भारत में योजना की रणनीति (Development Strategies in India)
भारत में योजना की रणनीति प्रस्तावना ( Introduction )
भारत में आर्थिक
नियोजन की प्रक्रिया प्रथम पंचवर्षीय योजना के साथ अप्रैल, 1951 को प्रारम्भ
हुई। वैसे उससे पहले ही देश में योजना के मार्ग को अपनाने की बातें विभिन्न
व्यक्तियों तथा संस्थाओं द्वारा सोची जा रही थी। सबसे पहले श्री एम.
विश्वेश्वररैया ने सन् 1934 में 'लांड इकॉनमी फॉर इण्डिया (Planned
Economy for India) नामक पुस्तक में योजना की प्रमुख रूपरेखा रखी थी। बाद में
सन् 1938 में श्री जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में नेशनल प्लानिंग कमेटी की
नियुक्ति की गई जिसमें देश के आर्थिक विकास के लिए योजना का एक मसौदा तैयार किया
गया।
भारत में
योजना (Planning in India)
1947 के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था में राज्य की प्रमुख भूमिका निर्धारित की गयी। स्वतंत्रता के पूर्व भी स्वतंत्र भारत के लिए कई योजना बनायी गयी थी। गांधीयन योजना में राज्य की भूमिका बहुत सीमित, इसमें विकन्द्रीकृत योजना की सकल्पना, ग्रामीण क्षेत्रों पर मुख्य बल, लघु उद्योगों को प्राथमिकता, शेष सभी योजना में राज्य को महत्वपूर्ण भूमिका, औद्योगिकरण को प्राथमिकता, गांधीवादियों को छोड़ इसमें सभी लोगों में आम सहमति थी। Bombay Plan निजी क्षेत्र को व्यापक स्वतंत्रता की मांग, जबकि People Plan में निजी क्षेत्र में अकुंश पर बल । नेहरू पर समाजवादी विचारधारा का प्रभाव था। भारत की गरीबी और पिछड़ापन में समाजवादी सिद्धांतों का आकर्षण था। दूसरे महायुद्ध का अनुभव - इससे राज्य की आर्थिक भूमिका का तीव्र विस्तार - UK, USA में जबकि ये Classical पूंजीवादी देश थे।
इन सब अनुभवों को
लेकर भारत में स्वतंत्रता के बाद नियोजित आर्थिक विकास की नीति अपनायी गयी। नियोजन
- लोकतांत्रिक परिप्रेक्ष्य में अपनाया गया। एक आर्थिक और सामाजिक क्रांति का
लक्ष्य था। इसी ढांचे (Frame work) के अन्तर्गत भारतीय
अर्थव्यवस्था का विकास हुआ और मिश्रित अर्थव्यवस्था को आधार बनाया गया। जिसमें
निजी क्षेत्र को भी पर्याप्त महत्व दिया गया। इसमे परिवर्तन भी हुए, 60-70 के दशक में, विशेषकर 80 के
दशक (6वीं व 7वीं योजना) में काफी परिवर्तन, लेकिन आधारभूत
दृष्टिकोण में कोई बदलाव नहीं। परिस्थितियों, समस्याओं तथा
आंतरिक एवं बाह्य दबावों के कारण कुछ परिवर्तन करने की आवश्यकता महसूस की गई और
परिवर्तन की भी गई। जिसे 80 के दशक में इन परिवर्तनों को उदारीकरण कहा गया।
1991 में भारतीय
अर्थव्यवस्था में व्यापक परिवर्तन हुए। 1990-91 के आर्थिक संकट के कारण
अर्थव्यवस्था में आधारभूत (Fundamental Change) किये गये और इसे
संरचनात्मक परिवर्तन (Structural change ) कहा गया और
भारतीय अर्थव्यवस्था की पूरी दिशा बदल गयी। पुराने Model को Nehru-Mahalnovis
Development Model कहा जाता है, जबकि 91 के
परिवर्तन को राव-मनमोहन मॉडल कहा जाता है। इससे औद्योगिक नीति में बदलाव किया गया।
उस समय जनमानस परिवर्तन के पक्षधर नहीं थे इसलिए छद्म परिवर्तन किए गए।
आमतौर पर Economic
Reforms का मुद्दा राजनीतिक मुद्दा नहीं रहा है, जब कि भारतीय
अर्थव्यवस्था में व्यापक परिवर्तन किया गया। 2004 के आम चुनाव को इसका अपवाद माना
जा सकता है, जैसे India's Shining का मुद्दा । इन
सुधारों में State Market की सापेक्ष भूमिका में आधारभूत परिवर्तन और New
Industrial Policy में बाजारोन्मुख नीति को अपनाया गया। इस परिवर्तन के पीछे
राष्ट्रीय अनुभव, सवृद्धिदर का कम होना, आर्थिक संकट का
पैदा होना मुख्य कारण था। अंतर्राष्ट्रीय परिवर्तन USSR का Model विफल हो गया, जो प्रमुख
साम्यवादी देश थे उन्होंने अपनी नीति में परिवर्तन कर लिया विशेषतौर पर चीन, जिसको काफी सफलता
मिली। वियतनाम में भी परिवर्तन हुआ।
आर्थिक सुधार (Economic
Reforms) की जो प्रक्रिया 1991 से शुरू हुई इसमें काफी परिवर्तन हुये
है। कई क्षेत्रों में लाभ भी हुआ है। GDP में उछाल, भारतीय
अर्थव्यवस्था का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धात्मक बनाना। इसके बावजूद कुछ
समस्यायें बनी हुयी है। बहुत से लोगों का मानना है कि आर्थिक सुधार कार्यक्रम
अपूर्ण रहा है। शुरूआती दौर से तेज लेकिन बाद में धीमा, इस कारण भारत
अपनी पूरी क्षमता के अनुरूप प्रगति नहीं कर रहा है। दूसरी और यह तथ्य है कि आज भी
भारत में गरीबी बहुत व्यापक हैं। बहुत सारे लोगों का जीवन स्तर काफी निम्न, कुपोषण, निरक्षता, क्षेत्रीय
असमानता की समस्यायें भी गंभीर है।
इस दौरान कृषि
क्षेत्र सबसे कम लाभान्वित हुआ है। जबकि आज भी 60 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या कृषि
से जुड़ी हुई है जो संरचना आर नीतियों दोनों से जुड़ा है।
सुधार पर दो
विचार हैं-
1. सकारात्मक-
आर्थिक सुधार कार्यक्रमों को आगे बढ़ाना, जिससे इसका लाभ
समाज के सभी लोगों तक पहुंच पाये प्रधानमंत्री ने इसे Inclusive
Development कहा, अर्थात् जो समुदाय विकास के बाहर रहे हैं, उन्हें भी इसका
लाभ मिले। 11वीं योजना में यही उद्देश्य शमिल है।
2. नकारात्मक-
आर्थिक सुधार कार्यक्रम जनता के हित में नहीं, यही सभी समस्याओं
की जड़ है और इसको आगे बढ़ाने का बड़ा हिस्सा बाहर है। गरीबी की स्थिति में तो
सुधार हुआ है। लेकिन असमानता में इजाफा हुआ है, और कहा जा रहा है
कि दो तरह का भारत उभर कर आ रहा है, इण्डिया और भारत
।
योजना की रणनीति, मूल्यांकन एवं उद्देश्य
(Strategies, Evaluation and
Objectives of Planning)
पहली योजना -
तदर्थ प्रकार की योजना थी, इसके पीछे कोई निर्देशित रणनीति आरम्भिक दौर में नहीं था। द्वितीय योजना रणनीति योजना (Strategic Planning) की शुरूआत हुई और नेहरू - महालनोविस मॉडल इसका आधार था। माना गया कि आर्थिक समृद्धि में मुख्य भूमिका निवेश की है, निवेश के लिए मुख्य समस्या-पूंजीगत वस्तुओं की उपलब्धता, जो कि उस समय भारत में नहीं थी। पूंजीगत वस्तुओं की उपलब्धता बढ़ाने के लिए विदेशों से आयात की संभावना कम थी, कारण विदेशी मुद्रा की कमी निर्यात बढ़ाने की भी संभावना थी। इसी कारण योजनाकारों ने घरेलू क्षेत्र में पूंजीगत वस्तुओं के उत्पादन पर बल दिया। माना गया कि इसी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निवेश करके भारत सवृद्धि दर को बढ़ा सकता है तथा सतत् विकास के रास्ते पर चल सकता है। इनमें निवेश के लिए काफी पूंजी की आवश्यकता तथा उच्च तकनीक की भी आवश्यकता थी, परियोजनाएं लंबी थी. इन्हीं कारणों से ऐसे क्षेत्रों में निजी ईकाइयां निवेश के इच्छुक नहीं थी। वह तीव्र मुनाफा चाहती हैं, इसलिए सार्वजनिक ईकाइयों को मुख्य भूमिका निभानी पड़ी राजनीतिक दृष्टिकोण से भी यही निष्कर्ष निकला। 1955 में समाजवादी प्रकार का समाज (Socialistic Pattern of Society) को कांग्रेस पार्टी ने अपना राष्ट्रीय लक्ष्य स्वीकार किया तथा बाद में संसद भी स्वीकार की। सार्वजनिक क्षेत्र की ईकाइयों को इसी से समर्थन मिला और 1956 की औद्योगिक नीति इसी पर आधारित है। यही नीति 1991 तक भारत के आर्थिक विकास का आधार रही।
औद्योगिक नीति - 1956 में उद्योगों को दो श्रेणियों में बांटा गया, बचे हुए अन्य श्रेणी में-
1. Public Sector को Exclusive Status दिया गया।
(क) सार्वजनिक इकाइयों के लिए आरक्षित,
(ख) जो पहले से
कार्यरत थे निजी क्षेत्र के Plant उनमें रोक नहीं।
2. मुख्य भूमिका सार्वजनिक ईकाइयों परंतु अनुपूरक (Complementry ) भूमिका निजी इकाइयों की Mixed Economy.
3. अन्य क्षेत्रों में निजी ईकाइयां प्रवेश करने के लिए
स्वतंत्र थी।
नियोजन की रणनीति में विभिन्न क्षेत्रों के लिए संख्यात्मक लक्ष्यों का निर्धारण Multi Sectoral Planning Model के आधार पर किया गया। यह नेहरू महालनोविस मॉडल पर आधारित है। इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सरकार द्वारा एक तो प्रत्यक्ष निवेश, सार्वजनिक इकाइयों की स्थापना करना, उनके लिए धनराशि की व्यवस्था करना, साथ में विभिन्न प्रकार के केन्द्रीय नियंत्रण (Central Instruments) का उपयोग की ताकि निजी ईकाइयों पर नियंत्रण रखा जा सके और उनको भी नियोजन के लक्ष्यों से जोड़ा जा सके। केन्द्रीय उपायों में सबसे महत्वपूर्ण Industrial Development Regulation (IDR) Act. के अन्तर्गत औद्योगिक लाइसेंसिंग, इसके अलावा अन्य माध्यम जैसे वित्तीय क्षेत्र पर नियंत्रण जिसके माध्यम से पूंजी की उपलब्धता को नियंत्रित किया जाता है। विदेश व्यापार पर नियंत्रण जिसके माध्यम से पूंजी की उपलब्धता को नियंत्रित किया जाता है। विदेश व्यापार पर नियंत्रण वहां कि लाइसेंसिंग नीति तथा सार्वजनिक वित्त के औजारों के माध्यम से किया जाता है।
लक्ष्य
नियोजन के
आधारभूत लक्ष्य माने गये तीव्र आर्थिक समृद्धि, विशेषतौर पर
सामाजिक व्यय का लक्ष्य गरीबी उन्मूलन एवं विभिन्न क्षेत्रों के बीच विषमताओं को
कम करना तथा आम लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाना है।
आत्मनिर्भरता प्राप्त करना
(क) नकारात्मक
पहलू यह है कि यह हमारी आत्मनिर्भरता को कम करता है,
(ख) आत्मनिर्भरता
का सकारात्मक मतलब है-विदेशी रियायती सहायता पर निर्भर न रहना, क्योंकि खाद्य
सहायता (PL-480) पर भारत की निर्भरता बहुत बढ़ गयी थी। अमेरिका ने बुरी
तरह शर्तें लगायी। इसी का परिणाम था हरित क्रांति के रूप में आत्म निर्भरता
प्राप्त करने की कोशिश की गई।
अन्य देशों के साथ सम्पर्क कम से कम करना, अपनी क्षमता, शर्तों पर विकास करने की कोशिश, विदेशी व्यापार भी न्यूनतम करना । इसी संदर्भ में रणनीति का एक और भाग आयात प्रतिस्थापन ( Import Substitution) की नीति थी। अपने देश में जरूरी चीजों, मशीनरी का उत्पादन। बाद में इसे एक गंभीर कमजोरी माना गया आर्थिक उदारीकरण मे इस दृष्टिकोण को पूर्णत: छोड़ दिया गया।
रणनीति का मूल्यांकन
लक्ष्यों के प्राप्ति के दृष्टिकोण से रणनीति काफी हद तक विफल रही जैसे- तृतीय योजना में 5.6 प्रतिशत के लक्ष्य के स्थान पर 2.7 प्रतिशत की प्राप्ति हुई ।।
यहां पर लक्ष्य
से उपलब्धियां काफी कम रही. यहां ऐसे कारकों का प्रभाव भी था कि व्ययों पर
नियोजकों का नियंत्रण नहीं था। 1962 में भारत-चीन युद्ध, 1965 में
भारत-पाक युद्ध, मौसम का प्रतिकूल असर, इसके अलावा
रणनीतिक विफलता भी थी, इस कारण निवेश की मात्रा बढ़ाने पर बल दिया
गया।
भारत में
प्रतिव्यक्ति आय कम जबकि बचत दर ऊंची इसका कारण आय का असमान वितरण सम्पन्न वर्ग के
पास बचत की काफी क्षमता। इसीलिए निम्न आय के बावजूद बचत दर अपेक्षाकृत ज्यादा था।
दूसरी और निवेश दर काफी होने के बाद भी सवृद्धि दर कम थी, कारण व्यापक
आर्थिक नियंत्रणों का लगातार जारी रहना, जिससे
अर्थव्यवस्था की कार्यकुशलता में गिरावट आयी। जिससे उत्पादन का स्तर निची रही
तकनीक का चययन भी निम्नस्तरीय रहा तथा आर्थिक नीतियों के कारण प्रतिस्पर्धा पर
प्रतिकूल असर जिससे समृद्धि कम रही। यही कारण था कि भारत में ऊंचे निवेश के बाद भी
समृद्धि दर काफी कम रहा ।
इसी करण आर्थिक
नीतियों में मुख्यतः 80 के दशक से ये परिवर्तन किये गये जिससे दक्षिण पूर्व एशिया
के अनुभव का प्रभाव भी भारत पर पड़ा। ये देश भारत से काफी पिछड़े थे, 90 के दशक में ये
भारत से काफी आगे पहुंच गये। दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में जो दृष्टिकोण अपनाया
गया था। वह बाह्य उन्मुख था जबकि भारत की नीति अन्तरोन्मुख थो।
नीतिगत
परिवर्तनों में निजी क्षेत्र को थोड़ी अधिक लचीलापन प्रदान किया गया। इसके लिए कई
तरह के कदम उठाये गये जैसे - MRTP Act. के नियंत्रणों
में कुछ छूट देना । निर्यातकों के लिए आयातों के मामलें में भी छूट दी गई। साथ में
मुद्रा विनिमय दर के प्रबंधन में भी सुधार किया गया। ऐसे कदमों से 80 के दशक में
काफी सुधार हुआ। 6वीं एवं 7वीं योजनाओं के दौरान सवृद्धि दर में काफी इजाफा हुआ।
लेकिन इस दौरान कुछ समस्यायें भी पैदा हुई जैसे सरकार के वित्तीय घाटों की स्थिति
बहुत तेजी से बढ़ी (RD, FD) निर्यात में वृद्धि धीमीं
जब कि अल्पकालिक विदेशी वाणिज्यिक ऋणों पर भारत की निर्भरता काफी तेजी से बढ़ी, जिससे 1990-91 का
मौद्रिक संकट पैदा हुआ।
भारत का विदेशी
मुद्रा आरक्षित कोष बहुत कम हो गया और विदेशी दायित्वों के पुनर्भुगतान पर
प्रश्नचिन्ह लग गया। इसका तात्कालिक मुख्य कारण अन्तर्राष्ट्रीय तेल संकट था, यद्यपि यह
अल्पकालिक था, जब दीर्घकालिक कारण पहले नातियाँ थी। इस दौरान अर्थव्यवस्था
में अन्तर्राष्ट्रीय विश्वास खत्म हो गया और विदेशी प्रवाहों की दिशा उल्टी हो
गयी। और भारत की क्षमता 6 दिन के आयात के बराबर बची थी।
अन्तर्राष्ट्रीय ऋणों के लिए वाणिज्यिक स्रोतों से IMF / WB से सहायता ली गयी। बिना गिरवी के ऋण देने की कोई तैयार नहीं था। इसी संकट से व्यापक आर्थिक सुधारों की नींव रखी गयी। यही सुधारों का तात्कालिक कारण था IMF / WB का दबाव था, भारत के नेताओं, अर्थशास्त्रियों में भारत की आर्थिक कमजोरी की समझ पैदा होना तथा कुछ हद तक यह सहमति बनना कि बिना सुधारों के अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ नहीं किया जा सकता है और आर्थिक विकास को प्राप्त नहीं किया जा सकता। आर्थिक संकट ने भारत को एक अवसर दिया अपनी आर्थिक नीतियों में सुधार करने का। राव मनमोहन मॉडल लाने का कारण यही था. इसमें मुख्य तत्व- निजी ईकाइयों की भूमिका पर ज्यादा निर्भरता, अर्थव्यवस्था को विदेशी निवेश और व्यापार के लिए खोलना, सरकार की भूमिका में परिवर्तन करना तथा विशेषतौर पर ऐसे क्षेत्रों पर ध्यान केन्द्रित करना जहाँ बाजार व्यवस्था सामान्यतः प्रभावी नहीं हुयी हो। जैसे-प्राथमिक शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य सेवायें, आधारिक संरचना आदि। बाजार व्यवस्था को आधार के तौर पर स्वीकार करना, ये माना गया कि बाजार व्यवस्था आर्थिक कुशलता और आर्थिक समृद्धि में निर्णायक भूमिका अदा करती है। लेकिन सरकार को बाजार व्यवस्था का विनियमन तथा प्रतिस्पर्धा बनाए रखने के लिए उचित कदम उठाना चाहिए। यह माना गया कि सरकार वृहद सार्वजनिक वित्त, सरकारी घाटों पर नियंत्रण के संदर्भ में सन्तुलन बनाये रखें और वितीय क्षेत्र की कार्य कुशलता में सुधार लायें।
उपरोक्त नीतिगत परिवर्तनों का नियोजन पर प्रभाव स्थायित्व लाने के लिए कदम
तात्कालिक कदम जो उठाये गये उन्हें स्थायित्व लाने वाला कदम कहा जाता है। इनका दीर्घकालिक महत्व नहीं है, जैसे - मुद्रा का अवमूल्यन आयातों को नियंत्रित करने में सहायता मिली, मौद्रिक कदम भी उठाये गये तथा मुद्रा आपूर्ति को नियंत्रित करने के लिए ब्याज दरों में वृद्धि की गयी।
संरचनात्मक सुधार द्वारा परिवर्तन (Change by Structural Reforms )
इनका दीर्घकालिक
महत्व है। औद्योगिक नीति 1956 भारतीय औद्योगिक नीति का आधार था। 1980 के दशक में
इसमें कुछ उदारीकरण किया गया। 1991 में नयी औद्योगिक नीति अपनायी गयी, जो एक व्यापक
बदलाव था, यह निम्न तरीके से किया गया।
निजी ईकाइयों को
लगभग पूरी स्वतंत्रता प्रदान करना और उन पर से नियंत्रणों को हटा देना। अधिकतर
क्षेत्रों में औद्योगिक लाइसेंसों की व्यवस्था खत्म कर देना तथा धीरे-धीरे बचे
हुये क्षेत्रों का भी Delicensing किया जाना । MRTP Act.
के अन्तर्गत
नियंत्रणों को खत्म करने की कोशिश, प्रतिस्पर्धा बनाये
रखना तथा एकाधिकार न स्थापित हो, इसके लिए कदम उठाये गये, लेकिन अन्य
प्रकार के नियंत्रण समाप्त किये गए। 1991 की औद्योगिक नीति में प्रवेश बाधा को
खत्म कर दिया गया | Small Scale Industry (SSI) के आरक्षण को
चरणबद्ध तरीके से खत्म करने के लिए कदम उठाये गये हैं।
सार्वजनिक
इकाइयों के सन्दर्भ में
सार्वजनिक
क्षेत्र (Public Sector ) के लिए आरक्षण प्रणाली को बहुत सीमित कर देना
और मुख्यतः सामरिक महत्व के क्षेत्रों तक और यह माना गया कि सार्वजनिक ईकाइयों को
भी प्रतिस्पर्धा का सामना करना चाहिए। सार्वजनिक ईकाइयों के कामकाज में सुधार की
भी आवश्यकता है।
विदेशी निवेश के
प्रति भारत का रवैया प्रारंभ से ही काफी नकारात्मक था। इसके सैद्धान्तिक राजनीतिक, ऐतिहासिक कारण
थे। इसमें 80 के दशक में थोड़ी ढील दी गयी, लेकिन 1991 की
नीति के द्वारा भारत ने अपने रवैये को पूर्णतः बदल दिया। कहा गया कि नकारात्मक
सूची (Negative list) को छोड़कर अन्य क्षेत्रों में विदेशी निवेश की अनुमति रहेगी
और यह निवेश सामान्यतः 51% तक हो सकेगा। इस प्रकार बहुमत और नियंत्रण का अधिकार
विदेशी निवेशकों को दिया गया, जब कि इसके पहले निवेश सीमा 40% थी। चुने हुए
मामलों में इससे अधिक अनुमति भी देने का निर्णय किया गया। अतः औद्योगिक नीति में
विदेशी निवेश के मामले में क्रान्तिकारी परिवर्तन किया गया। भारत अब विदेशी निवेश
को सकारात्मक और लाभदायक मानने लगा। इसके पीछे एक कारण चीन में 80 के दशक में
विदेशी पूंजी काफी बढ़ा और आर्थिक विकास भी हुआ।
1991 के पश्चात्
इसमें उदारीकरण किया गया है। जैसे लाइसेंस की आवश्यकता वाले क्षेत्रों में और कमी
की गयी है। अब केवल 5 क्षेत्रों में ही लाइसेंस की जरूरत है. मुख्यत: पर्यावरणिक
या खतरनाक उद्योगों के मामले में विदेशी निवेश के मामलें में भी नकारात्मक सूची (Negative
List) के दायरे को कम किया गया है और बहुत से क्षेत्रों में निवेश सीमा को बढ़ाकर
51% से 100% कर दिया गया है। लेकिन कुछ क्षेत्र विदेशी निवेश के दृष्टिकोण से अभी
भी विवादास्पद बने हुए हैं, और उनमें विशेष सीमाओं पर नियंत्रण है, जैसे- बीमा में
26%, परंतु अब इसे बढ़ाकर 49% करना चाहते हैं। 1991 के बाद
आर्थिक सुधार धीरे-धीरे हुये हैं, इसका कारण यह है कि यह मुद्दा Political
Economy से जुड़ा हुआ है। हमारे यहाँ जनसहभागिता पर आधारित मुद्दों
पर विवाद होते हैं। 1991 के बाद जो सरकारे रही है वे गठबंधन या बाह्य समर्थन पर
निर्भर थी, इसके फलस्वरूप आर्थिक सुधारों को लागू करने के लिए सहमति
बनाने की प्रक्रिया अक्सर धीमी थी। इसके कारण आर्थिक सुधारों से होने वाले लाभ भी
मंद रहा। मूलतः चीन और भारत में मुख्य अन्तर यही है कि वहां जो भी परिवर्तन हो रहे
हैं वे व्यापक तौर पर स्वीकार्य है तथा सोच समझकर हो रहे हैं।
नयी आर्थिक नीति का मिश्रित प्रभाव रहा है, तात्कालिक संकट तो हल हो गया और संकट से भारत ने सफलता पूर्वक निपट लिया। इसके कई कारण थे-कुछ आंतरिक कारण जैसे - मानसून की स्थिति का संतोषजनक न होना, आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया धीमी होना, राजनीतिक अस्थिरता का प्रभाव, साथ में ही इसी दौरान राजकोषीय स्थिति भी कमजोर हो गयी। वेतन आयोग की अनुशंसाओं के कार्यान्वयन से केन्द्र व राज्य की वित्तीय स्थिति के ऊपर भारी दबाव बना । बाह्य कारणों में मुख्यत: दक्षिण-पूर्व एशिया और अन्य क्षेत्रों के आर्थिक संकट के प्रभाव के कारण अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार, विदेशी निवेश पर प्रतिकूल असर, और 9वीं योजना के दौरान संवृद्धि दर 5.7% रह गयी। लेकिन आर्थिक सुधार की प्रक्रिया 2000 से फिर शुरू हुई और इसका असर 9 वीं योजना के अंत तथा दसवीं योजना में इसका प्रभाव दिखने लगा। 10वीं योजना में 7.8% तक संवृद्धि रही है। साथ ही निवेश दर में काफी सुधार हुआ है। निवेश 30 प्रतिशत के स्तर को पार कर गया है, लेकिन चीन और द. पू. एशिया के देशों से काफी कम है।