जाते हैं। राजनेता जानते हैं कि प्रभाव एक अत्यन्त गतिशील, परिवर्तनशील और अनिश्चित स्थिति है, इसलिए वे अपने प्रभाव को सत्ता में परिणत करने के प्रयासों में लगे रहते हैं। डहल इसी स्थिति को लक्ष्य करते हुए लिखते हैं कि “सत्ता सर्वाधिक कार्यक्षम प्रभाव का रूप है।”
ब्रेख्त के अनुसार, सत्ता के लिए अधिकारी अधीनस्थ सम्बन्धों की स्थिति आवश्यक है। सामान्यतया अधीनस्थ बिना किसी आलोचना, सोच-विचार, वाद-विवाद, तर्क या अपनी ओर से बुद्धि का प्रयोग किये बिना अधिकारी के आदेशों को अपने आचरण का आधार बना लेता है। सत्ता संस्थाकृत होने के कारण अधीनस्थों के व्यवहार और आचरण में घुल-मिल जाती है। वह स्वीकृत, निश्चित, औपचारिक, वस्तुपरक तथा शीघ्र प्रभावशील होती है। सत्ता प्रायः पद, प्रस्थिति, संगठन आदि के साथ विभिन्न स्तरों पर स्थापित रहती है। यही कारण है कि राजनेता अपने प्रभाव को सत्तापूर्ण बनाकर आश्वस्त हो जाते हैं। सत्ता अनेक बार बिना किसी योग्यता, सामर्थ्य और प्रभाव के भी रहती है और रह सकती है। अनेक उदाहरणों में एक साधारण, अप्रतिभाशाली अप्रभावशील और यहाँ तक कि अयोग्य व्यक्ति भी सत्ता पद पर स्थित होकर सैकड़ों-हजारों व्यक्तियों को आदेश निर्देश देता है और उनका पालन किया जाता है। इस कारण सत्ता को सामान्यतया एक स्वतन्त्र कारक माना गया है, किन्तु यह स्थिति बहुत लम्बे समय तक नहीं रह पाती ।। सत्ता तभी तक रहती है जब तक कि अधीनस्थों के द्वारा उसे स्वीकार किया जाय तथा यदि सत्ता के साथ प्रभाव जुड़ा हुआ नहीं है, तो लम्बे समय तक अधीनस्थ उसे स्वीकार नहीं कर सकते। लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अन्तर्गत सत्तारूढ़ व्यक्तियों को चुनाव में पराजित हो जाने पर सत्ता से अलग होना पड़ता है और सैनिक तन्त्र या तानाशाही के अन्य किसी रूप में उन्हें विद्रोह की स्थिति का सामना करना पड़ता है। साधारण परिस्थितियों में भी प्रभाव के बिना सत्ता निष्क्रिय बनी रहती है।
प्रभाव वस्तुतः सत्ता दूसरों के व्यवहार को प्रभावित करने के अनेक उपायें में से एक है। जब अन्य उपाय शक्ति, और अनुशास्तियाँ (Sanctions) आदि सत्ताधारी के साथ संयुक्त होते हैं, तब सत्ताधारी के आदेशों की अवहेलना का प्रश्न ही नहीं उठता, लेकिन जब अन्य उपाय सत्ताधारी से अलग हो जाते हैं, तब सत्ताधारी के लिए अपने आदेशों का पालन कराना कठिन और कालान्तर में असम्भव हो जाता है। लोकतन्त्र में तो लम्बे समय की दृष्टि से सत्ता की तुलना में प्रभाव अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। चाहे लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था हो या शासन व्यवस्था का अन्य कोई रूप, सत्ताधारी द्वारा सत्ता की सीमाओं को भलीभाँति समझ लिया जाना चाहिए। जब सत्ताधारी इन सीमाओं को नहीं समझ पाता, तब उसे विद्रोह और विनाश की स्थिति का सामना करना पड़ता है।