हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में काल विभाजन एवं नामकरण की समस्या
प्रस्तावना (Introduction)
हिंदी साहित्येतिहास लेखन में जो आरंभिक प्रयास थे कविमाला या 'भक्तिमाला' सदृश रचनाएँ हों, चाहे गार्सा द तासी या शिवसिंह सेंगर के प्रयास उनमें काल विभाजन का प्रयास नहीं किया गया। यह प्रयास प्रथमत: जार्ज ग्रियर्सन ने किया व संपूर्ण साहित्य को दो कालों में बाँटा किसी भी इतिहास में प्रथम समस्या काल-विभाजन की होती है व द्वितीय उन कालखंडों के सही नामकरण की कालखंडों का नाम यादृच्छिक आधार पर नहीं रखा जा सकता अतः प्रयास यह किया जाता है कि जहाँ तक संभव हो, नामकरण साहित्यिक प्रवृत्तियों के आधार पर हो जिसने तत्कालीन साहित्य के स्वरूप के निर्धारण में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई हो । हिंदी साहित्येतिहास लेखन में नामकरण की समस्या सामान्यतः प्रारंभिक काल ( या आदिकाल) तथा उत्तरमध्यकाल अथवा रीतिकाल के संदर्भ में उठती हैं। नामकरण की अगली समस्या आधुनिक काल के कुछ उपखंडों को लेकर है। आधुनिककालीन गद्य विधाओं के कालखंडों का नामकरण प्राय: एक सरलीकरण का शिकार हुआ है। किंतु इस सरलीकरण की समस्याओं को समझते हुए कुछ इतिहासकारों ने विशेषतः स्वतंत्रता के बाद प्रत्येक विधा का विभाजन साहित्यिक आधार पर किया।
हिंदी साहित्य लेखन और काल विभाजन
हिंदी साहित्य
के इतिहास लेखन में काल विभाजन की समस्या कोई भी इतिहास यूँ तो निरंतरता की
प्रवृत्तियों के कारण समग्र होता है किंतु उसकी समग्रता का अपबोध करने के लिए उसका
वैज्ञानिक वर्गीकरण आवश्यक हो जाता है। इस दृष्टि से काल विभाजन की समस्या
साहित्येतिहास लेखन में महत्त्वपूर्ण हो जाती है।
हिंदी
साहित्येतिहास लेखन परंपरा में जो आरंभिक प्रयास थे, चाहे वे 'भक्तिमाला' या 'कविमाला' सदृश रचनाएँ हों, चाहे गार्सा द
तासी या शिवसिंह सेंगर के प्रयास उनमें काल विभाजन का प्रयास नहीं किया गया। यह
प्रयास प्रथमत: जॉर्ज ग्रियर्सन ने किया व संपूर्ण साहित्य को 11 कालों में बाँटा
इस विभाजन में समस्या यह थी कि इसमें कई कालखंड गैर साहित्यिक आधारों पर स्थापित
किए गए थे, यथा-' कंपनी के शासन
में हिंदुस्तान', 'विक्टोरिया के
शासन में हिंदुस्तान',
'18वीं शताब्दी कुछ काल व्यक्ति विशेष पर आधृत हो गए, यथा 'जायसी की प्रेम
कविता', तुलसीदास
इत्यादि। उन्होंने पहले काल अर्थात् चारणकाल का निश्चित समय 700 से 1300 ई. तो बताया
किंतु शेष कालों का निश्चित विभाजन न कर सके। कुल मिलाकर यह विभाजन अव्यवस्थित ही
रहा । काल विभाजन का अगला प्रयास मिश्रबंधुओं ने किया व मूलतः पाँच काल खंडों को
स्वीकृत किया। पुनः पहले तीन खंडों के दो-दो उपखंड बनाए जिससे कुल आठ काल
निर्धारित हुए, जो इस प्रकार
हैं-
1. पूर्व आरंभिक काल 643- 1286 ई.
2. उत्तर आरंभिक काल
माध्यमिक काल
3. पूर्व माध्यमिक काल 1388-1503
4. प्रौढ़ माध्यमिक काल 1504-1624
अलंकृत काल
5. पूर्व अलंकृत काल 1624-1733
6. उत्तर अलंकृत काल 1734-1832
7. परिवर्तन काल 1833-1868
8. वर्तमान काल 1869 अद्यतन
इस काल विभाजन की मूल समस्या यह है कि यह अत्यंत जटिल है व इसका पर्याप्त तार्किक व वैज्ञानिक आधार नहीं है।
हिंदी साहित्य के
काल विभाजन का सबसे ठोस प्रयास आचार्य शुक्ल ने किया व 900 वर्षों की
परंपरा को उन्होंने चार कालों में विभाजित किया-
1. वीरगाथाकाल- 1050-1375 संवत्
2. भक्तिकाल 1375-1700 संवत्
3. रीतिकाल 1700-1900 संवत्
4. आधुनिक काल 1900 संवत् - अद्यतन
यह काल-विभाजन न
केवल वैज्ञानिक है बल्कि जटिलताओं से मुक्त भी है। इसमें समस्या मात्र यह आती है
कि भक्तिकाल के अंत में रीतिकाल की प्रवृत्तियाँ दिखने लगती हैं व भारतेंदु काल
में भी रीतिकाल की छाप दिखती है। इसकी व्याख्या शुक्ल जी ने इन्हें गौण
प्रवृत्तियाँ कहकर की।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी काल विभाजन
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सामान्यतः शुक्ल जी के ढाँचे को स्वीकार किया किंतु काल विभाजन में थोड़ा परिवर्तन किया। उन्होंने आदिकाल की सीमा को कुछ आगे तक बढ़ाया व इससे भक्तिकाल व रीतिकाल की सीमा स्वतः आगे बढ़ गई। इनका काल विभाजन इस प्रकार है-
1. आदिकाल 1000-1400
2. पूर्व मध्यकाल 1400-1700
3. उत्तर मध्यकाल 1700-1900
4. आधुनिक काल -1900 अद्यतन
वर्तमान समय में
सामान्यतः आचार्यद्वय के मतों के समन्वय पर लगभग सहमति कायम हो चुकी है। आज के समय
में समस्या यह है कि विगत 150 वर्षों के
आधुनिक काल को कैसे उपखंडों में विभाजित किया जाए? चूँकि साहित्यिक चेतना का तीव्र विकास हुआ है, अतः काल-परिवर्तन
अब 300-400 वर्षों के स्थान
पर 8-10 वर्षों में होने
लगा है; किंतु अब सामान्य
सहमति कायम हो चुकी है जिसके अनुसार विभाजन इस प्रकार है-
1. भारतेंदु युग -1850-1900
2. द्विवेदी युग -1900-1918 ई.
3. छायावाद -1918-1936
4. प्रगतिवाद -1936-1943 ई.
5. प्रयोगवाद -1943-1951
6. नई कविता- 1951-1960
7. साठोत्तरी कविता - 1960 से अद्यतन
ध्यान से देखें
तो 1918 ई. के बाद पूरा
विभाजन कविता को केंद्र में रखकर किया गया है, जबकि अब गद्य का महत्त्व अधिक है। इसलिए गद्य विधाओं का
विभाजन अलग से किया गया, जो इस प्रकार है।
1. उपन्यास
(i) प्रेमचंद पूर्व युग
(ii) प्रेमचंद युग
(iii) प्रेमचंदोत्तर युग
(iv) स्वातंत्र्योत्तर
युग
2. कहानी
(i) प्रेमचंदपूर्व युग
(ii) प्रेमचंद युग
(iii) प्रेमचंदोत्तर युग
- (क) नई कहानी
- (ख) अकहानी
- (ग) सहज कहानी
- (घ) सक्रिय कहानी
- (ङ) समांतर कहानी
- (च) सचेतन कहानी
- (छ) समकालीन कहानी
3. नाटक
(i) प्रसाद पूर्व युग
(ii) प्रसाद युग
(iii) प्रसादोत्तर
आलोचना
4. आलोचना
(i) शुक्ल पूर्व युग
(ii) शुक्ल युग
(iii) शुक्लोत्तर आलोचना
- (क) स्वच्छंदतावादी आलोचना
- ( ख ) ऐतिहासिक आलोचना
- (ग) मनोविश्लेषणात्मक आलोचना
(घ) नई समीक्षा
(ङ) समकालीन
समीक्षा
5. निबंध
(i) शुक्ल पूर्व युग
(iii) शुक्लोत्तर युग
(ii) शुक्ल युग
स्पष्ट है कि
हिंदी साहित्येतिहास लेखन परंपरा काल विभाजन की समस्या का पर्याप्त समाधान कर चुकी
है। कुछ विवाद अभी भी शेष हैं किंतु समय के साथ उनके भी सुलझ जाने की संभावना मानी
जा सकती है।
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन परंपरा में नामकरण की समस्या
किसी भी इतिहास
में प्रथम समस्या कालविभाजन की होती है व द्वितीय उन कालखंडों के सही नामकरण की ।
कालखंडों का नाम यादृच्छिक आधार पर नहीं रखा जा सकता अतः प्रयास यह किया जाता है
कि जहाँ तक संभव हो, नामकरण साहित्यिक
प्रवृत्तियों के आधार पर हो और यदि एकदम संभव न हो तो उस कारण के आधार पर हो जिसने
तत्कालीन साहित्य के स्वरूप के निर्धारण में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई
हो। ऐसी स्थिति में नाम का आधार राजनीतिक भी हो सकता है, जैसे 'विक्टोरिया युग', सामाजिक भी, जैसे 'पुनर्जागरण काल', व्यक्तिमूलक भी
जैसे 'भारतेंदु युग' और निर्विशेष भी, जैसे 'आदिकाल'।
हिंदी साहित्येतिहास लेखन में नामकरण की समस्या सामान्यतः प्रारंभिक काल (या आदिकाल) तथा उत्तरमध्यकाल (अथवा रीतिकाल ) के संदर्भ में उठती है। जहाँ तक भक्तिकाल का प्रश्न है, तत्कालीन भक्ति आंदोलन की व्यापकता व साहित्य पर उसके प्रभाव को देखते हुए वह सर्वसम्मति बन चुकी है कि उसका नाम भक्तिकाल ही माना जाए। इसी प्रकार जिसे हम आधनिक काल कहते हैं, उसका समय भी ठीक वहीं है जो आधुनिकता के उद्भव का है और चूँकि आधुनिकता साहित्य व सामाजिक जीवन को प्रभावित करने वाली अति महत्त्वपूर्ण शक्ति रही है, इसलिए इसे आधुनिक काल कहने की सहमति रही है।
प्रथम समस्या
आदिकाल' की है। इसे जॉर्ज
ग्रियर्सन ने 'चारणकाल', मिश्रबंधुओं ने 'प्रारंभिक काल', शुक्ल जी ने 'वीरगाथाकाल', पं. राहुल
सांकृत्यायन ने 'सिद्ध सामंत काल' महावीर प्रसाद
द्विवेदी ने 'बीजवपन काल', आचार्य विश्वनाथ
प्रसाद मिश्र ने 'वीरकाल', रामकुमार वर्मा
ने 'संधिकाल एवं
चारणकाल', बच्चन सिंह 'अपभ्रंश काल
जातीय साहित्य' तथा आचार्य हजारी
प्रसाद द्विवेदी ने आदिकाल'
कहा। इनमें
आदिकाल' व 'प्रारंभिक काल' के अतिरिक्त
जितने भी नामकरण हैं, वे किसी न किसी
साहित्यि की प्रवृत्ति को आधार बनाकर रखे गए हैं किंतु वर्तमान खोजों से स्पष्ट है
कि उक्त काल में किसी भी प्रवृत्ति को केंद्रीय नहीं माना जा सकता। अतः धीरे-धीरे
सहमति बनी कि प्रवृत्ति विशेष के स्थान पर निर्विशेष नामकरण ही इस काल हेतु उचित
होगा। ' आदिकाल' नामकरण में
आरंभिक होने के साथ-साथ पूर्वज होने का अहसास भी शामिल है, अतः अब ' आदिकाल' नाम पर सहमति बन
चुकी है।
उत्तर मध्य काल
के संदर्भ में भी एक सीमित विवाद है। इस काल में उत्पन्न होने वाली विशेष
प्रवृत्तियों को देखते हुए मिश्रबंधुओं ने इसे 'अलंकृतकाल', रमाशंकर शुक्ल रसाल ने 'कलाकाल' आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने 'शृंगारकाल' तथा आचार्य शुक्ल
ने 'रीतिकाल' कहा। चूँकि इस
काल में विशेष साहित्यिक प्रवृत्ति मिलती है। अतः इसमें उत्तर मध्यकाल जैसे
निर्विशेष, कालबोधक नाम की
आवश्यकता नहीं है। शेष तीनों प्रवृत्तियाँ इस काल के केंद्र में हैं किंतु
ध्यानपूर्वक देखें तो रीतिकाव्य परंपरा न केवल इस काल की व्यावर्तक विशेषता है, बल्कि इस काल की
बहुव्याप्त विशेषता भी है। इसका अर्थ हुआ कि इस काल की 'अलंकृति' एवं 'शृंगार' भी अपने आप में
रीतिबद्ध है। अतः अब यह सर्वसम्मति बन चुकी है कि उत्तर मध्यकाल को रीतिकाल ही कहा
जाए ।
नामकरण की अगली समस्या आधुनिक काल के कुछ उपखंडों को लेकर है। 1850 ईस्वी से अभी तक के कालखंड को समग्रता में आधुनिक काल कहना तो सर्वस्वीकृत है किंतु इस काल के भीतर जो साहित्यिक आंदोलन पैदा हुए हैं, उनके नामकरण पर कुछ विवाद हैं। 'भारतेंदु काल' नामकरण पर यद्यपि सर्वसम्मति बन चुकी है तथापि ध्यातव्य है कि इसे शुक्ल जी ने 'प्रथम उत्थान' कहा था व गणपतिचंद्र गुप्त ने 'स्वच्छंदताकाल' कहना उचित समझा है। इसी प्रकार 'द्विवेदी युग' नाम भी स्वीकृत है किंतु इसे शुक्ल जी ने 'द्वितीय उत्थान' व गणपतिचंद्र गुप्त ने 'पुनर्जागरण काल कहा । 'छायावाद' नामकरण स्वीकृत तो है किंतु छायावादी कवियों को सदैव शिकायत रही कि यह नाम आलोचना करता हुआ सा प्रतीत होता है। 'प्रगतिवाद' पर भी सहमति है किंतु 'प्रगतिवाद' व 'प्रगतिशील' के अंदर की समस्या अब तक अनसुलझी है। इसी प्रकार 'प्रयोगवाद' नाम अति प्रचलित होने के कारण चल तो पड़ा किंतु स्वयं इस आंदोलन के प्रवर्तक अज्ञेय को यह शिकायत रही कि आलोचकों ने उनके 'प्रयोगशील' को जबर्दस्ती 'प्रयोगवाद' बना दिया। 'नई कविता' पर ऐसा कोई विवाद नहीं है किंतु यह समस्या अवश्य है कि इसमें 'नई' शब्द 'विशेषण' है या संज्ञा का ही अंश इसी प्रकार 'अकविता' में यह समस्या सदैव रही कि 'अ' उपसर्ग का अर्थ 'अभाव' है, 'विरुद्ध' है या कुछ और। कुल मिलाकर आधुनिक काल की कविता के इतिहास के कालखंडों के नामकरण लगभग तय हो चुके हैं किंतु कहीं न कहीं विरोध की अनुगूंज सुनाई जरूर देती है।
आधुनिककालीन गद्य
विधाओं के कालखंडों का नामकरण प्रायः एक सरलीकरण का शिकार हुआ है। इसमें साहित्यिक
प्रवृत्तियों को आधार बनाने के स्थान प्रायः एक केंद्रीय रचनाकार को चुनकर उसी के
भूत, वर्तमान व भविष्य
को कालविभाजन व नामकरण का आधार बनाया गया। इस कारण उपन्यास व कहानी प्रेमचंदपूर्व
प्रेमचंदयुगीन व प्रेमचंदोत्तर हो गए; निबंध व आलोचना शुक्ल पूर्व, शुक्ल युगीन व शुक्लोत्तर हो गए व नाटक
प्रसादपूर्व, प्रसादयुगीन व
प्रसादोत्तर हो गए।
किंतु इस सरलीकरण
की समस्याओं को समझते हुए कुछ इतिहासकारों ने विशेषतः स्वतंत्रता के बाद, प्रत्येक विधा का
विभाजन साहित्यिक आधार पर किया । ऐसा करने पर प्रेमचंदोत्तर उपन्यास कई धाराओं में
बँट गया, यथा-जैनेंद्र आदि
की 'मनोवैज्ञानिक
धारा', यशपाल आदि की 'प्रगतिवादी धारा' भगवतीचरण वर्मा
आदि की 'सामाजिक धारा', रेणु आदिक की 'आंचलिक धारा', कृष्णा सोबती आदि
की 'महिला लेखन की
धारा', राजेंद्र यादव
आदि का 'नया उपन्यास एवं
मनोहर श्याम जोशी आदि का उत्तर आधुनिक उपन्यास '। इसी प्रकार प्रेमचंदोत्तर कहानी भी कई भागों
में विभाजित हो गई इन हिस्सों में राजेंद्र यादव व कमलेश्वर की 'नई कहानी', कमलेश्वर की 'समांतर कहानी', महीप सिंह की 'सचेतन कहानी' राकेश वत्स की 'सक्रिय कहानी', श्रीकांत वर्मा
आदि की 'अकहानी', अमृतराय की 'सहज कहानी' आदि परिगण्य हैं।
आलोचना के क्षेत्र में शुक्लोत्तर आलोचना कई धाराओं में बँटी, यथा शांतिप्रिय
द्विवेदी, नंददुलारे
वाजपेयी व डॉ. नगेंद्र की 'स्वच्छंदतावादी
समीक्षा', आचार्य
हजारीप्रसाद द्विवेदी की 'ऐतिहासिक आलोचना', प्रकाश चंद्र
गुप्त व राम विलास शर्मा की 'प्रगतिवादी समीक्षा', डॉ. देवराज व (आरंभिक) नगेंद्र की 'मनोविश्लेषणवादी
समीक्षा', लक्ष्मीकांत
वर्मा, अज्ञेय व रघुवंश
आदि की 'नई समीक्षा' व समकालीन समय
में अशोक वाजपेयी आदि की 'भाववादी समीक्षा' प्रसिद्ध नामकरण
हैं। इसी प्रकार नाटक को 'समस्या नाटक' तथा 'विसंगत (Absurd) नाटक' आदि धाराओं में
बाँटा गया तथा शुक्लोत्तर निबंध 'ललित निबंध' तथा 'व्यंग्यात्मक निबंध' जैसी धाराओं में वर्गीकृत किया गया। यह अवश्य कहा जा सकता
है कि गद्य विधाओं में नामकरण अब प्रायः सुसंगत हो गए हैं।