आदिकालीन जैन साहित्य परंपरा
आदिकालीन जैन साहित्य परंपरा
➽ जिस प्रकार हिंदी के पूर्वी क्षेत्र में सिद्धों ने बौद्ध धर्म के वज्रयान मत का प्रचार हिंदी कविता के माध्यम से किया, उसी प्रकार पश्चिमी क्षेत्र में जैन साधुओं ने भी अपने मत का प्रचार हिंदी कविता के माध्यम से किया। इन कवियों की रचनाएँ आचार, रास, फागु, चरित आदि विभिन्न शैलियों में मिलती हैं। आचार- शैली के जैन - काव्यों में घटनाओं के स्थान पर उपदेशात्मकता को प्रधानता दी गई है। फागु और चरित-काव्य शैली की समानता के लिए प्रसिद्ध है। 'रस' शब्द संस्कृत साहित्य में क्रीड़ा और नृत्य से संबंधित था। भरत मुनि ने इसे 'क्रीडनीयक' कहा है। वात्स्यायन के 'कामसूत्र' के रचना काल तक 'रास' में गायन का भी समावेश हो गया था। अभिनवगुप्त ने 'रास' को एक प्रकार का रूपक माना है। लोक-जीवन में श्री कृष्ण की लीलाओं के लिए 'रास' शब्द रूढ़ हो गया था और आज भी सामान्य जनता उसी अर्थ में इसका प्रयोग करती है। जैन साधुओं ने रास को एक
➽ प्रभावशाली रचना-शैली का रूप दिया। जैन तीर्थकरों के जीवन चरित तथा वैष्णव अवतारों की कथाएँ जैन- आदर्शों के आवरण में 'रास' नाम से पद्यबद्ध की गई। जैन मंदिरों में श्रावक लोग रात्रि के समय ताल देकर "रास' का गयान करते थे। चौदहवीं शताब्दी तक इस पद्धति का प्रचार रहा। अतः जैन साहित्य का सबसे अधिक लोकप्रिय रूप 'रास' ग्रंथ बन गए। वीर गाथाओं में 'रास' को ही 'रासो' कहा गया है, किंतु उनकी विषय- भूमि जैन रास- ग्रंथों से भिन्न हो गई है।
पूर्वोक्त प्रमुख शैलियों में लिखित आदिकालीन हिंदी - जैन- साहित्य का संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत किया जाता है-
श्रावकाचार -
➽ देवसेन नामक प्रसिद्ध आचार्य ने 933 ई. में इस काव्य की रचना की थी। ये एक अच्छे कवि तथा उच्च कोटि के चिंतक थे। इन्होंने अपभ्रंश में भी 'दब्ब सहाव पयास' नामक काव्य लिखा था। हिंदी में लिखित इनकी अन्य रचनाएँ 'लघुनयचक्र' तथा 'दर्शनसार' हैं, जो काव्य की सीमा में नहीं आतीं। 'श्रावकाचार' में 250 दोहों में श्रावक-धर्म का प्रतिपादन किया गया है। कवि ने गृहस्थ के कर्त्तव्यों पर भी विस्तार से विचार किया। है। इसकी रचना दोहा छंद में हुई है। एक उदाहरण इस प्रकार है-
जो जिण सासण भाषियड, सो मइ कहिमउ सारु ।
जो पालइ सइ भाउ करि, सो सरि पावइ पारु ।।
भरतेश्वर बाहुबली रास-
➽ मुनि जिनविजय ने इस ग्रंथ को जैन साहित्य की रास परंपरा का प्रथम ग्रंथ माना है। इसकी रचना 1184 ई. में शालिभद्र सूरि ने की थी । ये अपने समय के प्रसिद्ध जैन आचार्य तथा अच्छे कवि थे। इस ग्रंथ में भरतेश्वर तथा बाहुबली का चरित वर्णन है। ये दोनों चरित नायक संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश में भी काव्य-रचना का विषय रहे हैं। प्रस्तुत कृति में इनकी जो कथा वर्णित है, उसमें इन्हें अयोध्यावासी ऋषभ जिनेश्वर के यहाँ सुनंदा और सुमंगला से उत्पन्न बताया गया है। भरत आयु में बड़े थे एवं पराक्रमी भी अधिक थे। वे अयोध्या के राजा बनाए गए और बाहुबली को तक्षशिला का राज्य मिला। कवि ने दोनों राजाओं की वीरता, युद्धों आदि का विस्तार से वर्णन किया है, किंतु हिंसा और वीरता के पश्चात् विरक्ति और मोक्ष के भाव प्रतिपादित करना कवि का मुख्य लक्ष्य रहा है। अतः वीर और शृंगार रसों का निर्वेद में अंत हुआ है। २०५ छंदों में रचित यह एक सुंदर खंडकाव्य है। इसकी भाषा में नाटकीयता, उक्ति वैचित्र्य तथा रसात्मकता के सर्वत्र दर्शन - होते हैं। आगे की 'रास' या 'रासो' रचनाओं को इस ग्रंथ ने अनेक रूपों में प्रभावित किया है। इसकी कविता का एक उदाहरण यहाँ प्रस्तुत है-
बोलह बाहुबली बलवंत लोह खण्डि तड गरवी हत
चक्र सरीसउ चूनउ करिजं। सयलहं गोत्रह कुल सहरडं । ।
चंदनबालारास -
➽ यह पैंतीस छंदों का एक लघु खंडकाव्य है, जिसकी रचना 1200 ई. के लगभग आसगु नामक कवि ने जालौर में की थी। इसकी कथा - नायिका चंदनबाला चंपा नगरी के राजा दधिवाहन की पुत्री थी। एक बार कौशांबी के राजा शतानीक ने चंपा नगरी पर आक्रमण किया, जिसमें उसका सेनापति चंदनबाला का अपहरण कर ले गया और एक सेठ को बेच दिया। सेठ की स्त्री ने उसे अपार कष्ट दिया। चंदनबाला अपने सतीत्व पर अटल रहकर सब दुःख सहती रही और अंत में महावीर से दीक्षा लेकर मोक्ष को प्राप्त हुई। इस लघु कथानक पर आधारित यह जैन- रचना करुण रस की गंभीर व्यंजना करती है। भाव सौंदर्य के जितने चित्र इसके रचयिता ने अंकित किए हैं, सभी ने उसकी काव्य-निष्ठा व्यंजित है।
स्थूलभदरास
➽ 1209 ई. में रचित इस काव्य को जिनधर्मसूरि की कृति माना जाता है स्थलिप्रद और कोशा वेश्या के विषय में अन्य रचनाएँ भी मिलती है, किंतु इस कृति की सभी घटनाओं से उनका प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। अवांतर घटनाओं के माध्यम से लौहघट के रूप में स्थूलिभद्र का संयम चित्रित करके कवि ने काव्य को विशिष्ट बना दिया है। कोशा वेश्या के पास भोग लिप्त रहने वाले स्थूलभद्र को कवि ने जैन धर्म की दीक्षा लेने के बाद मोक्ष का अधिकारी सिद्ध किया है। काव्य की भाषा पर अपभ्रंश का प्रभाव अधिक है, फिर भी इसकी भाषा का मूल रूप हिंदी है। धार्मिक दृष्टि से प्रेरित होने पर भी इसका भाव-भूमि और अभिव्यंजना काव्यानुकूल है।
रोवंतगिरिरास -
➽ यह विजयसेन सूरि की काव्य-कृति है । 1231 ई. के लगभग लिखित इस काव्य में तीर्थंकर नेभिनाथ की प्रतिमा तथा रवतगिरि तीर्थ का वर्णन है। यात्रा तथा मूर्ति स्थापना की घटनाओं पर आधारित यह 'रास' वास्तुकलात्मक सौंदर्य का भी आकर्षण प्रस्तुत करता है। प्रकृति के रमणीक चित्र इस काव्य के भाव तथा कलापक्षों का शृंगार करते हैं। एक उदाहरण देखिए-
कोयल कलयलो मोर केकारओ
सम्मए महयर माहुर गुंजारो
जलद जाल बंबाले नीझरणि रमाउलू रेहइ,
उज्जल सिहरू अलि कज्जल सामलु ॥
नेमिनाथरास -
➽ इस काव्य की रचना सुमति गणि ने 1213 ई. में की थी। अट्ठावन छंदों की इस रचना में कवि ने नेमिनाथ का चरित्र सरस शैली में प्रस्तुत किया है। नेमितनाथ के प्रसंग में श्रीकृष्ण का वर्णन इस काव्य का विषय है और इन दोनों के माध्यम से विभिन्न भावों की व्यंजना हुई है। रचना की भाषा अपभ्रंश से प्रभावित राजस्थानी हिंदी है।