भारतीय पूँजीवादी वर्ग का विकास ( Development of Indian Capitalist Class)
भारतीय पूँजीवादी वर्ग का विकास ( Development of Indian Capitalist Class)
भारत के ब्रिटिश उपनिवेश बनने के बाद इसके व्यापार, वाणिज्य और उदार बैंकिग आदि ने अपने आपको " उपनिवेशिक आवश्यकताओं के अनुकूल बनाया तथा पुनः क्रियाशील होने और प्रगति की शुरूआत की। साहूकारों ने भूमि राजस्व, किराया और ब्याज आदि की अदायगी के लिए ऋण आदि को बढ़ावा दिया। किसानों ने अपने उत्पाद को बाजार में पूँजी के लिए बेचा जिससे वे ऋण की अदायगी तथा अन्य आवश्यकाताओं की संतुष्टि कर सकें। व्यापारियों ने दोहरी भूमिका निभानी शुरू कर दी। एक तरफ उन्होंने आयातित वस्तुओं को संपूर्ण देश में वितरित करने की जिम्मेदारी सँभाली तथा दूसरी ओर कृषि उत्पादों के ग्रामीण क्षेत्रों से संग्रहण और इनको शहरी क्षेत्रों में भेजने की प्रक्रिया को सँभाला। इस तरीके से इस वर्ग ने अपनी पूँजी को दुगुना किया, जिसका प्रयोग बाद में व्यापार और उद्योग को देश भर में प्रोत्साहन के लिए किया गया। इस अवधि के दौरान पारसी और गुजराती व्यापारियों ने अमेरिकी सिविल वार (American civil war) के कारण उत्पन्न आर्थिक परिस्थितियों से बड़ी मात्रा में लाभ अर्जित किया। इन व्यापारियों ने अपनी बचत को सूती मिलों में निवेशित किया। भारतीय पूँजीवादी उद्यम के विकास में निम्नलिखित घटनाओं ने योगदान दिया-
(i) स्वदेशी आंदोलन (1950-1908)
(ii) प्रथम विश्व युद्ध ( 1914 1919)
(iii) उद्योगों के लिए विभिन्न प्रकार की सुरक्षा
(iv) द्वितीय विश्व युद्ध ( 1939-1945 )
(i) स्वदेशी आंदोलन ( Swadeshi Movement) ( 1905-1908):
इस आंदोलन के अंतर्गत विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया गया, जिससे भारतीय वस्तुओं की माँग बढ़ी। इसने भारतीय उद्योगों की वृद्धि को प्रोत्साहन दिया। इस काल के दौरान सूती मिलों की संख्या जो 1904 में 206 थी 1908 में बढ़कर 227 हो गई। Tata iron & steel company, जमशेदपुर ( बिहार ) भी 1907 में स्थापित की गई। इसने 1911 में लोहा (iron) तथा 1918 में अयस्क (steel) को उत्पादित किया। इस घटना ने भारत को भारी उद्योगों के क्षेत्र में लाकर खड़ा कर दिया।
(ii) प्रथम विश्व युद्ध (First World War) ( 1914 1919 ):
यह युद्ध भारतीय उद्योगों के लिए वरदान की तरह सिद्ध हुआ, क्योंकि इसने वस्तुओं की कीमतों को बढ़ाया। जर्मनी से होने वाले आयात बंद हो गए। ब्रिटेन तथा भारत से संबंधित उसके सहयोगी देशों से होने वाले आयात में गिरावट आई, आयात कर ( Import Duty) में वृद्धि हुई। ब्रिटेन को किये जाने वाले कच्चे माल के निर्यात में भी गिरावट आई थी।
इस काल के दौरान मजदूरी दर समान रही। इस कारण भारतीय तथा यूरोपीय दोनों मिलों के मालिकों ने भारी लाभ कमाया। इस सब ने भारतीय उद्योगों को बढ़ावा दिया। युद्ध ने भी राजनैतिक जागरूकता को उत्साहित किया तथा जिसने औद्योगीकरण की गति को अधिक क्रियाशील किया।
(iii) उद्योगों के लिए विभिन्न प्रकार की सुरक्षा (Discriminating Protection for Industries):
युद्ध के अंत में, विदेशी प्रतियोगिता का पुनरुत्थान तथा युद्ध के उद्देश्यों के लिए वस्तुओं की बढ़ी हुई माँग खत्म हो गई। भारतीय उद्योगों के लिए अनुचित प्रतियोगिता के सामने खड़े रहना अत्यंत मुश्किल हो गया। इससे भारतीय उद्योगों को राज्य संरक्षण की आवश्यकता हुई। युद्ध के बाद ब्रिटिश सरकार के व्यवहार में भी परिवर्तन हुआ था। भारत के औद्योगिक विकास के लिए मुक्त व्यापार की नीति को त्याग दिया गया। उन्होंने प्रथम वित्तीय कमीशन की माँग को स्वीकार कर लिया तथा उद्योगों के लिए विभिन्न संरक्षण की नीति को अपनाया। उद्योगों को स्वीकृति प्रदान करने के लिए योग्यता सिद्ध करने वाले मापदंड निम्नलिखित थे-
(a) प्राकृतिक लाभों का स्वामित्व (Possession of natural advantages) –
इसके अंतर्गत पर्याप्त कच्चे माल की पूर्ति शक्ति श्रम तथा आंतरिक बाजार को शामिल किया जाता था ।
(b) विकास के लिए संरक्षण की आवश्यकता (Protection essential for development) -
संरक्षण केवल उन उद्योगों को प्रदान किया जाता था जो विकास कर ही नहीं सकते थे या संरक्षण के बिना तीव्र दरों पर विकास नहीं कर सकते थे।
(c) प्रतियोगात्मक शक्ति (Competitive strength) -
उद्योगों को विश्व प्रतियोगिता का सामना करने की क्षमता की योग्यता रखना आवश्यक था।
यद्यपि ये तीनों समीकरण अत्यंत अविवेकपूर्ण थे परंतु इसके व्यवहारिक उपयोग की व्याख्या तथा इसकी कठोर और असहानुभूतिपूर्ण प्रवृत्ति के कारण इसकी उपयोगिता में कमी आई। इस नीति के आधार पर Iron and steel industry (1924), Tin plate industry (1924), Paper industry (1925), Cotton Textile industry (1930) और Sugar industry (1932) को संरक्षण प्रदान किया गया। संरक्षण के कारण चीनी उद्योग में विकास हुआ। चीनी मिलों की संख्या जो 1930-31 में 29 थी, 1936-37 में बढ़कर 140 हो गई। इस काल के दौरान Cotton Textile में 2.5 गुना की वृद्धि तथा तैयार इस्पात में 8 गुना की वृद्धि हुई ।
(iv) द्वितीय विश्व युद्ध (Second World War) ( 1939-1945 )
द्वितीय विश्व युद्ध भी भारतीय औद्योगिक विकास के लिए वरदान सिद्ध हुआ । जर्मनी तथा जापान से होने वाले आयात बंद हो गये तथा दूसरे देशों से भी होने वाले आयातों में गिरावट आई। भारतीय वस्तुओं की माँग देश तथा विदेश दोनों में बढ़ गई। इन समस्त कारकों ने औद्योगिकरण की गति को निश्चय ही बढ़ाया। भारतीय उद्योगां के लिए द्वितीय विश्व युद्ध के योगदान को निम्नलिखित रूप से संक्षेप में देखा जा सकता है-
(a) Joint Stock Companies की संख्या में वृद्धि ।
(b) बड़े औद्योगिक स्थलों का विकास
(c) आर्थिक शक्ति का केंद्रीकरण
(d) हथकरघा तथा यंत्रचालित फैक्ट्रियों की स्थापना ।
(e) जमा और संपत्ति के रूप में भारतीय Joint stock bodies की वृद्धि ।
(f) भारतीय उद्योगों का सभी दिशाओं में फैलाव जैसे- फैक्ट्रियों, उद्योगों, बैंकों, व्यापारिक संस्थाओं, बीमा कंपनियों, सेवा एजेंसियों तथा यहाँ तक कि इनकी bullions तथा stocks में परिकल्पना या अनुमान। बड़े भारतीय उद्योगों की बढ़ती हुई शक्ति ने विदेशी सहयोगी कंपनियों को अपनी ओर आकर्षित किया तथा जिसने हमारे उद्योगपतियों की सहायता, आधुनिक तकनीकी तथा प्रबंध कुशलता के रूप में की। भारतीय पूँजीवाद, जो सदियों से अपनी शैशवावस्था में था, अब स्वस्थ या अच्छी बुनियाद पर आधारित था। भारतीय पूँजीवाद वर्ग ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए बढ़ते हुए आंदोलनों से शक्ति प्राप्त की तथा बदले में इन आंदोलनों को सहारा दिया। ब्रिटिश काल के अंत तक भारतीय औद्योगिक पूँजीवाद अत्यंत सुरक्षित तथा शक्तिपूर्ण हो गया था।