आदिकालीन नाथ साहित्य परंपरा
आदिकालीन नाथ साहित्य परंपरा
➽ सिद्धों की वाममार्गी भोगप्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग-साधना आरंभ हुई। राहुल जी ने नाथ पंथ को सिद्धों की परंपरा का ही विकसित रूप माना है। इस पंथ को चलाने वाले मत्स्येंद्रनाथ (मछंदरनाथ) तथा गोरखनाथ माने गए हैं। डॉ. रामकुमार वर्मा ने नाथ पंथ के चरमोत्कर्ष का समय बारहवीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी के अंत तक माना है। उनका मत है कि नाथ पंथ से ही भक्तिकाल के संत मत का विकास हुआ था, जिसके प्रथम कवि कबीर थे। इस मंतव्य का समर्थन कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टियों से हो जाता है - नाथपंथी रचनाओं की अनेक विशेषताएँ संत काव्य में यथावत् विद्यमान हैं।
➽ डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार, "नाथ पंथ या नाथ संप्रदाय के सिद्ध-मत, सिद्ध-मार्ग, योग-मार्ग, योग-संप्रदाय, अवधूत-मत एवं अवधूत संप्रदाय नाम भी प्रसिद्ध हैं।" उनके इस कथन का यह अर्थ नहीं कि सिद्ध-मत और नाथ - मत एक ही हैं। उन्होंने तो नाम ख्याति की ओर ध्यान आकर्षित किया है, जिसका आशय इतना ही है कि इन दोनों मार्गों को एक ही नाम से पुकारा जाता था और उसका कारण यह था कि मत्स्येंद्रनाथ (मछंदरनाथ) तथा गोरक्षनाथ (गोरखनाथ) सिद्धों में भी गिने जाते थे। यह प्रसिद्ध है कि मत्स्येंद्रनाथ नारी- साहचर्य के आचार में जा फंसे थे; जिससे उनके शिष्य गोरखनाथ ने उद्धार किया था । वस्तुतः इस लोक चर्चा के मूल में ही सिद्ध-मत एवं नाथ- मत का अंतर छिपा हुआ है। सिद्ध गण नारी-भोग में विश्वास करते थे, किंतु नाथपंथी उसके विरोधी थे। सिद्धों की रचनाओं पर पीछे विचार किया जा चुका है। यहाँ हम नाथ-साहित्य पर संक्षेप में प्रकाश डालेंगे।
गोरखनाथ
➽ गोरखनाथ नाथ-साहित्य के आरंभकर्ता माने जाते हैं। वे सिद्ध मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य थे। किंतु उन्होंने - सिद्धों के मार्ग का विरोध किया था। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं शिव थे। उनके पश्चात् मत्स्येंद्रनाथ हुए। जिनके आचरण का विरोध उनके शिष्य गोरखनाथ ने किया। राहुल सांकृत्यायन ने गोरखनाथ का समय 845 ई. माना है। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी उन्हें नवीं शती का मानते हैं, आचार्य रामचंद्र शुक्ल तेरहवीं शती का बतलाते हैं। डॉ. पीतांबर दत्त बड़थ्वाल ग्यारहवीं शती का मानते हैं तथा डॉ. रामकुमार वर्मा शुक्ल जी के मत से सहमत है। नवीन खोजों के अनुसार यही धारणा अधिक प्रबल हुई है कि गोरखनाथ ने ईसा की तेरहवीं शती के आरंभ में अपना साहित्य लिखा था। उनके ग्रंथों की संख्या चालीस मानी जाती है। किंतु डॉ. बड़थ्वाल ने केवल चौदह रचनाएँ ही उनके द्वारा रचित मानी हैं, जिनके नाम हैं-सबंदी, पद, प्राण संकली, सिष्यादरसन नरव बोध, अभैमात्रा, जोग, आतम-बोध, पंद्रह तिथि सप्तवार, मछींद्र गोरखबोध रोमावली ग्यानतिलक, ग्यानचौंतीसा एवं पंचमात्रा। डॉ. बड़थ्वाल ने 'गौरखबानी' नाम से उनकी रचनाओं का एक संकलन भी संपादित किया है, जिसकी कई रचनाएँ साहित्य की सीमा में आती है।
➽ गोरखनाथ से पहले अनेक संप्रदाय थे, जिन सबका उनके नाथ पंथ में विलय हो गया था। शैव एवं शाक्त के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योगमार्गी भी उनके संप्रदाय में आ मिले थे। गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं में गुरु- महत्मा, इंद्रिय - निग्रह, प्राण-साधना, वैराग्य, मनःसाधना, कुंडलिनी जागरण, शून्य-समाधि आदि का वर्णन किया है। इन विषयों में नीति और साधना की व्यापकता मिलती हैं। यही कारण है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इन रचनाओं को साहित्य में सम्मिलित नहीं किया था। किंतु डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी इस पक्ष में नहीं हैं। पूर्वोक्त विषयों के साथ जीवन की अनुभूतियों का सघन चित्रण होने के कारण इन रचनाओं को साहित्य में सम्मिलित करना ही उचित है। इसी साहित्य का विकास भक्तिकाल में ज्ञानमार्गी संत काव्य के रूप में हुआ। अतः उसकी साहित्यिकता स्वीकार करना ही अधिक न्यायसंगत है।
➽ गोरखनाथ ने हठयोग का उपदेश दिया था। हठयोगियों के 'सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति' ग्रंथ के अनुसार 'ह' का अर्थ है सूर्य तथा 'ठ' का अर्थ है चंद्र। इन दोनों के योग को ही 'हठयोग' कहते हैं। गोरखनाथ ने ही षट्चक्रोंवाला योग-मार्ग हिंदी साहित्य में चलाया था। इस मार्ग में विश्वास करनेवाला हठयोगी साधना द्वारा शरीर और मन को शुद्ध करके शून्य में समाधि लगाता था और वहीं ब्रह्म का साक्षात्कार करता था। गोरखनाथ ने लिखा है कि धीर वह है, जिसका चित्त विकार साधन होने पर भी विकृत नहीं होता-
नौ लख पातरि आगे नाचैं, पीछे सहज अखाड़ा।
ऐसे मन लै जोगी खेलै, तब अंतरि बसै भंडारा ।।
मूर्त जगत् में अमूर्त के स्पर्श को व्यक्त करते हुए वे कहते हैं-
अंजन माहि निरंजन भेट्या, तिल मुख भेट्या तेल
मूरति माह अमूरति परस्या, भया निरंतरि खेल ||
➽ गोरखनाथ की कविताओं से स्पष्ट है कि भक्तिकालीन संत-मार्ग के भावपक्ष पर ही उनका प्रभाव नहीं पड़ा, भाषा और छंद भी प्रभावित हुए हैं। इस प्रकार उनकी रचनाओं में हमें आदिकाल की वह शक्ति छिपी मिलती है, जिसने भक्तिकाल की कई प्रवृत्तियों को जन्म दिया।
नाथ-साहित्य के अन्य कवि-
➽ नाथ-साहित्य के विकास में जिन अन्य कवियों ने योग दिया, उनमें चौरंगीनाथ, गोपीचंद, चुणकरनाथ, मरथरी, जलंध्रीपाव आदि प्रसिद्ध हैं। इन कवियों की रचनाओं में उपदेशात्मकता तथा खंडन-मंडन का प्राधान्य है। तेरहवीं शती में इन सबने अपनी वाणी का प्रचार किया था। ये सभी हठयोगी प्रायः गोरखनाथ के भावों का अनुकरण करते थे, अतः इनकी रचनाओं में कोई उल्लेखनीय विशेषता नहीं मिलती । गोरखनाथ की ही हठयोग साधना में ईश्वरवाद व्याप्त था। इन हठयोगियों ने भी उसका प्रचार किया, जो रहस्यवाद के रूप में प्रतिफलित हुआ और जिसका भक्तिकाल में कबीर आदि ने अनुकरण किया।