राज्य के आवश्यक तत्व (Important Elements of State)
राज्य के आवश्यक तत्व (Important Elements of State)
राज्य के स्वरूप को भलीभाँति स्पष्ट करने के लिये यह आवश्यक है कि हम जनता भूमि, सरकार और सर्वोपरिता राज्य के इन चारों तत्वों पर विशद रूप से प्रकाश डालें।
(1) जनता -
राज्य का प्रधान तत्व जनता है। जनता के एक समुदाय विशेष का नाम ही राज्य है। यदि जनता न हो. तो राज्य की कल्पना भी संभव नहीं। जिस प्रकार मिट्टी के बिना घट व सूत के बिना वस्त्र का निर्माण करना संभव नहीं है, वैसे ही जनता के बिना राज्य की सत्ता संभव नहीं है। जनता जैसी होगी, राज्य भी वैसा ही होगा। जनता के स्वरूप पर ही राज्य का स्वरूप निर्भर है। यदि किसी राज्य की जनता परिश्रमी, त्यागशील व मातृभूमि से प्रेम करने वाली हो, तो वह राज्य निरन्तर उन्नति करेगा। इसके विपरीत यदि किसी राज्य की जनता आलसी स्वार्थी और मातृभूमि के प्रति उपेक्षावृत्ति रखने वाली हो, तो वह राज्य अधोगति को ही प्राप्त होगा। यही कारण है कि जनता को सुशिक्षित, परिश्रमी, विनयसम्पन्न और नियन्त्रित करने के लिए विशेष ध्यान देना उचित है।
जहाँ राज्य के लिये जनता का योग्य गुणी व समर्थ होना आवश्यक है, वहाँ साथ ही जनता का बहुसंख्यक (न्यूमरस) होना भी उपयोगी है। रूस और अमेरिका जैसे विशाल राज्यों में करोड़ों की संख्या में मनुष्य निवास करते हैं। बेल्जियम व अफगानिस्तान जैसे छोटे राज्यों की जनसंख्या अपेक्षाकृत बहुत कम है। यह स्वाभाविक हैं कि अमेरिका और रूस की शक्ति बेल्जियम व अफगानिस्तान के मुकाबले में बहुत अधिक हो। चीन और भारत जैसे राज्यों की शक्ति का एक बड़ा कारण वहाँ की जनता का बहुसंख्यक होना ही है। विशाल जनसंख्या न केवल सैन्यशक्ति में सहायक होती हैं, अपितु कृषि व्यवसाय आदि की उन्नति भी जनसंख्या की प्रचुरता पर ही आश्रित होती है।
राजनीतिशास्त्र के अनेक पण्डित इस बात पर विचार करते रहे हैं कि राज्य में जनता की संख्या कितनी हो । प्रसिद्ध ग्रीक विद्वान प्लेटो का यह मत था कि आदर्श राज्य वह है, जिसके नागरिकों की जनसंख्या 5040 हो। ग्रीक विचारकों के अनुसार, राज्य इतना छोटा नहीं होना चाहिये कि अन्य राज्य उसे सुगमता से परास्त कर सकें। साथ ही, राज्य इतना बड़ा भी नहीं होना चाहिये कि उसका भलीभांति सुशासन कर सकना कठिन हो जाय। राज्य का वही आकार उचित है, जिसमें कि वह आत्मनिर्भर रह सके शत्रुओं से अपनी रक्षा कर सके और उसका शासन भी सुचारु रूप से संभव हो। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर प्लेटो ने राज्य के नागरिकों की आदर्श जनसंख्या 5040 नियत की थी। अरस्तु भी इस विषय में प्लेटो का ही अनुयायी था और उसका विचार था कि किसी राज्य के लिये दस हजार नगारिक होना भी अत्यधिक ही है, प्राचीन ग्रीस में बहुत-से छोटे-छोटे नगर राज्य थे। उनका विस्तार प्रायः कुछ सौ वर्ग मीलों से अधिक नहीं होता था । इनकी आबादी भी कुछ हजार तक ही सीमित होती थी। इन राज्यों का शासन प्रायः लोकतंत्र होता था । उस युग में प्रतिनिधि चुनने का रिवाज नहीं था। सब नागरिक लोकसभा में एकत्र होकर राज्य संबंधी मामलों का निर्णय किया करते थे। इस दशा में प्लेटो और अरस्तु जैसे विचारकों के लिये यह उचित ही था कि वे आदर्श राज्य के नागरिकों की संख्या को पांच हजार के लगभग रखें। यदि किसी राज्य की जनसंख्या अधिक होगी, तो उसके नागरिकों के लिये यह उचित ही था, कि वे आदर्श राज्य के नागरिकों की संख्या को पाँच हजार के लगभग रखें। यदि किसी राज्य की जनसंख्या अधिक होगी, तो उसके नागरिकों के लिये लोकसभा में एकत्र होकर राज्य कार्य का संचालन करना कठिन होगा और उसका शासन ठीक तरह से नहीं हो सकेगा। रोम के इतिहास में हम देखते हैं कि नागरिकों की संख्या बहुत अधिक बढ़ गई। रोमन राज्य का विस्तार रोम नगर से बढ़कर पहले इटली में और फिर सुदूरवर्ती प्रदेशों तक हो गया। विशाल रोमन साम्राज्य के स्वतन्त्र निवासी रोम के नागरिक माने जाते थे, पर सैकड़ों-हजारों मील की दूरी पर रहने वाले रोमन नागरिकों के लिये यह संभव नहीं था कि वे रोम आकर अपनी लोकसभा में शामिल हो सकें। परिणाम यह हुआ कि रोमन साम्राज्य की सब राज्य शक्ति रोम के निवासियों के हाथों में आ गई। रोमन गणराज्य का शासन लोकतन्त्र न रहकर एक गुट विशेष के हाथ में आ गया।
वर्तमान समय में प्रतिनिधि निर्वाचित करने की प्रणाली से यह आवश्यक नहीं रह गया है कि सब नागरिक स्वयं लोकसभा में एकत्र हों। साथ ही, यान्त्रिक आविष्कारों और वैज्ञानिक उन्नति के कारण मनुष्य ने देश और काल पर भी भारी विजय प्राप्त कर ली है। इस कारण विशालकाय राज्यों में भी यह संभव हो गया है कि करोड़ों की संख्या वाली उनकी जनता अपने प्रतिनिधियों को निर्वाचित करके लोकतन्त्र शासन को सफल बना सके। पर जिन परिस्थितियों में प्लेटो और अरस्तु ने आदर्श राज्य की जनसंख्या कुछ हजारों तक सीमित की थी, उन्हें दृष्टि में रखते हुए इन राजशास्त्रियों का विचार ठीक ही था।
फ्रांस के प्रसिद्ध राजशास्त्री रूसो के अनुसार राज्य की जनसंख्या कितनी हो, इसकी कोई सीमा तो निश्चित नहीं की जा सकती; पर राज्य की जनसंख्या और भूमि में कोई अनुपात अवश्य होना चाहिये। राज्य के पास भूमि इतनी होनी चाहिये कि उसकी जनता का उससे भलीभांति निर्वाह हो सके। राज्य की जनसंख्या इतनी होनी चाहिये कि भूमि उसका सुचारु रूप से पालन कर सके। रूसो ने इस प्रश्न पर विचार किया था कि कितनी भूमि कितनी जनता की भलीभांति पालन कर सकती है। पर इस संबंध में वह किसी निश्चित नियम का निर्माण नहीं कर सका, क्योंकि भूमि की उपजशक्ति भिन्नभिन्न होती है। कृषि और व्यवसाय के लिये अनुकूल परिस्थिति होने की दशा में कोई भूमि अधिक जनता का भी पालन कर सकती है। इसके विपरीत मरुस्थल सदृश सुविस्तृत भूमि से थोड़े-से लोगों का भी निर्वाह नहीं हो सकता।
वर्तमान समय में जनसंख्या की दृष्टि से राज्य बड़े और छोटे दोनों प्रकार के हैं। चीन, भारत, अमेरिका, रूस आदि राज्यों की जनसंख्या अत्यन्त विशाल है। दूसरी ओर मोनाको, लक्सम्बर्ग आदि की जनसंख्या बहुत कम है। इस भेद के होते हुए भी यह कहा जा सकता है कि राज्य की भूमि और जनसंख्या में एक ऐसा संबंध अवश्य होना चाहिए, जिससे कि राज्य की भूमि उसकी जनसंख्या का पालन-पोषण करने के लिए पर्याप्त हो ।
प्रजा और नागरिक -
राज्य में जो मनुष्य निवास करते हैं, वे सब उस राज्य की प्रजा तो होते हैं, पर वे सब उसके नागरिक नहीं होते। ग्रीस के प्राचीन नगर राज्यों में जनसंख्या का बड़ा भाग दासों का होता था, जिन्हें वोट देने व निर्वाचित होने का अधिकार प्राप्त हो । किसी राज्य में निवास करने वाले सब मनुष्यों के लिये, चाहे वे नागरिक हों या न हों, यह आवश्यक है कि वे उस राज्य के कानूनों का पालन करें। इसी कारण वे सब उस राज्य की प्रजा होते हैं। पर नगारिक केवल वे होते हैं, जिन्हें उस राज्य के संविधान के अनुसार प्रतिनधि चुनने व स्वयं प्रतिनिधि बनने का अधिकार दिया गया हो। आजकल जब कि वोट देने का अधिकार सब स्त्री-पुरुषों ( नाबालिगों को छोड़कर) को प्राप्त हो गया है, नागरिक और प्रजा का भेद उतने महत्त्व का नहीं रहा, जितना कि उस युग में था जब राज-शक्ति किसी श्रेणी विशेष के हाथ में रहती थी और जनसाधारण के हाथ में राजशक्ति नहीं आई थी।
( 2 ) भूमि
जिस प्रकार राज्य के लिये जनता का होना आवश्यक है, वैसे ही एक निश्चित भूमि का होना भी अनिवार्य है। मनुष्यों का एक समुदाय जब तक किसी भूमि पर स्थायी रूप से नहीं बस जाता, तब तक वह राज्य का रूप धारण नहीं करता। एक फिरन्दर कबीले का उदाहरण लीजिये। इस प्रकार के कबीले में जनता होती है, उस जनता का एक संगठन भी होता है, उसके अपने कानून अपने अभ्यास, अपनी परम्परा, अपने रीति-रिवाज सब होते हैं। उसमें एक सुव्यवस्थित सरकार की सत्ता भी होती है। पर हम उसे राज्य नहीं कहते, क्योंकि वह किसी निश्चित प्रदेश व भूमिखण्ड पर बसा हुआ नहीं होता। वही कबीला या जन जब किसी प्रदेश (जनपद) पर स्थायी रूप से बस जाता है, तो वह राज्य का रूप धारण कर लेता है। संसार के प्राचीन इतिहास में स्पार्टा, एथेन्स, मालव, यौध "य, क्षुद्रक आदि विविध राज्य शुरू में कबीले या जन के रूप में ही थे। जब वे एक निश्चित भूमिखण्ड पर बस गये, तो वे राज्य कहलाने लगे। आधुनिक युग में यहूदी लोग इसी बात के उदाहरण हैं। अब से कुछ साल पहले तक यहूदी लोग यूरोप के विविध राज्यों में बसे हुए थे। उनके अपने रीति-रिवाज, धर्म, नियम आदि सब थे, पर कोई ऐसा प्रदेश नहीं था, जिसमें वे स्थायी रूप से बसे हुए हों या जिसे वे अपनी मातृभूमि कह सकें। पर इजराईल की स्थापना से अब यहूदियों का एक अपना राज्य बन गया है, जहां वे स्थायी रूप से बसने लग गये हैं। यहूदी अब भी बड़ी संख्या में अन्य राज्यों में फैले हुए हैं, पर अब एक ऐसे प्रदेश का निर्माण हो गया है, जिसे वे अपनी मातृभूमि व अभिजन समझ सकते हैं। वस्तुतः, जैसे आत्मा को एक कलेवर की आवश्यकता होती हैं, वैसे ही जनसमुदाय को भी भूमिरूपी कलेवर की आवश्यकता होती है। यदि जनता आत्मा है, तो भूमि शरीर है। जिस प्रकार शरीर में हम ममत्व भावना रखते हैं, वैसे ही राज्य का जनसमुदाय अपनी भूमि में ममत्व की भावना रखता है। राज्य के सब निवासियों में एकता व एकानुभूति उत्पन्न करने के लिये भूमि के प्रति ममत्व की भावना बहुत सहायक है। राज्य की स्थिरता और शक्ति के लिये भी यह ममत्व बुद्धि बहुत उपयोगी होती है।
इस दृष्टि से राज्य अन्य जनसमुदायों से भिन्न है। अन्य समुदायों का संबंध किसी भूमिविशेष से नहीं होता। उदाहरण के लिए धार्मिक समुदायों को लीजिये। बौद्ध, ईसाई व मुस्लिम सम्प्रदाय भी एक प्रकार के जनसमुदाय हैं। पर उनका संबंध किसी विशिष्ट प्रदेश से नहीं है। वे अपने मन्तव्यों का प्रचार करने के लिये लोगों को अपने धर्म में दीक्षित करने के लिये पृथ्वी के किसी भी प्रदेश में काम कर सकते हैं। यही दशा अनेक साहित्यिक, वैज्ञानिक व आर्थिक समुदायों की भी है। राज्य के अतिरिक्त जो अन्य समुदाय हैं, वे एक प्रदेश में एक से अधिक संख्या में रह सकते हैं। भारत सदृश एक राज्य में आर्य समाज, ब्रह्मसमाज, नागरी प्रचारिणी सभा, हिन्दी साहित्य सम्मेलन आदि कितने ही समुदाय विद्यमान हैं। पर राज्य एक ऐसा समुदाय है, जो एक प्रदेश में एक से अधिक नहीं रह सकता, न ही कोई राज्य ऐसा हो सकता है, जिसका किसी विशिष्ट प्रदेश से संबंध न हो। यदि किसी प्रदेश में एक से अधिक राज्य होंगे, तो उनमें संघर्ष का होना अनिवार्य होगा। क्योंकि सर्वोपरिता राज्य का आवश्यक तत्व है और किसी प्रदेश में सर्वोपरिता ही नहीं है।
जिस प्रकार जनता के गुण-दोष का प्रभाव राज्य पर पड़ता है, वैसे ही भूमि के गुणों व दोषों का भी राज्य पर प्रभाव होता है। भूमि का अभिप्राय केवल स्थल से ही नहीं है। राज्य के प्रदेश में जो नदियाँ, सरोवर, झील, पर्वत आदि हों, वे सब भूमि के अन्तर्गत माने जाते हैं। यदि राज्य से मिला हुआ कोई समुद्र हो, तो स्थल से 12 मील दूर तक का समुद्र भी राज्य में सम्मिलित समझा जाता है। जमीन के ऊपर जो वायुमंडल है, वह भी राज्य की भूमि के ही अन्तर्गत होता है।
राज्य की भूमि का राज्य के स्वरूप पर बहुत प्रभाव होता है। ग्रेट ब्रिटेन का राज्य समुद्र से घिरा हुआ है, वह एक द्वीप के समान है। यही दशा जापान की है। इस परिस्थिति से इन राज्यों को सामुद्रिक क्षेत्र में उन्नत होने में बहुत मदद मिली है। ग्रेट ब्रिटेन जो प्रबल नौ शक्ति विकसित कर सकने में सफल हुआ, उसका कारण उसकी भूमि की यह विशेषता ही है। यूरोप के इतिहास में हम देखते हैं कि इंग्लैंड बाह्य आक्रमणों से प्रायः बचा रहा है। बीसवीं सदी के दो महायुद्धों में भी ब्रिटेन शत्रु के आक्रमण से प्रायः सुरक्षित रहा। इसका कारण यही था कि इस राज्य की भूमि समुद्र से घिरी हुई है और स्थल द्वारा उसका किसी अन्य राज्य के संबंध नहीं है। इसके विपरीत, जर्मनी और फ्रांस की कोई प्राकृतिक सीमा नहीं है। इन राज्यों की भूमि की इस विशेष परिस्थिति के कारण उनमें निरंतर संघर्ष होता रहा है और वे ब्रिटेन के समान निश्चितता के साथ अपनी उन्नति नहीं कर सके। अनेक विचारकों के अनुसार प्राचीन ग्रीस में नगर राज्यों का जो विकास हुआ, उसका कारण भी ग्रीस की भूमि की विशेष परिस्थितियां ही थीं। ग्रीस की भूमि पर्वतप्रधान है। पर्वतश्रेणियों के कारण वह अनेक घाटियों में विभक्त है। प्राचीन समय में जब मनुष्य ने वैज्ञानिक उन्नति नहीं की थी, ये पार्वत्य घाटियाँ एक-दूसरे से सर्वथा पृथक् थीं। इसीलिए इनमें ऐसे अनेक छोटे-छोटे नगर राज्यों का विकास हुआ, जो सदियों तक एक-दूसरे से पृथक् रहे।
जैसे भूमि की प्राकृतिक परिस्थिति का राज्य पर असर पड़ता है, वैसे ही भूमि की जलवायु, उपजशक्ति व समृद्धि का भी राज्य पर प्रभाव होता है। पृथ्वी का कोई भाग अधिक उपजाऊ है, कोई कम । कहीं खनिज पदार्थों की प्रचुरता है, कहीं उनका अभाव है। कहीं की जलवायु अत्यधिक गरम है, कहीं की अत्यन्त ठण्डी । फ्रेंच विचारक रूसो ने प्रतिपादित किया था कि गरम जलवायु में स्वेच्छाचारी शासन का विकास होता है और अतिशीत जलवायु में मनुष्य उन्नति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो पाता। जिन प्रदेशों की जलवायु न अधिक गरम होती है, न अधिक ठण्डी, वहाँ अवैध लोकतन्त्र शासन का विकास होता है। इतिहास के अनुशीलन से रूसो के इस मन्तव्य की पुष्टि नहीं होती। यूरोप के अनेक राज्यों में वर्तमान समय में लोकतन्त्र वैध शासन विद्यमान हैं पर मध्यकाल में वहाँ निरंकुश राजाओं का शासन था। गर्म देशों में भी लोकतन्त्र शासन रह चुके हैं, और भविष्य में भी रह सकते हैं। भारत इसका उदाहरण है। वज्जि, मालव, क्षुद्रक, शिवि आदि कितने ही गणराज्य इस देश में पहले रह चुके हैं और अब फिर सम्पूर्ण देश में एक विशाल गणराज्य की स्थापना हो गई है। रूसो का मन्तव्य सर्वांश में सत्य न होते हुए भी यह तो स्वीकार करना ही होगा कि जलवायु का राज्य पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। जो राज्य अपनी जलवायु की दृष्टि से अधिक उत्तम दशा में हैं उन्हें अपनी उन्नति करने में सहायता अवश्य मिलती है। इसी प्रकार खनिज पदार्थ, जंगल में प्राप्त होने वाली कीमती लकड़ी आदि की उपलब्धि से भी राज्य की उन्नति में सहायता पहुँचती है। इंग्लैण्ड जो व्यावसायिक उन्नति में इतना अधिक आगे बढ़ गया, उसका एक मुख्य कारण यह है कि वहाँ कोयला और लोहा बड़े परिमाण में उपलब्ध होता है। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में जर्मनी ने जो असाधारण व्यावसायिक उन्नति की उसका कारण भी वहाँ की खनिज सम्पत्ति ही थी। बिहार के कोयले और लोहे को ही भारत की व्यावसायिक उन्नति का श्रेय प्राप्त है। परमाणु शक्ति के इस युग में उन राज्यों को ही भारत की व्यावसायिक उन्नति का श्रेय प्राप्त है। परमाणु शक्ति के इस युग में उन राज्यों को उन्नति का विशेष अवसर होगा, जिनमें इस शक्ति को उत्पन्न करने के लिये विशिष्ट धातुएँ व तत्व बड़ी मात्रा में उपलब्ध होंगे।
भूमि का विस्तार -
राज्य की भूमि का विस्तार कितना होना उचित है, इस प्रश्न पर भी राजशास्त्रियों ने विचार किया है। प्लेटो और अरस्तु जैसे प्राचीन ग्रीक विचारक यह मानते थे कि राज्य की भूमि को न बहुत बड़ा होना चाहिये, न बहुत छोटा । अठारहवीं सदी तक के विचारक विशाल आकार के राज्य को उत्तम नहीं समझते थे। फ्रेंच विद्वान रूसो ने लिखा है कि जिस प्रकार प्रकृति ने मनुष्य का एक आकार नियत कर दिया हैं, उससे बहुत लम्बा व उससे बहुत छोटा मनुष्य शोभा नहीं देता; इसी प्रकार एक सुशासित व सुव्यवस्थित राज्य का आकार भी प्रकृति ने निर्धारित कर दिया है। राज्य को बहुत विस्तीर्ण नहीं होना चाहिये, क्योंकि उस दशा में शासन सुव्यवस्थित नहीं हो सकेगा। साथ ही, राज्य को बहुत छोटा भी नहीं होना चाहिये, क्योंकि उस दशा में वह अकेले अपनी रक्षा नहीं कर सकेगा।
यदि राज्य बहुत बड़ा होगा, तो सुदूरवर्ती प्रदेशों पर शासन करना कठिन होगा और जनता में राज्य के प्रति अनुरक्ति भी नहीं हो सकेगी। रूसो यह भी कहता था कि शासन व सरकार का स्वरूप भी राज्य के आकार पर निर्भर है। लोकतन्त्र शासन छोटे आकार के राज्यों में संभव है, बीच के आकार के राज्यों में श्रेणीतन्त्र शासन उपयुक्त रहता है और विशाल राज्यों में राजतन्त्र शासन के अतिरिक्त अन्य कोई शासनपद्धति संभव नहीं रहती । मान्टेस्क्यू सदृश अन्य भी अनेक फ्रेंच विद्वानों ने इसी प्रकार के विचार प्रगट किये हैं। अठारहवीं सदी की परिस्थितियों में संभवतः यह बात ठीक भी थी। तब तक व्यावसायिक उन्नति भलीभाँति नहीं हुई थी और न ही मनुष्य ने देश और काल पर विजय प्राप्त की थी। रेल, मोटर, रेडियो आदि का आविष्कार तब तक नहीं हुआ था। घोड़े की अपेक्षा अधिक तेज चल सकने वाली किसी सवारी का मनुष्य को तब तक ज्ञान नहीं था। इस दशा में यदि रूसों और मांटेस्क्यू सदृश राजशास्त्री विशालकाय राज्यों में लोकतन्त्र शासन को असंभव समझे तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं।
वैज्ञानिक उन्नति की वर्तमान दशा में विशालकाय राज्यों में भी लोकतन्त्र शासन की सत्ता संभव हो गई है। संयुक्त राज्य अमेरिका इसका उदाहरण है। उसका क्षेत्रफल भारत की अपेक्षा दुगुना है। इतने बड़े राज्य में जो लोकतन्त्र शासन सफल हो रहा है, इसका कारण देश और काल पर प्राप्त की गई वह विजय ही है, जो वैज्ञानिक अविष्कारों का परिणाम है। शासन की सुव्यवस्था की दृष्टि से भी राज्य का विशाल होना अब कोई नुकसान की बात नहीं रही है। ब्रिटिश साम्राज्य भूमण्डल के प्रायः सभी भागों में विस्तृत है, अनेक द्वीप व प्रदेश उसके अन्तर्गत हैं। पर उसका शासन छोटे-छोटे राज्यों के मुकाबिले में कम व्यवस्थित नहीं कहा जा सकता। आवागमन के साधनों में उन्नति ही इसका कारण है।
वर्तमान युग में राज्यों का छोटा होना घाटे की बात हो गई है। बीसवीं सदी के दो महायुद्धों ने यह सिद्ध कर दिया है कि छोटे राज्यों के लिए आत्मरक्षा कर सकना सुगम नहीं है। 1914-18 के महायुद्ध में जर्मनी ने बेल्जियम जैसे छोटे-से राज्य को बात की बात में परास्त कर दिया था। 1931-45 के संग्राम में तो चेकोस्लोवाकिया, फ्रांस, पोलैण्ड आदि के लिये भी जर्मनी के मुकाबले में आत्मरक्षा कर सकना संभव नहीं रहा। जर्मनी की शक्ति का मुकाबला अगर किया जा सका, तो ब्रिटिश साम्राज्य, रूस और अमेरिका जैसे विशालकाय राज्यों की सम्मिलित शक्ति से ही । आजकल तो कोई भी छोटा राज्य अकेला अपनी रक्षा नहीं कर सकता। यही कारण है कि पश्चिमी यूरोप के विविध राज्य आत्मरक्षा के लिए संघ बनाने की आवश्यकता अनुभव कर रहे हैं। अटलाटिंक पैक्ट आदि का निर्माण इसी अनुभूति के कारण हुआ है कि मझले आकार के राज्यों की शक्ति भी अब आत्मरक्षा के लिये पर्याप्त नहीं है।
छोटे राज्यों को अन्य भी अनेक असुविधायें रहती हैं। आर्थिक दृष्टि से वे आत्मनिर्भर व स्वावलम्बी नहीं हो सकते। उनकी राजकीय आय इतनी नहीं होती कि वे वर्तमान वैज्ञानिक युग के अस्त्र-शस्त्रों व अन्य साधनों को भरपूर परिमाण में जुटा सकें। परमाणुशक्ति का विकास व उपयोग करने के लिये जिन साधनों की आवश्यकता है, वे अत्यधिक व्यय साध्य है। इस खर्च को जुटा सकना तो उनकी कल्पना से भी बाहर की बात है। साथ ही, इस युग में सभ्यता, संस्कृति व ज्ञान के विकास के लिये जिस व्यापक दृष्टि की आवश्यकता है, वह छोटे राज्य में संभव नहीं हो सकती। बड़े राज्यों में जिस जनसमुदाय का निवास होता है, वह नस्ल, जाति, धर्म, संस्कृति आदि की दृष्टि से विविध तत्वों का सम्मिश्रण होता है। इस कारण उसमें दृष्टि की विशालता व विविध प्रकार के गुणों की प्रचुरता संभव होती है।
इसमें सन्देह नहीं कि प्राचीन काल के छोटे राज्यों का इतिहास बहुत गौरवपूर्ण था। एथेन्स जैसे नगर राज्य ने मानव इतिहास में जो काम कर दिखाया, वह रोमन साम्राज्य जैसे विशाल राज्य ने नहीं किया। प्लेटो और अरस्तु जैसे दार्शनिक सुकरात जैसे तत्ववेत्ता, परिक्लीज जैसे राजनीतिज्ञ और हीरोडोटस जैसे ऐतिहासिक ग्रीस के छोटे-छोटे नगर राज्यों में ही हुए। भारत में श्रीकृष्ण, वर्धमान महावीर और गौतम बुद्ध जैसे विचारक व तत्वज्ञानी गणराज्यों में ही प्रगट हुए थे। मानव सभ्यता की दृष्टि से जो महत्त्व अन्धक वृष्णि संघ, शाक्यगण और वज्जिसंघ जैसे छोटे राज्यों को प्राप्त है, वह मगध और वत्स जैसे विशाल राज्यों को प्राप्त नहीं है। बड़े राज्यों में आन्तरिक विद्रोह, अव्यवस्था और गृहकलह आदि होते रहे हैं। मुगल साम्राज्य, चीन आदि इसके उदाहरण हैं। जर्मनी, फ्रांस आदि राज्यों को विशालकाय नहीं कहा जा सकता। भारत, चीन, रूस आदि के मुकाबले में तो वे छोटे राज्य ही है। फिर भी सैनिक शक्ति, व्यावसायिक उन्नति और संस्कृति की दृष्टि से वे बड़े राज्यों के मुकाबले में आगे बढ़े हुए रहे हैं।
राज्य बड़े हों या छोटे, यह बात मानवसमाज की उन्नति की दशा पर निर्भर है। निस्सन्देह, प्राचीन काल में छोटे राज्य ही अधिक उत्तम थे, क्योंकि सुशासन व आन्तरिक व्यवस्था उन्हीं में संभव थी। उनके निवासी भी एक राष्ट्रीयता के अंग होने के कारण अधिक सुसंगठित हो सकते थे पर आवागमन के साधनों की उन्नति के कारण ये सब बातें अब बड़े राज्यों में भी संभव हो गई है। अमेरिका और रूस शासन व सुव्यवस्था की दृष्टि से बेल्जियम व फ्रांस जैसे देशों से पीछे नहीं है। इस समय की तो प्रवृत्ति यही है कि राज्यों के आकार अधिक-से-अधिक बड़े होते जाएँ, छोटे राज्य मिलकर अपना एक संघ बना लें और विविध मानव समूह मिलकर एक ऐसी संस्कृति व राष्ट्रीयता का विकास करें, जिसमें छोटे मानव समुदायों की अपनी विशेषताएँ कायम रहते हुए भी सब में एकानुभूति की सत्ता हो.
राज्यों की स्वाभाविक सीमा-
राज्यों की सीमा क्या हो, यह प्रश्न इतिहास में सदा महत्त्वपूर्ण रहा है। भौगोलिक परिस्थितियों ने जिन राज्यों की कोई स्वाभाविक सीमा नियत कर दी है, वे बहुत सौभाग्यशाली हैं। ग्रेट ब्रिटेन व जापान की सीमाएँ सर्वथा प्राकृतिक हैं। पर यूरोप के बहुसंख्यक राज्यों को इस प्रकार की प्राकृतिक सीमायें प्राप्त नहीं है। इसी कारण अपनी भूमि के विस्तार के लिये व ऐसी सीमायें प्राप्त करने के लिये जो कि राज्य की उन्नति और समृद्धि में सहायक हों, वे निरन्तर संघर्ष करते रहे हैं। 1994-18 के महायुद्ध के बाद यूरोपियन राज्यों में यह प्रवृत्ति बहुत प्रबल हो गई थी। पोलैंड का जो पुनः निर्माण इस महायुद्ध के बाद किया गया, उसके अनुसार उसे जर्मनी के बीच में से एक गलियारा प्रदान किया गया, ताकि समुद्र के साथ पोलैंड का सीधा संबंध हो सके। पोलैंड की सीमा कहीं भी समुद्र से नहीं लगती थी, यह बात उसके विदेशी व्यापार के लिये उचित नहीं थी। इसी कारण डान्ट्सिग के बंदरगाह को राष्ट्रसंघ की अधीनता में एक पृथक् स्वतंत्र नगर के रूप में परिवर्तित किया गया, और उस तक पहुंचने के लिये पोलैंड को जर्मनी के बीच से एक गलियारा दिया गया। जर्मनी के लिये यह बात बहुत बुरी थी, पर पोलैण्ड की महत्त्वाकांक्षा को पूरा करने के लिये जर्मनी के साथ यह अन्याय किया गया था। इसी प्रकार बुल्गेरिया और चेकोस्लोवाकिया को भी यह अवसर दिया गया था कि समुद्र तक उनकी पहुँच रहे। जिन प्रदेशों को इस उद्देश्य से इन राज्यों की सीमा के अन्तर्गत किया गया, उनका इनके साथ रहना सर्वथा अस्वाभाविक था । यह सिद्धान्त स्वीकार करके कि प्रत्येक राज्य को विदेशी व्यापार की सुविधा प्राप्त होनी चाहिये और विदेशी व्यापार के लिये समुद्रतट आवश्यक है, इनकी सीमाओं का निर्णय किया गया था। एशिया में अफगानिस्तान एक ऐसा राज्य है, जिसकी सीमायें समुद्र से बहुत दूर हैं। वह अपनी इस कमी को अनुभव करता है और पाकिस्तान के ऐसे प्रदेशों को, जिनमें पठान जाति प्रधानतया निवास करती है, अपने साथ मिलकर अपनी भूमि का विस्तार समुद्र तक कर देने के लिये इच्छुक रहा है। राज्यों का स्वरूप एक जीवित जागृत प्राणी के समान है। प्राणियों के समान राज्य भी अपने उत्कर्ष व समृद्धि के लिये प्रयत्नशील होता है। अतः यदि राजशास्त्री लोग राज्य के संबंध में इस सिद्धान्त का भी प्रतिपादन करें कि प्रत्येक राज्य को ऐसी सीमायें प्राप्त रहें जो उनकी उन्नति व समृद्धि में सहायक हों, तो इसे अनुचित नहीं कहा जा सकता । प्राकृतिक सीमाओं की प्राप्ति राज्य की रक्षा लिये भी उपयोगी है। अनेक राज्यों की सीमा किसी पर्वत, नदी व समुद्र द्वारा निर्धारित होती है। पहले भारत की एक प्राकृतिक सीमा थी। उत्तर में हिमालय पश्चिम व पूर्व में अन्य पर्वतमालायें तथा दक्षिण में विशाल समुद्र ने इसे ऐसी सीमायें प्रदान की थीं, जिनके कारण विदेशियों से इसकी रक्षा सुगमता के साथ की जा सकती थी। भारत की इन्हीं स्वाभाविक सीमाओं को देखकर आचार्य चाणक्य ने लिखा था कि हिमालय से समुद्र पर्यन्त जो हजार योजन विस्तीर्ण भूखण्ड है, वह एक चक्रवर्ती शासन का स्वाभाविक क्षेत्र है। पर पाकिस्तान के निर्माण से पूर्व और पश्चिम भारत की कोई स्वाभाविक सीमा नहीं रह गई है। कोई आश्चर्य नहीं कि यह स्थिति देर तक कायम न रहे और भारत फिर एक बार कोई ऐसी प्राकृतिक सीमा प्राप्त करने में समर्थ हो जाए, जो उसकी सुरक्षा के लिये अधिक अनुकूल हो।
राज्य की सीमा प्रायः ऐसी होती है, जिससे उसकी सब भूमि एक साथ रहती है। फ्रांस, पोलैण्ड, इटली आदि राज्य इसी प्रकार के हैं। पर कुछ राज्य ऐसे भी होते हैं, जिनकी भूमि एक स्थान पर न होकर भूमण्डल के विविध प्रदेशों में बिखरी होती है। हमारे पड़ोस में पाकिस्तान इसका उदाहरण है। इसकी भूमि दो भागों में (पश्चिमी पाकिस्तान व पूर्वी पाकिस्तान) में विभक्त है, जिनके बीच में सैकड़ों मील का अन्तर है। 1994-18 के महायुद्ध के बाद जर्मनी की भूमि को भी पोलिश गलियारे द्वारा दो भागों में विभक्त कर दिया गया था। ग्रेट ब्रिटेन एक राज्य है, पर उसके अन्तर्गत समझे जाने वाले अनेक द्वीप व उपनिवेश भूमण्डल के सुदूरवर्ती प्रदेशों में बिखरे हुए हैं। पर इसमें सन्देह नहीं कि राज्य की सब भूमि का एक साथ रहना उसकी शक्ति में सहायक होता है। भूमि का बिखरा हुआ होना साम्राज्यवाद की दृष्टि से चाहे अवांछनीय न हो, पर राज्य के शासन व समृद्धि की दृष्टि से वह उचित नहीं होता ।
राज्य और भूमि का स्वामित्व -
मध्यकाल में यह माना जाता था कि जो राजा राज्य का स्वामी है, वह राज्य की भूमि का मालिक भी है। सामन्त पद्धति के युग में यह सिद्धान्त अस्वाभाविक नहीं था, क्योंकि विविध सामन्त राजा जहाँ अपने-अपने प्रदेश के शासक होते थे, वहां वे अपने प्रदेश के जागीरदार भी होते थे। उस समय राजा जहाँ अपने-अपने प्रदेश के शासक होते थे, वहां वे अपने प्रदेश के जागीरदार भी होते थे। उस समय राजा न केवल शासक था, अपितु स्वामी भी था। यही कारण है कि राजा लोग अपनी इच्छा व अधिकार से अपने द्वारा शासित प्रदेशों को बेच सकते थे, दहेज में दे सकते थे या अन्य प्रकार से हस्तान्तरित कर सकते थे। जिस प्रकार कोई व्यक्ति अपने मकान, पशु या अन्य सम्पत्ति को अपनी इच्छानुसार दूसरे को दे सकता है, वैसे ही राजा अपने राज्य की भूमि व उस पर निवास करने वाले व्यक्तियों का आदान-प्रदान भी कर सकता था। मध्यकालीन यूरोप में चार्ल्स पंचम जिन विशाल व सुविस्तृत प्रदेशों का शासन करता था, उनमें से अनेक उसे विवाह द्वारा प्राप्त थे। भारत में ही अंग्रेजों को जो बम्बई का प्रदेश मिला था, वह इंग्लैण्ड के अन्यतम राजा को विवाह में दहेज के रूप में प्राप्त हुआ था। अठारहवीं सदी तक यूरोप के राजशास्त्री राज्य की भूमि पर राजा के स्वत्व को स्वीकार करते थे।
फ्रांस की राज्यक्रान्ति द्वारा मध्यकाल के इस सिद्धान्त को बहुत धक्का लगा। फ्रेंच क्रान्तिकारियों ने यह प्रतिपादित किया कि राज्य की प्रभुता जनता में निहित होती है। राजशक्ति जनता की है, अतः राज्य की भूमि पर राजा का स्वत्व सम्भव ही नहीं है। राज्य की भूमि पर जो विविध पदार्थ हैं, वे व्यक्तियों की सम्पत्ति है। राजशक्ति भी इन व्यक्तियों की ही है, जिनके उपयोग व अधिकार वे उस संगठन को दे देते हैं, जिसे सरकार कहा जाता है।
भूमि पर राजा के स्वत्व के सिद्धान्त के कारण ही खेतों, जंगलों और भूमि के अन्य हिस्सों पर राज्य का स्वत्व जाता रहा है। किसान खेत के उपयोग के लिये राज्य को मालगुजारी देता है। पर व्यापारी व व्यवसायी अपनी आमदनी पर आय कर देते हैं। यदि उनकी आमदनी एक निश्चित राशि से कम हो, तो उन्हें कोई कर नहीं देना होता। पर किसान अगर एक बीघा जमीन जोतकर चार मन अनाज भी पैदा करता है, तो उसे जहाँ जमींदार को लगान लेना पड़ता है, वहाँ जमींदार को भी उस एक बीघे जमीन पर मालगुजारी देनी होती है। राज्य खेत व जमीन पर अपना विशेष स्वत्व मानता है, इसी कारण उसके उपयोग के लिये वह अपना 'अंश' प्राप्त करने का अधिकारी होता है। जमीन पर राज्य का स्वत्व है या व्यक्तियों का यह विवाद बहुत पुराना है। इसमें सन्देह नहीं कि भारत में जमीन पर व्यक्तियों का स्वत्व माना जाता रहा है। जमीन के इन स्वत्वाधिकारियों को जमींदार कहते थे। पर अनेक विचारकों के मत में ये जमींदार केवल मालगुजारी वसूल करने के साधन (एजेण्ट) रहे हैं, जमीन के मालिक नहीं। वस्तुत:, जमीन का मालिक राज्य है, जो अपनी भू-सम्पति के उपयोग के लिये मालगुजारी प्राप्त करता है और इस मालगुजारी वसूल करने का ठेका लेने के कारण जमींदार किसान के लगान प्राप्त करने का अधिकारी होता है। जमीन के स्वाम व्यक्ति हैं या राज्य इस विवाद में पड़ने की हमें आवश्यकता नहीं। यहाँ इतना लिख देना पर्याप्त है कि आधुनिक युग में राज्य की यह प्रवृत्ति है कि वह भूमि और तत्सम्बन्धी सब वस्तुओं पर अपना विशेष स्वत्व स्थापित करें। समाजवाद के विकास के कारण यह प्रवृत्ति और भी प्रबल हो गई है। न केवल भूमि अपितु कल-कारखानों पर भी अब राज्य अपना स्वत्व स्थापित करने लगा है। समुदाय के हितों के सम्मुख व्यक्ति के हित नगण्य हैं, व व्यक्ति के हितों का सच्चे अर्थों में सम्पादन भी समूह के हित द्वारा ही संभव है, इस सिद्धान्त के कारण अब वैयक्तिक सम्पत्ति का स्थान सामूहिक सम्पत्ति व राजकीय सम्पत्ति लेने लगी है। पर वर्तमान युग की इस प्रवृत्ति के कारण जिस राज्य का भूमि व तत्संबंधी वस्तुओं पर स्वत्व स्थापित होता है, वह कोई एक व्यक्ति व श्रेणी नहीं है, अपितु राज्य के सब नागरिकों का समुदाय मात्र है।
राज्य के अधिकार से पृथक् भूमि
हम ऊपर लिख चुके हैं कि राज्य का अपनी सीमा के अन्तर्गत सम्पूर्ण भूमि पर पूरा-पूरा अधिकार होता है। पर इस नियम के कुछ अपवाद भी हैं। यह माना जाता है कि किसी राज्य में विदेशी राजदूतों के निवास के लिये जो प्रदेश नियत हैं, उस पर राज्य का अधिकार नहीं होता। उसके निवासियों पर राज्य के कानून भी लागू नहीं होते। इसी प्रकार यदि कोई विदेशी जहाज राज्य के बन्दरगाह में या राज्य के समुद्र में (स्थल से 12 मील के अन्दर आया हुआ हो, तो वह भी राज्य के शासनाधिकार व कानून से मुक्त होता है। राज्यों ने ऐसी व्यवस्था आपस के समझौते से की है। इस संबंध में जो भी नियम हैं, वे अंतर्राष्ट्रीय कानून द्वारा तय हुए हैं।
राज्य की भूमि के विषय में कुछ अन्य भी बातें हैं, जो अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों द्वारा तय होती हैं। किसी-किसी राज्य ने अपने किसी विशेष बंदरगाह, प्रदेश व नदी आदि को प्रयुक्त करने का अधिकार संधि द्वारा किसी अन्य राज्य को दे दिया है। ब्रिटेन, फ्रांस आदि राज्यों ने इस तरह के विशेष अधिकार चीन में प्राप्त किये हुए थे। जापान ने मंचूरिया में रेल बनाने व इसके लिए वहां की भूमि को प्रयुक्त करने का अधिकार लिया हुआ था। सुदूरवर्ती देशों में तार भेजने के लिए समुद्र की सतह पर जो तारें बिछाई जाती हैं, उनके लिये विविध राज्यों से विशेष अधिकार लेने पड़ते हैं। किसी पिछड़े हुए राज्य के खनिज पदार्थों, तेल के कुओं आदि को प्रयुक्त करने के लिये जब किसी उन्नत राज्य के नागरिक विशेष अधिकार प्राप्त करते हैं, तो वे प्रायः ऐसी शर्तें भी तय करा लेते हैं, जिनसे उनके अपने मामलों में उस पिछड़े हुए राज्य की सरकार कोई हस्तक्षेप न कर सके। इस प्रकार की व्यवस्थाओं द्वारा राज्य-संबंधी यह सिद्धान्त कि राज्य का अपनी भूमि पर अबाधित अधिकार है, कुछ मर्यादित हो जाता है।
(3) शासन या सरकार ( Government )-
राज्य का तीसरा आवश्यक तत्व शासन या सरकार है। किसी निश्चित भूमिखण्ड पर स्थायी रूप से बसा हुआ जनसमुदाय तब तक राज्य नहीं बनता, जब तक कि वह राजनीतिक दृष्टि से संगठित न हो। राज्य की अपनी सरकार अवश्य होनी चाहिये, जिसके द्वारा कि उन उद्देश्यों व प्रयोजनों की पूर्ति की जा सके, जिनके लिये राज्य का संगठन हुआ है। सरकार वह साधन हैं, जिससे राज्य अपने ध्येय की पूर्ति करता है। जनसमुदाय की सामूहिक इच्छा की अभिव्यक्ति और कार्य में परिणति सरकार द्वारा ही होती है। सरकार के अभाव में जनसमुदाय संगठित नहीं हो सकता और संगठन के बिना राज्य की सत्ता संभव नहीं।
सरकार का स्वरूप चाहे कैसा भी हो, वह चाहे एकतन्त्र हो, चाहे श्रेणीतन्त्र और चाहे लोकतन्त्र, पर उसकी सत्ता राज्य के लिये अनिवार्य है। इसी सरकार को भारत के प्राचीन राजशास्त्र-प्रणेताओं ने 'दण्ड' नाम से कहा है। दण्ड ही जनता का शासन करता है, दण्ड ही उसकी रक्षा करता है। जब यह 'दण्ड' नहीं था, तब अराजकता की दशा थी। उस दशा में न कोई शासक था, न शासित सर्वत्र 'मत्स्य न्याय' छाया हुआ था। जैसे बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है, वैसे ही प्रबल व शक्तिशाली मनुष्य निर्बलों को लूट लेते थे व नष्ट कर देते थे। इस दशा में कोई मनुष्य 'धर्म' का पालन नहीं कर सकता था। मनुष्यों का आर्थिक जीवन, सुख-समृद्धि सब खतरे में पड़ी हुई थी। मनुष्य और भूमि तब भी विद्यमान थे, पर दण्ड व सरकार के अभाव में सर्वत्र अव्यवस्था अशान्ति और अराजकता छाई हुई थी। दण्ड के प्रादुर्भाव ने इस अवस्था का अन्त किया और जनसमुदाय राजनीतिक दृष्टि से संगठित होकर अपनी वैयक्तिक व सामूहिक उन्नति करने में समर्थ हुआ।
सरकार का रूप इतना अधिक विकसित भी हो सकता है, जिससे कि मानव जीवन के सब अंगों का नियन्त्रण व संचालन उसके अन्तर्गत हो जाए। साथ ही, सरकार का रूप ऐसा भी हो सकता है कि केवल शान्ति स्थापित करने व व्यवस्था रखने पर ही ध्यान दे। पर सरकार का रूप चाहे कैसा भी हो, यह आवश्यक है कि सरकार के पास इतनी शक्ति हो कि वह अपने आदेशों का राज्य की जनता द्वारा पालन करा सके और बाह्य व आभ्यन्तर शत्रुओं से अपने राज्य की भलीभांति रक्षा कर सके।
(4) प्रभुता व सर्वोपरिता (Sovereignty ) -
राज्य का चौथा आवश्यक तत्व प्रभुता है। यह आवश्यक नहीं कि किसी निश्चित भूखण्ड पर स्थायी रूप से बसा हुआ व राजनीतिक दृष्टि से संगठित जनसमुदाय 'राज्य' ही हो। वह राज्य तभी होगा, जब कि वह 'सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न' भी हो। जब उस पर किसी बाह्य शक्ति का नियन्त्रण न हो, तभी हम उसे राज्य कहेंगे। 5 अगस्त, 1947 तक भारत 'राज्य' नहीं था, क्योंकि उस पर ब्रिटेन का नियन्त्रण व अधिकार था। भारत की अपनी निश्चित भूमि थी अपनी जनता थी अपनी सरकार भी थी, पर 'प्रभुता' के अभाव में उसे 'राज्य' नहीं कहा जा सकता था। यह ब्रिटिश साम्राज्य का एक अंग था, 'राज्य' ब्रिटिश साम्राज्य था, भारत नहीं ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत हांगकांग आदि अनेक प्रदेश अब भी ऐसे हैं, जिन्हें हम 'राज्य' नहीं कह सकते, क्योंकि 'प्रभुता' का उनमें अभाव है।
जिन राज्यों का संगठन संघात्मक (फेडरल) सिद्धान्त के अनुसार होता है, उनमें यह भ्रम उत्पन्न हो सकता है कि प्रभुत्व शक्ति संघ में निहित है या उसके अंगो में संयुक्त राज्य अमेरिका, भारत आदि संघात्मक है। न्यूयार्क, कैलिफोर्निया आदि की जहाँ अपनी-अपनी पृथक् सरकारें हैं, वहाँ संयुक्त राज्य की सरकार भी पृथक् रूप से है। भारत में जहां सम्पूर्ण राज्य की केन्द्रीय सरकार है, वहाँ साथ ही बिहार, उत्तर प्रदेश, कश्मीर आदि की भी अपनी-अपनी सरकारें हैं। पर भारतीय गणराज्य में प्रभुता केवल संघ सरकार में है, उसके अंगों की सरकारों में नहीं। यही बात अमेरिका के संबंध में भी कही जा सकती है। एक राज्य में प्रभुता भी एक ही होती है। संघ - राज्यों के विविध अंगों की सरकारों को 'प्रभु' नहीं कहा जा सकता। हाँ, इतिहास में ऐसे भी उदाहरण विद्यमान हैं, जबकि कतिपय 'प्रभु' राज्यों ने कुछ विशिष्ट प्रयोजनों के लिए आंशिक रूप से अपना 'संघ' बनाया हो। 1914-18 के महायुद्ध से पूर्व आस्ट्रिया-हंगरी का संघ (यूनियन) ऐसा था, जिसमें कि दोनों राज्यों की सरकारें पृथक् पृथक् थीं। दोनों सम्पूर्ण प्रभुत्वसंपन्न राज्य थे, यद्यपि दोनों का राजा एक ही था। सन्धिविग्रह, परराष्ट्र-संबंध आदि कुछ मामलों के लिये उन्होंने परस्पर सहयोग करने की सन्धि भी की हुई थी। इसी प्रकार, 1814 के बाद आस्ट्रिया और विविध जर्मन राज्यों ने मिलकर जो संघ बनाया था, उसमें भी विविध अंगों की प्रभुता को प्रायः अक्षुण्ण रखा गया था। इस प्रकार के संघ बहुत निर्बल थे और वास्तविक शक्ति उन राज्यों के ही हाथों में थी, जो संघ में शामिल थे।
आंशिक रूप से प्रभुता के मर्यादित होने पर भी राज्य की सत्ता सम्भव होती है। ब्रिटिश कॉमनवेल्थ के अन्तर्गत कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड आदि जो अनेक औपनिवेशिक राज्य हैं, वे अपने आन्तरिक शासन में पूर्णतया स्वतन्त्र हैं, यद्यपि सन्धि विग्रह व परराष्ट्र संबंध के क्षेत्र में उनकी प्रभुता कुछ अंशों में मर्यादित है। वे संयुक्त राज्य संघ (U.NO.) में अपने प्रतिनिधि पृथक् रूप से भेजते हैं, अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों के स्वतन्त्र राज्यों के रूप में शामिल होते हैं और अपने पड़ोसियों के साथ पृथक् रूप से सन्धि व वैदेशिक संबंध भी स्थापित करते हैं। यह होते हुए भी उनसे यह आशा की जाती है कि ब्रिटिश कॉमनवेल्थ के अन्तर्गत रहने के कारण विदेशी मामलों में उनसे यह आशा की जाती है, कि ब्रिटिश कॉमनवेल्थ के अन्तर्गत रहने के कारण विदेशी मामलों में वे ब्रिटेन के परामर्श और सहयोग से कार्य करें। अपने क्षेत्र से बाहर की एक सत्ता (ब्रिटिश क्राउन) के प्रति वे निष्ठा व भक्ति भी रखते हैं। इन दृष्टियों से उनकी प्रभुता कुछ-न-कुछ मर्यादित अवश्य हो जाती है; पर क्योंकि उन्हें यह भी अधिकार है कि यदि वे चाहें तो ब्रिटिश कॉमनवेल्थ से पृथक हो जाएं, अतः उन्हें 'राज्य' कहा जा सकता है।
न केवल बाह्य शक्ति के नियन्त्रण से ही राज्य को मुक्त होना चाहिये, अपितु अपने आन्तरिक क्षेत्र में भी उसकी सत्ता सर्वोपरि होनी चाहिये। राज्य की भूमि में जो भी मनुष्य व प्राणी बसते हों या जो भी पदार्थ उस क्षेत्र में विद्यमान हों, उन सब पर राज्य का शासन व अधिकार होना आवश्यक है। ऐसा न होने से अराजकता हो जायेगी और राज्य 'राज्य' नहीं रहेगा। राज्य में निवास करने वाले मनुष्यों के अन्य भी अनेक 'समुदाय' व संगठन होते हैं। धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक आदि कितने ही प्रकार के संगठन मनुष्य बना सकते हैं। पर यह आवश्यक है कि ये सब राज्य के अधीन हों, उसके आदेशों का पालन करते हों और उसकी प्रभुता को स्वीकार करते हों। राज्य का प्रतिस्पर्धी व प्रतिद्वन्द्वी अन्य कोई समुदाय हो ही नहीं सकता। एक क्षेत्र में एक ही राज्य शक्ति रह सकती है। एक राज्य में अन्य कोई 'राज्य' नहीं रह सकता। यह संभव तथा उचित है कि राज्य के कार्य की सहूलियत के लिये राजशक्ति के प्रयोग को अनेक स्थानों पर विभक्त कर दिया जाय। भारत जैसे विशाल राज्यों में एक केन्द्रीय सरकार के अतिरिक्त प्रादेशिक सरकारें और स्थानीय (जिलों व नगरों की) सरकारें स्थापित करना सर्वथा उचित है, पर वे सब अपनी शक्ति एक ही स्रोत से प्राप्त करती है। वास्तविक प्रभुता ( अन्य राज्यों के साथ सम्बन्ध-विषयक व आन्तरिक ) इस एक स्रोत में ही निहित है। यह स्रोत है भारतीय राज्य, भारत भूमि में स्थायी रूप से बसे हुए मनुष्यों का ऐसा समुदाय, जो कि राजनीतिक दृष्टि से संगठित है और जो सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न है। इसकी प्रभुत्व- शक्ति व राजसत्ता की अभिव्यक्ति भारत के संविधान द्वारा होती हैं, जिसने शासन की सुविधा के लिये राजशक्ति के प्रयोग को केन्द्रीय व राज्यों की सरकारों में विभक्त कर दिया है।
जनता, भूमि, सरकार और प्रभुता ये राज्य के चार प्रमुख तत्व हैं। पर इनके अतिरिक्त राज्य के दो तत्व और हैं, जिन्हें हम स्थायित्व और समानता कह सकते हैं। वस्तुतः ये दोनों तत्व भी राज्य की ऐसी विशेषताएँ हैं, जो उसे अन्य समुदायों से पृथक् करती हैं। इन पर भी संक्षेप से प्रकाश डालना उपयोगी है।
(5) स्थायित्व ( Permanence ) -
राज्य का एक अन्य आवश्यक तत्व है, जिसे 'स्थायित्व' कहा जा सकता है। इसका अभिप्राय यह है कि किसी भूखंड में बसा हुआ, राजनीतिक दृष्टि से संगठित व प्रभुत्वसम्पन्न जनसमुदाय सदा 'स्थायी' रहता है। यह संभव है कि वह राज्य खंडित हो जाए, किसी दूसरे राज्य के अधीन हो जाए या किसी अन्य राज्य के साथ मिलकर अपनी पृथक् सत्ता को खो दें। पर यह सब होते हुए भी जो जनसमुदाय एक बार राजनीतिक दृष्टि से संगठित होकर 'राज्य' बन जाता है, वह फिर कभी 'अराजकता' की दशा को प्राप्त नहीं हो सकता। भारत दो भागों में विभक्त हो गया भारत और पाकिस्तान में इस पर विभाग के कारण राजशक्ति का अन्त नहीं हो गया, यहाँ के जनसमुदाय का राज्यत्व कायम रहा। जब यह देश अंग्रेजों के अधीन था, तब भी यहाँ के जनसमुदाय में राज्यत्व विद्यमान था, यद्यपि यह राज्यत्व ब्रिटेन के राज्य के अन्तर्गत था। 1914-18 के महायुद्ध के बाद सर्बिया अपने पड़ोस के कतिपय प्रदेशों के साथ मिलकर यूगोस्लाविया के रूप में परिवर्तित हो गया, पर इस परिवर्तन के कारण सर्बिया व उन कतिपय प्रदेशों का 'राज्यत्व' नष्ट नहीं हो गया। राज्य के क्षेत्र व स्वरूप में परिवर्तन आता रहता है, राज्य की प्रभुता व राजशक्ति भी भिन्न रूप धारण करती रहती है पर इन परिवर्तनों के कारण राज्य की स्थायित्वा में अन्तर नहीं आता।
यही कारण है कि जब कोई राज्य किसी अन्य राज्य के साथ मिल जाने के कारण विभक्त हो जाने के कारण या . किसी बाह्य सत्ता के अधीन हो जाने के कारण एक नया रूप धारण करता है, तो उसकी सरकार पहले राज्य की सम्पत्ति आदि की स्वामिनी हो जाती है और साथ ही उसके प्राप्तव्य व दातव्य की भी जिम्मेदारी बन जाती है। ब्रिटिश साम्राज्य से पृथक् व स्वतन्त्र हो जाने के बाद नवीन भारतीय राज्य की सरकार जहाँ ब्रिटिश सरकार की सब सम्पत्ति को प्राप्त किया है, वहाँ साथ ही उसकी सब देनदारियों को भी अपनाया है। महायुद्धों के अन्त होने पर जब अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों द्वारा राज्यों का पुनः निर्माण होता है, तो पुनः निर्मित राज्यों की सरकारें प्रायः पुरानी देनदारियों को अपने ऊपर ले लेती है। रूस की बोल्शेविक सरकार ने जारशाही सरकार और केरेन्सी की लोकतन्त्र सरकार की देनदारियों की उत्तरदायित्व लेने से इनकार कर दिया था। यही कारण है कि संयुक्त राज्य अमेरिका ने बहुत समय तक उसकी कानूनी सत्ता को मानना स्वीकार नहीं किया था। यह हम पहले प्रतिपादित कर चुके हैं कि सरकार के परिवर्तन से राज्य की स्थायित्वा में अन्तर नहीं पड़ता। सरकार और राज्य दो भिन्न वस्तुएं हैं। सरकार में बहुधा परिवर्तन आते रहते हैं, सरकार अस्थायी होती है। इसके विपरीत स्थायित्व राज्य का एक महत्त्वपूर्ण तत्व है।
(6) राज्यों की समानता ( Equality) -
अन्तर्राष्ट्रीय कानून की दृष्टि से सब राज्य एक समान होते हैं। भूमि, जनता व सैन्यशक्ति की दृष्टि से राज्यों में भेद स्पष्ट है। कोई राज्य बड़ा है, कोई छोटा कोई शक्तिशाली, कोई निर्बल पर अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सबकी स्थिति एक समान होती है। यही कारण है कि संयुक्त राज्यसंघ में सम्मिलित सब राज्यों को संघ की जनरल असेम्बली में एक बराबर स्थिति प्रदान की गई है और सबका वोट एक समान रखा गया है।
संयुक्त राज्य अमेरिका और बेल्जियम सदृश राज्यों की शक्ति में कितना भारी अन्तर है, पर संयुक्त राज्य संघ में दोनों के वोट की कीमत एक बराबर है। 1914-18 के महायुद्ध के बाद जिस राष्ट्रसंघ का संगठन किया गया था. उसमें भी इसी सिद्धान्त को स्वीकार किया गया था। इस सिद्धान्त का आधार यह बात है कि जैसे किसी एक राज्य में सब नागरिक, चाहे उनमें धन विद्या व शौर्य का कितना भी अन्तर क्यों न हो, एक समान अधिकार व स्थिति रखते हैं, ऐसे ही अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी सब राज्यों को, चाहे उनमें बल कितना ही अन्तर क्यों न हो, एक समान स्थिति व अधिकार प्राप्त होना चाहिये।
पर सिद्धान्ततः राज्यों की स्थिति को चाहे एक समान माना जाए, पर क्रिया में उनमें भेद अवश्य रहता है । अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अमेरिका और रूस जैसे विशाल व शक्तिशाली राज्यों का जो महत्त्व होगा, वह इराक व वर्मा जैसे राज्यों का कैसे हो सकता है? यह भेद संयुक्त राज्य संघ के संगठन में भी प्रगट हो गया है। उसकी सुरक्षा परिषद् (सिक्योरिटी कौंसिल) में पाँच शक्तिशाली राज्यों (अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन) को स्थायी रूप से सदस्यता का अधिकार दिया गया है और इन पाँचों में से प्रत्येक को यह भी अधिकार प्राप्त है कि वह परिषद् के किसी भी निर्णय ( वीटो कर सके। ये अधिकार अन्य राज्यों को प्राप्त नहीं है। अन्तर्राष्ट्रीय कानून की दृष्टि से चाहे सब राज्यों की स्थिति एक समान हो, पर यथार्थ राजनीति में उन्हें समानता प्राप्त नहीं है।