हिंदी साहित्य का इतिहास : काल विभाजन, सीमा निर्धारण एवं नामकरण
काल विभाजन के कई आधार हो सकते हैं। यथा-
1. कर्ता के आधार पर प्रसाद युग, भारतेंदु युग, द्विवेदी युग ।
2. प्रवृत्ति के आधार पर -भक्तिकाल, संतकाव्य, सूफीकाव्य, रीतिकाल, छायावाद, प्रगतिवाद ।
3. विकासवादिता के आधार पर आदिकाल, आधुनिक काल, मध्यकाल
4. सामाजिक तथा सांस्कृतिक घटनाओं के आधार पर राष्ट्रीय धारा, स्वातंत्र्योत्तर काल, स्वच्छंदतावाद, आदि ।
इस संबंध में उल्लेखनीय बिंदु निम्नवत् हैं-
1. काल विभाजन साहित्यिक प्रवृत्तियों की समानता के आधार पर होना चाहिए।
2. कालों का नामकरण यथासंभव मूल चेतना (प्रधान प्रवृत्ति) को आधार बनाकर करना चाहिए।
3. युगों (कालों) का सीमांकन मूल प्रवृत्तियों के आरंभ और समापन के अनुसार होना चाहिए।
4. काल की मूल प्रवृत्ति का निर्धारण प्रमुख ग्रंथों के
आधार पर करना चाहिए।
हिंदी साहित्य का काल विभाजन
हिंदी के प्रमुख इतिहासकारों द्वारा किए गए काल विभाजन
1. गार्सा-द-तासी, शिवसिंह सेंगर ने काल विभाजन का कोई प्रयास नहीं किया।
2. ग्रियर्सन ने अपनी पुस्तक 'द माडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर आफ हिंदुस्तान' को ग्यारह अध्यायों में विभक्त किया है। प्रत्येक अध्याय एक काल खंड को व्यक्त करता है। इन्होंने लेखकों एवं कवियों का कालक्रमानुसार वर्गीकरण किया है।
इस काल विभाजन में वैज्ञानिकता का अभाव है तथा अध्यायों की संख्या अधिक होने से उसे कालविभाजन मानना उपयुक्त नहीं है।
मिश्रबंधुओं का काल विभाजन
3. मिश्रबंधुओं का काल विभाजन मिश्रबंधुओं ने अपनी पुस्तक 'मिश्रबंधु विनोद' (1913 ई.) में
निम्न काल विभाजन प्रस्तुत किया-
1. आरंभिक काल
(क) पूर्वारंभिक काल (700 1343 वि.)
(ख)
उत्तरारंभिक काल (1344 1444 वि.)
2. माध्यमिक काल
- पूर्व माध्यमिक काल 1445 -1560
- उत्तर माध्यमिक काल 1561 -1680
3. अलंकृत काल
- पूर्व अलंकृत 1681- 1790
- उतरा अलंकृत 1791 - 1889
4. परिवर्तन काल
- (क) (1890 1925 वि.)
- (ख) (1926 वि. से अब तक)
5. वर्तमान काल
मिश्रबंधुओं के काल विभाजन की त्रुटियाँ
1. कालखंडों के नामकरण में एक जैसी पद्धति नहीं अपनाई गई। आरंभिक, माध्यमिक, वर्तमान काल विकासवादिता के आधार पर हैं तो अलंकृत काल आंतरिक प्रवृत्ति के आधार पर।
2. इस काल विभाजन का कोई सुस्पष्ट आधार नहीं है।
3. हिंदी साहित्य के इतिहास का प्रारंभ 700 वि. (64 ई.) से मानकर हिंदी के अंतर्गत अपभ्रंश की रचनाओं को समेट लिया गया है। हिंदी साहित्य का प्रारंभ 1000 ई. के आसपास हुआ था।
4. परिवर्तन काल असंगत है तथा कालों की संख्या भी अधिक है।
इन्हीं न्यूनताओं को ध्यान में रखकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल
ने उक्त काल विभाजन पर व्यंग्य करते हुए लिखा है- "सारे रचना काल को केवल आदि, मध्य पूर्व, उत्तर, इत्यादि खंडों
में आँख मूंदकर बाँट देना - यह भी न देखना कि किस खंड के भीतर क्या आता है और क्या
नहीं किसी वृत्त संग्रह को इतिहास नहीं बना सकता।"
4. आचार्य रामचंद्र शुक्ल का काल विभाजन
आचार्य शुक्ल ने 'हिंदी साहित्य के इतिहास' -(1929 ई.) में निम्न काल विभाजन किया-
1. वीरगाथाकाल (संवत् 1050-1375 वि.)
2. भक्तिकाल (संवत् 1375-1700 वि . )
3. रीतिकाल (संवत् 1700-1900 वि.)
4. गद्यकाल (संवत् 1900-1984 वि . )
वस्तुतः शुक्लजी ने
अपने हिंदी साहित्य के इतिहास में दोहरा नामकरण करते हुए उसका प्रारूप निम्न
प्रकार से दिया है-
1. आदिकाल (वीरगाथाकाल) (1050-1375 )
2. पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल ) (1375-1700.)
3. उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल ) (1700-1900)
4. आधुनिक काल ( गद्य काल )
स्पष्ट है कि लोग जिसे आदिकाल कहते हैं शुक्लजी उस काल में 'वीरता' की प्रवृत्ति को प्रधान मानकर उसका नाम वीरगाथाकाल रखना चाहते हैं। इसी प्रकार पूर्व मध्यकाल को भक्तिकाल, उत्तर मध्यकाल को रीतिकाल तथा आधुनिक काल को वे गद्यकाल कहे जाने के पक्ष में है। उनके अनुसार वीरगाथाकाल में वीरता की. भक्तिकाल में भक्ति की रीतिकाल में रीतितत्व निरूपण की और आधुनिक काल में गद्य की प्रधानता है, इसलिए . प्रधान प्रवृत्ति के आधार पर ही इन कालखंडों का नामकरण करना उचित है।
शुक्ल जी काल विभाजन पद्धति के दो आधार हैं-
1. प्रधान प्रवृत्ति,
2 ग्रंथों की
प्रसिद्धि।
जिस कालखंड में एक विशेष ढंग की रचनाएँ अधिक मिलीं उसे एक
अलग कालखंड माना गया और रचनाओं की प्रचुरता के आधार पर प्रधान प्रवृत्ति का
निर्धारण कर लिया गया। प्रधान प्रवृत्ति के लिए लोक प्रसिद्ध ग्रंथों को ही आधार
बनाया गया है।
शुक्लजी के काल विभाजन में सर्वाधिक आपत्ति विद्वानों को वीरगाथाकाल नाम पर है। इस काल की अधिकांश सामग्री आधारहीन एवं अप्रामाणिक है। अतः उसके आधार पर प्रधान प्रवृत्ति का निर्धारण नहीं हो सकता। कुछ आलोचकों ने इस नाम को अनुचित बताकर इसे आदिकाल कहना ही उपयुक्त माना है। एक प्रवृत्ति को प्रधानता देकर शेष को गौण मान लेने का दृष्टिकोण भी कुछ लोगों के मत से एकांगी है जो इतिहास की अधूरी एवं एक पक्षीय व्याख्या करता है जिसे वैज्ञानिक नहीं कह सकते। फिर भी यह कहना उचित है कि शुक्लजी की काल विभाजन पद्धति का आधार तर्कसंगत एवं पुष्ट है। उनका
काल विभाजन सरल एवं सुस्पष्ट है। अधिकतर परवर्ती इतिहासकारों ने उसी का आधार ग्रहण किया है।
5. डॉ. रामकुमार वर्मा का काल विभाजन
डॉ. रामकुमार वर्मा ने अपने इतिहास ग्रंथ 'हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास (1938 ई.) में निम्न प्रकार काल विभाजन किया-
1. संधिकाल (750 वि. 1000 )
2. चारणकाल (1000 वि. 1375 )
3. भक्तिकाल ( 1375 वि. 1700 )
4. रीतिकाल (1700 वि. 1900 वि . )
5. आधुनिक काल (1900 वि. अब तक)
संधिकाल में उन्होंने अपभ्रंश की रचनाएँ समाविष्ट की हैं।
चारणकाल और शुक्लजी के वीरगाथाकाल में कोई मौलिक अंतर नहीं है। वीरगाथाओं के
रचयिता चारण कहलाते थे। शुक्लजी ने नामकरण रचना की प्रवृत्ति के आधार पर किया जबकि
डॉ. वर्मा ने रचनाकार के आधार पर किया ।
6. डॉ. गणपति चंद्र गुप्त का काल विभाजन
डॉ. गणपति चंद्र गुप्त का काल विभाजन इन्होंने 'हिंदी साहित्य का
वैज्ञानिक इतिहास' (1965 ई.) में निम्न काल विभाजन किया-
1. प्रारंभिक काल (1184-1350 ई.)
2. मध्यकाल 1. पूर्व मध्यकाल ( 1350-1500 ई.)
2. उत्तर मध्यकाल (1500-1857)
3. आधुनिक काल (1857-1965 ई.)
डॉ. गणपति चंद्र गुप्त का यह भी मत है कि हिंदी के
प्रारंभिक काल एवं मध्यकाल में तीन प्रकार का काव्य मिलता है- (i) धर्माश्रित काव्य, (ii) राज्याश्रित
काव्य, (iii) लोकाश्रित काव्य । विभिन्न काल खंडों में विकसित काव्य
परंपराओं का विवरण डॉ. गुप्त ने इस प्रकार दिया है-
1. प्रारंभिक काल (धर्माश्रित काव्य)
- 1. धार्मिक रास काव्य परंपरा
- 2. संत काव्य परंपरा
2. मध्यकाल (धर्माश्रित काव्य)
1. संत काव्य परंपरा
2. पौराणिक गीति परंपरा
3. पौराणिक प्रबंध काव्य परंपरा
4. रसिक भक्ति काव्य परंपरा
1. मैथिली गीति परंपरा
2. ऐतिहासिक रास काव्य परंपरा
3. ऐतिहासिक चरित काव्य परंपरा
4. ऐतिहासिक मुक्तक काव्य परंपरा (
5. शास्त्रीय मुक्तक परंपरा (लोकाश्रित काव्य)
- 1. रोमांसिक कथा काव्य परंपरा
- 2. स्वच्छंद प्रेम काव्य परंपरा