स्वतंत्रता की
पूर्व संध्या पर भारतीय अर्थव्यवस्था की विशेषताएँ (Characteristics of Indian Economy on
the Eve of Independence)
स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारतीय अर्थव्यवस्था की विशेषताएँ प्रस्तावना
ब्रिटिश शासन की
शुरूआत भारत में 1757 में प्लासी की
लड़ाई के बाद हुई। ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1757 से 1858 तक शासन किया। 1858 के बाद, अधिकारों का हस्तांतरण ब्रिटिश सम्राट को हो गया, ब्रिटिश सरकार ने
1947 तक शासन चलाया।
यह वह वर्ष था जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस इस विदेशी शासन को हटा फेंकने में सफल
हुई।
बाजार
अर्थव्यवस्था (Market
Economy )
एक अर्थव्यवस्था
जिसमें निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण तत्व पाए जाते हों बाजार अर्थव्यवस्था के रूप में
जानी जा सकती है।
(i) वस्तुओं का उत्पादन विनिमय के लिए किया जाता है, आत्म-उपयोग या स्व-उपभोग के लिए नहीं।
(ii) उत्पादन की सेवाओं और कारकों का भी क्रय विक्रय किया जाता हो।
(iii) प्रत्येक उत्पादन क्रिया के पीछे लाभ की प्रेरणा होनी चाहिए।
(iv) वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों का निर्धारण उनकी माँग और पूर्ति के द्वारा किया जाता है।
(v) जहाँ क्रेता और विक्रेता, कर्मचारी तथा निवेशकर्ता में प्रतियोगिता पाई जाती हो ।
(vi) जहाँ वस्तुओं, सेवाओं और कारकों को विभिन्न क्रियाओं और क्षेत्रों में निःशुल्क गति प्रदान की जाती हो । भारत में ब्रिटिश शासन के बाद, राजनैतिक एकीकरण, एकीकृत करेंसी, केंद्रीकृत प्रशासनिक पद्धति और एकीकृत राष्ट्रीय बाजार का उत्थान हुआ। कृषि का वाणिज्यीकरण, ग्रामीण ऋणग्रस्तता, परिवहन के साधनों का विकास, संचार और आधुनिक बैंकिंग पद्धति भी पाई जाती थी। कृषकों को भू-राजस्व का भुगतान, लगान और ब्याज आदि के भुगतान के लिए पूँजी की आवश्यकता थी। ये कारक बाजार अर्थव्यवस्था की ओर हमारी गतिशीलता को बताते हैं।
बाजार अर्थव्यवस्था के उदय के लिए उत्तरदायी कारक
1. मौद्रिक अर्थव्यवस्था का फैलाव (Spread of Money Economy ) -
बारटर पद्धति यानि वस्तुओं के लिए वस्तुओं का विनिमय अब
अपनी जगह खो रहा था तथा मुद्रा लेन-देन की अर्थव्यवस्था में प्रधानता थी। अब, मुद्रा विनिमय का
माध्यम तथा खातों की इकाई थी। लेन-देन का मूल्यांकन सामान्यतः मुद्रा के रूप में
किया जाता था जिसने मूल्यों हेतु संग्रह की तरह भी कार्य किया। ऋण (Loans) मुद्रा के रूप
में दिए जाते थे और जिनका पुनर्भुगतान भी ब्याज के साथ मुद्रा रूप में किया जाता
था। मजदूरी, वेतनों, किरायों, व्याजों, सेवाओं, विभिन्न वस्तुओं
और यंत्रों का भुगतान निरंतर रूप से मुद्रा में किया जाता था। मुद्रा का बढ़ता हुआ
प्रयोग. मुद्रा अर्थव्यवस्था के विस्तार का एक संकेत था ।
2. प्रतियोगिता द्वारा संस्कृतियों और परंपराओं का पुनर्विस्थापन (Replacement of Customs and Traditions by Competition ) -
हमारी पारंपरिक अर्थव्यवस्था की संस्कृति तथा परंपरा ने लेन-देन की शर्तों, सेवाओं के भुगतान
तथा ब्याज की दर आदि के निर्धारण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ब्रिटिश शासन के
अंतर्गत प्रतियोगिता तथा समझौतों ने संस्कृति तथा परंपराओं की जगह ले ली। यह प्रतियोगिता
थी जिसने माँग और पूर्ति की शक्ति द्वारा वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों का
अंतसंबंध तथा निर्धारण किया। शहरी क्षेत्रों में यह परिवर्तन अधिक देखा गया।
3. कृषि का वाणिज्यीकरण (Commercialisation of Agriculture) -
ब्रिटिशों ने पूँजी फसलों की कृषि को प्रोत्साहन देने की
नीति का अनुसरण किया जैसे,
सूत, जूट, नील, कागज, गन्ना, तंबाकू, तेल के बीज आदि।
पूँजी फसलों की खेती का प्रमुख उद्देश्य विक्रय के लिए इसकी अधिक उपज करना था। इस
उद्देश्य ने इस फसल के विक्रय को व्यापारियों, निर्यात एजेंटों तथा अन्य व्यापारिक कार्यवाहियों के लिए
बढ़ाया। पारंपरिक ग्रामीण समूह (जो स्व-उपभोग के लिए खाद्य तथा कच्चे माल का अधिक
उत्पादन करते थे।) के विरुद्ध, वाणिज्यिक कृषि का आधार बाजार के लिए उत्पादन करना था। यहाँ
तक कि खाद्य पदार्थों को भी बाजार में विक्रय के लिए भेजा जाता था।
वाणिज्यिक कृषि
में विकास चाय, कॉफी और रबड़
प्लांटेशन में पाया जाता है, जहाँ अधिकांशतः शत-प्रतिशत उत्पादन बाजार के लिए किया जाता
था।
उपभोक्ता वस्तु
उद्योगों का विकास जैसे सूत, जूट,
कपड़ा, कागज, माचिस, चीनी आदि ने भी
वाणिज्यिकरण की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन दिया। अतः घर पर फैक्ट्री उत्पादन की
आवश्यकाताओं और प्राथमिक उत्पादों के निर्यातों के लिए ब्रिटिश सरकार के बढ़ावे के
फलस्वरूप बाजार का विस्तार हुआ। इसने व्यापारिक लेन-देन में पूँजी के प्रयोग को भी
बढ़ाया।
4. एकीकृत राष्ट्रीय बाजार का उदय (Emergence of Unified National Market )-
ब्रिटिश काल के दौरान भारत ना केवल राजनैतिक रूप से बल्कि आर्थिक रूप से भी विखंडित था । वस्तुएँ एक स्थान से दूसरे स्थान पर निःशुल्क रूप से गतिमान नहीं होती थीं। नवाबों तथा महाराजाओं द्वारा बाधाएँ लगाई जाती थी। समान वस्तु या एक ही प्रकार की वस्तु के लिए अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग कीमत लगाई जाती थी। आत्म सक्षम ग्रामीण अर्थव्यवस्था भी राष्ट्रीय बाजार के निर्माण के लिए एक बाधा थी। वहाँ स्थानीय बाजार भी थे। कहीं-कहीं वस्तुएँ बहुतायत में थीं तथा कहीं उनकी कमी थी। ब्रिटिश शासन के अंतर्गत परिस्थितियाँ बदलने लगीं। ग्रामों की आत्म सक्षमता का खात्मा किया जाने लगा।
स्थानीय बाजारों को बड़े राष्ट्रीय बाजारों में मिलाया जाने लगा। राष्ट्रीय बाजारों का निर्माण हमें बाजार अर्थव्यवस्था की ओर ले गया।
5. देश का राजनैतिक एकीकरण (Political Unification of the Country)-
ब्रिटिश विजय के पहले भारत छोटे-छोटे राज्यों में विखंडित था। ये राज्य स्थानीय राजाओं, नवाबों और महाराजाओं के द्वारा शासित किए जाते थे। एक के बाद एक इन शासकों ने आत्म समर्पण कर दिया और ब्रिटिश विजय ने संपूर्ण भारत को एक केंद्रीय शक्ति के अंतर्गत ला दिया। कुछ शासक जो स्वतंत्र बने रहे उन्होंने ब्रिटिश सर्वोच्चता को स्वीकारा। अतः, देश की तीन चौथाई के करीब जनसंख्या ब्रिटिशों के प्रत्यक्ष प्रशासन के अंतर्गत थी। ये जनसंख्या 'ब्रिटिश भारत' (British India) के नाम से तथा एक चौथाई जनसंख्या जो स्थानीय शासकों के अधीन थी वो 'राज्यिक भारत' (States India) के नाम से जानी जाती थी । यहाँ तक महत्त्वपूर्ण बात ध्यान देने योग्य है कि इन समस्त भारतीय नवाबों, महाराजाओं और राजाओं ने ब्रिटिशों की सर्वोच्चता की स्वीकारा था, जिससे वे एक निश्चित स्तर पर आंतरिक प्रशासन के मामले में स्वतंत्र थे। यद्यपि, सुरक्षा के मामलों में ब्रिटिश शासक ही सर्वप्रमुख थे।
इसके अलावा, एकीकृत प्रशासन
की स्थापना ने स्थानीय शासकों के मध्य होने वाले निरंतर झगड़ों को समाप्त कर दिया।
इस तरह ब्रिटिश शासन ने देश के भीतर बेहतर कानून और व्यवस्था बनाए रखने में सहायता
की। एक स्थिर सरकार जिसने आंतरिक शांति और व्यवस्था को बनाए रखा तथा व्यापार और
वाणिज्य के विस्तार के लिए अत्यंत अनुकूल परिस्थितियाँ प्रदान कीं।
6. केंद्रीकृत प्रशासनिक व्यवस्था (Centralised Administrative System)
मुगल साम्राज्य के विखंडन के बाद, भारत बड़ी संख्या
में छोटे राज्यों में विभाजित हो गया था। यह ब्रिटिश प्रशासन था, जिसने केंद्रीकृत
प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना की। ब्रिटिशों ने नए सिविल कोड तथा नई व्यवस्थाएँ
व्यक्तिगत अधिकारों के लिए बनाए । ग्रामीण पंचायत ने अपना Quasi judiciary status खो दिया था।
परिस्थितिवश आर्थिक संबंधों के ढाँचे में परिवर्तन तथा बाजार अर्थव्यवस्था की
वृद्धि में प्रोत्साहन मिला।
7. एकीकृत करेंसी व्यवस्था (Unified Currency System) -
ब्रिटिश विजय के समय, भारत के पास अधिक संख्या में राज्य थे जो नवाबों और महाराजाओं के द्वारा शासित किए जाते थे तथा जिन्होंने अपने स्वयं के सिक्के बनवाए तथा लागू किए थे, जो उनके स्तर का प्रतीक था। यह अनुमान लगाया गया था कि "अधिक से अधिक 994 विभिन्न भारों व आकृतियों के सोने व चाँदी के सिक्के प्रवाहित किए गए।" इसने लोगों के दिलों में घबराहट पैदा की और सामान्य जनता व्यावसायिक पूँजी परिवर्तनकर्ता द्वारा ठगे जाते थे। ब्रिटिश राजनैतिक सर्वोच्चता के बाद 1806 में एक चाँदी का सिक्का एक मानक सिक्के (Standard Coin) के रूप में लागू किया और धीरे-धीरे समस्त करेंसियाँ गायब हो गई।
एकीकृत करेंसी का
परिचय व्यापार की वृद्धि तथा बैंकिंग के लिए उत्तरदायी था और इस प्रकार इसने भारत
में बाजार अर्थव्यवस्था की वृद्धि को प्रोत्साहन दिया।
8. भू-राजस्व का भार (Burden of Land Revenue) -
ब्रिटिश शासन के प्रारंभिक चरण में, भू-राजस्व करारोपण (Taxation) का मुख्य स्रोत था। अतः भू-राजस्व की तरह समग्र
उत्पाद का एक उच्च अनुपात निश्चित कर लिया गया। सामान्यतः यह उत्पादन के एक तिहाई
से लेकर आधे के बीच में बदलता रहता था। चूँकि भू-राजस्व का भुगतान नकद रूप में
माँगा जाता था, इस परिस्थिति ने
कृषकों व जमींदारों के लिए,
भू-राजस्व की
माँगों को पूरा करने के लिए अपने उत्पादों का विक्रय आवश्यक कर दिया। ब्रिटिश
सरकार भू-राजस्व को निकलवाने में अत्यंत सख्त थी, क्योंकि यह राज्य के राजस्व का मुख्य स्रोत था।
परिस्थितिवश कृषक अपने उत्पाद को बाजार में लाने के लिए मजबूर हो गए। यदि काश्तकार
जमींदारों को लगान किसी अन्य रूप में देते थे तो जमींदार उससे प्राप्त उत्पादन के
उस भाग को फौरन बेचकर राज्य के भू-राजस्व की अदायगी करता था। भू-राजस्व ने बाजार
तथा कृषि वस्तुओं के क्रय विक्रय के लिए पूँजी के प्रयोग के विकास में एक मुख्य
भूमिका निभाई।
9. लगान का भार (Burden of Rent) -
लगान के भार ने
भी किसानों को अपने उत्पाद बड़ी मात्रा में विक्रय करने के लिए बाध्य किया।
जमींदार तथा उनके एजेंट भूमि के वास्तविक किसानों, जो किरायेदार या Tenant की तरह जाने जाते
थे, से अधिक लगान
वसूल करते थे। बढ़ती हुई जनसंख्या और काश्तकारों तथा हस्तशिल्पियों का अपने
उद्योगों के पतन के फलस्वरूप भूमि की ओर झुकाव के कारण भूमि की माँग भिन्न रूप में
बढ़ने लगी । भूमि के लिए बढ़ती हुई प्रतियेगिता के कारण लगान में बढ़ोतरी हुई।
काश्तकार को अपने कृषि उत्पादों को बाजार में बेचना होता था और इसने बाजार
अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन दिया ।
10. ग्रामीण ऋणग्रस्तता (Rural Indebtedness) -
कृषकों की पूँजी आवश्यकता विभिन्न कारकों के कारण बढ़ी जैसे- पहला कारक, कृषकों को पूँजी की आवश्यकता किराये की उच्च भू-राजस्व की माँग को पूरा करने के लिए होती है। दूसरा कारक, अकालों और सूखे आदि ने फसलों को नष्ट कर दिया जिससे किसानों को अपने परिवार के भरण पोषण के लिए पूँजी की आवश्यकता होती थी। तीसरा कारक, कृषकों के कृषि में प्रयोग होने वाले उसके पालतू पशुओं की मृत्यु भी उन्हें ऋण लेने के लिए बाध्य करती थी। अंतिम कारक, सामाजिक अनुष्ठानों जैसे शादी, बच्चे का जन्म उत्सव, सगे संबंधी की मृत्यु आदि में व्यय - की आवश्यकता होती थी।
कृषि ऋणग्रस्तता
से छुटकारा पाने के उद्देश्य से कृषकों को अपनी उपज का एक प्रमुख भाग बाजार में , विक्रय करना होता
था, जिससे उन्हें
पूँजी प्राप्त होती थी तथा वे ऋणों का किश्तों में भुगतान करते थे।
11. परिवहन तथा संचार के साधनों का विकास (Development of Means of Transportation and Communication) -
उन्नीसवीं
शताब्दी के मध्य से, वहाँ आंतरिक और
बाह्य परिवहन और संचार पद्धति में तीव्र सुधार हुआ। इसने कई स्थानीय बाजारों का
एकीकरण करके उन्हें एक राष्ट्रीय बाजर में मिलाया । इसने आंतरिक तथा बाह्य व्यापार
की बड़ी मात्रा तथा किस्मों, कृषि का वाणिज्यीकरण, उच्च स्तर के औद्योगिक उद्यम के निर्माण तथा वाणिज्यिक और
औद्योगिक शहरों की वृद्धि को प्रोत्साहन दिया। इस बात में कोई संदेह नहीं कि इसने
बाजार अर्थव्यवस्था के निर्माण की गति को बढ़ाया।
12. आधुनिक बैंकिंग व्यवस्था (Modern Banking System) -
भारत में बाजार अर्थव्यवस्था के प्रोत्साहन में आधुनिक बैंकिंग व्यवस्था का विकास एक महत्वपूर्ण चिन्ह था। प्रेसीडेंसी बैंकों की स्थापना बंगाल (1840), बंबई (1840), मद्रास (1843) में शेयर मुद्रा में ईस्ट इंडिया कंपनी की भागीदारी के साथ की गई। 1921 में, तीन प्रेसीडेंसी बैंकों का ईम्पीरियल बैंक ऑफ इंडिया (Impirial Bank of India) के निर्माण के लिए एक में मिलाया गया। यह एक वाणिज्यिक बैंक था जो एक सरकारी बैंक की तरह भी कार्य करता था। 1935 में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना की गई। RBI की स्थापना के समय तक भारत में आधुनिक बैंकिंग के विकास की शुरूआत हो चुकी थी। इसने भारत में बाजार अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करने की गति को बढ़ाया। सही मायने में एक विकसित अर्थव्यवस्था पर्याप्त बैंकिंग व्यवस्था के बिना कल्पना से परे है।
13. भूमि और श्रम का वस्तु में परिवर्तन (Transformation of Land and Labour into Commodity) –
भूमि, ग्रामीण समाज में
अत्यंत महत्त्वपूर्ण आय-अर्जन संपत्ति होते हुए, वस्तु के रूप में अत्यंत खोजनीय बन गई। जमींदार
जिन्होंने ब्रिटिश बंदोबस्तों में भूमि पाई थी वे उससे अधिक से अधिक अर्जित करना
चाहते थे। सामान्यत:, जमींदारों ने भी
गरीब किसानों के द्वारा ऋणों का भुगतान ना करने पर भूमि हड़पने की प्रक्रिया को
शुरू कर दिया। इस प्रकार धीरे-धीरे गरीब किसानों ने भूमि पर से अपने स्वामित्व को
खो दिया और इसके फलस्वरूप जमींदारों और साहूकारों के मध्य भूमि का अधिक
केंद्रीयकरण होने लगा।
समस्त काश्तकारों
जिन्होंने अपने उद्योगों को खो दिया तथा भूमि भी प्राप्त नहीं कर सके वे रोजगार की
तलाश में शहरों की ओर आए। उनमें से कुछ ने फैक्ट्री में रोजगार प्राप्त कर लिया, कुछ व्यापारी
कुली बन गए तथा कुछ ने घरेलू नौकरों की तरह रोजगार प्राप्त किया। इस प्रकार से यदि
देखा जाए तो उनके मामलों में श्रम शक्ति ने एक वस्तु की तरह कार्य किया।
इस विकास के साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था ने उत्पादन के पूँजीवादी पक्ष के चरण की ओर प्रवेश किया जिसमें श्रमिक अपनी संपदा से वंचित हो गए तथा उन्होंने अपने उत्पादन के यंत्रों को भी खो दिया। यद्यपि कृषि में, कृषि के पूँजीवादी तरीके की ओर पूर्ण रूप से स्थानांतरण ने अपना स्थान बनाया था। उद्योगों, व्यापार, परिवहन तथा संचार में मजदूरी - श्रम के उत्थान ने पूँजीवाद की ओर बढ़ते हुए कदमों को उजागर किया। अतः वस्तु बाजार की वृद्धि के अलावा, भूमि तथा श्रम उत्पादन के दो कारक भी बाजार अर्थव्यवस्था के महत्त्वपूर्ण अंश बन गए। अंत में हम यह कह सकते हैं कि ब्रिटिश काल के दौरान बाजार अर्थव्यवस्था में वृद्धि हुई थी। यहाँ तक कि जब ब्रिटिश विजय ने अपना स्थान प्राप्त नहीं किया था तब भी बाजार अर्थव्यवस्था, भारत में उत्पन्न हो चुकी थी। ब्रिटिश काल का निर्धारण तत्व यह था कि एक तरफ तो इसने बाजार अर्थव्यवस्था की वृद्धि को इस प्रकार से प्रोत्साहन किया कि इससे इन्हें शासकों द्वारा उपनिवेशिक शोषण की प्रक्रिया में सहायता मिली तथा दूसरी तरफ जमींदार - व्यापारियों-पूँजीवादी वर्ग की पकड़ को और अधिक मजबूत किया। इन सबके कारण कष्ट सहने वाले थे- किसान तथा काश्तकार किसानों ने भूमि पर खेती करने के अधिकार को खो दिया था तथा धीरे-धीरे जमींदारों और साहूकारों द्वारा सामूहिक रूप से उनका जमीन पर से स्वामित्व खत्म कर दिया गया। इस प्रकार उनको एक निम्न सामाजिक स्तर, किरायेदार तथा भूमिहीन श्रमिकों के रूप में स्वीकार करना पड़ा। काश्तकारों ने अपनी स्वतंत्र प्रतिष्ठा को खो दिया और व्यापारियों तथा पूँजीवादियों (भारतीय तथा ब्रिटिश दोनों) के द्वारा चलाई जाने वाली दुकानों तथा फैक्ट्रियां में मजदूरी पर कार्य करने वाले श्रमिक बन गए। बाजार अर्थव्यवस्था की वृद्धि ने विनिमय की प्रक्रिया को सरल बनाया और इस प्रकार आंतरिक और बाह्य व्यापार का विकास फैक्ट्रियों की वृद्धि, उत्पादन के नए तरीके, आधुनिक बैंकिंग आदि को बढ़ावा दिया लेकिन साथ ही इसने भारत में श्रमिक वर्ग के शोषण की प्रक्रिया को भी सरल बनाया।