कैथोलिक समाज सुधारक चिन्तक (Catholic Social Reformers)
रोमन कैथोलिक चर्च के बौद्धिक विरोधियों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है - रहस्यवादी या भक्तिवादी, मानववादी और सुधारवादी ।
रहस्यवादी चिन्तक धर्म के प्राचीन आदर्शों एवं सिद्धान्तों के समर्थक थे। उनके अनुसार धार्मिक आस्था एवं भक्ति के द्वारा मुक्ति सम्भव थी। वे लोग आस्थामय भक्ति को ज्ञान से अधिक महत्त्व देते थे। ऐसे लोगों में जर्मनी के पादरी एरवार्ट तथा उनके शिष्य जॉन टाउलर के नाम उल्लेखनीय हैं। मानववादी विचारकों में दांते, पेट्राक तथा लौरेन्जोवालो के नाम अधिक प्रसिद्ध हैं। मानववादी विचारकों ने मानव जीवन को महत्त्व दिया और पारलौकिक जीवन के महत्त्व को गौण बना दिया। इन लोगों ने ईसाई धर्म को अधिक नैतिक, मानववादी और तर्कशील बनाने पर जोर दिया। सुधारवादी विचारकों ने चर्च के मौजूदा संगठन तथा पादरी जीवन में आमूल परिवर्तन की माँग की। इनमें से कुछ का विस्तृत परिचय नीचे दिया जा रहा है।
कैथोलिक समाज सुधारक चिन्तक
(1) जॉन वाइक्लिफ ( 1320-1384 ) -
अंग्रेज विद्वान् जॉन वाइक्लिफ आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय का एक प्राध्यापक था। उसने कैथोलिक धर्म के बहुत से उपदेश तथा चर्च के क्रियाकलापों की आलोचना की। उसने घोषित किया कि " पोप पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि नहीं है तथा भ्रष्ट एवं विवेकहीन पादरियों द्वारा दिये जाने वाले धार्मिक उपदेश निरर्थक हैं।" उसका कहना था कि ऐश्वर्य एवं विलासिता का जीवन बिताने वाले पादरी दूसरों के पापों के क्षमा में कैसे सहायक हो सकते हैं? उसका कहना था कि प्रत्येक ईसाई को बाइबिल के सिद्धान्तों के अनुसार कार्य करना चाहिए और उसके लिए चर्च या पादरियों के मार्ग निर्देशन की आवश्यकता नहीं है। उसने यह भी माँग की कि चर्च की विपुल धन सम्पत्ति पर राज्य को अधिकार कर लेना चाहिए। कुछ विद्वानों का मानना है कि उसने अपने साथियों के साथ मिलकर जन सामान्य के लिए बाइबिल का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया था, परन्तु अन्य विद्वान् इस बात को प्रामाणिक नहीं मानते थे। परन्तु इतना निश्चित है कि उसने अपने अनुयायियों को अंग्रेजी भाषा में अनुवादित बाइबिल का अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया था। उसने तत्वान्तरण के सिद्धान्त ( पादरी द्वारा दैवी शक्ति से रोटी और शराब को ईसा मसीह के शरीर और रक्त में परिवर्तित करना) की कटु आलोचना की। वस्तुत: वाइक्लिफ के विचार क्रान्तिकारी थे जिन्हें रूढ़िवादी धर्माधिकारी सहन नहीं कर पाये। उन्होंने उस पर 'धर्मद्रोह' का आरोप लगाया, परन्तु सर्वसाधारण में वाइक्लिफ की लोकप्रियता से घबरा कर वे उसके विरुद्ध कोई सख्त कदम उठा नहीं पाये। वाइक्लिफ ने भी सार्वजनिक रूप से अपने विचारों का प्रचार न करने का आश्वासन दिया। उसने विश्वविद्यालय की सेवा भी त्याग दी और सम्मान सहित मृत्यु को प्राप्त हुआ। परन्तु बाद में चर्च के अधिकारियों ने उसकी लाश को कब्रिस्तान से निकलवा कर गन्दी जगह पर फिंकवा दिया। इंग्लैण्ड में उसके अनुयायी 'लोहार्ड' कहलाये। उन्होंने वाइक्लिफ के विचारों का प्रचार जारी रखा। चर्च ने उन पर घोर अत्याचार किये तथा कइयों को जीवित जला दिया गया।
(2) जॉन हस (1369-1515 ) -
वाइक्लिफ के विचार कुछ विद्यार्थियों के माध्यम से जर्मनी और आस्ट्रिया में जा पहुँचे, जहाँ उनका प्रतिपादन जॉन हस ने किया। जॉन हस बोहेमिया का निवासी था और प्राग विश्वविद्यालय में प्राध्यापक था। उसके विचारों पर बाइबिल का गहरा प्रभाव था। वह वाइक्लिफ के इस विचार से सहमत था कि एक सामान्य ईसाई बाइबिल के अध्ययन से मुक्ति का मार्ग ढूँढ सकता है और इसके लिए चर्च अथवा धर्माधिकारियों के सहयोग की कोई आवश्यकता नहीं है। बोहेमिया के लोगों पर जॉन हस के विचारों का जबरदस्त प्रभाव पड़ा। 1414 ई. में जॉन हस को चर्च की उच्च सभा के सम्मुख अपने विचारों को पुष्ट करने के लिए बुलाया गया। यद्यपि सम्राट् की ओर से हस को शारीरिक सुरक्षा का वचन दिया गया था, फिर भी उसे गिरफ्तार कर लिया गया और चर्च की निन्दा तथा नास्तिकता का प्रचार करने के आरोप में उसे जिन्दा जला दिया गया। चर्च की इस घृणित एवं बर्बर कार्यवाही ने सम्पूर्ण बोहेमिया प्रान्त में सशस्त्र विद्रोह को जन्म दे दिया। इस विद्रोह के पीछे राजनैतिक कारण भी था। बोहेमिया के चेक लोग जर्मन प्रभाव से स्वतन्त्र होना चाहते थे। जो भी हो, दोनों पक्षों में कई वर्षों तक भयंकर संघर्ष चलता रहा। पोप पवित्र रोमन सम्राट् तथा जर्मनों ने मिलकर चेकों के विद्रोह को दबाने का अथक प्रयास किया परन्तु वे असफल रहे। अन्त में 1436 में पोप ने जॉन हस के अनुयायियों के साथ समझौता कर लिया। उसने चर्च के ऊपर लगाये गये बहुत से आरोपों को स्वीकार कर लिया तथा उन्हें दूर करने का वचन दिया।
(3) सेवोनारोला (1452-1498) -
सेवोनारोला फ्लोरेन्स नगर का एक विद्वान् पादरी तथा राजनीतिज्ञ था। उसने लोगों में नये विचारों का प्रचार किया और अपने जोशीले भाषणों से वह शीघ्र ही लोकप्रिय हो गया। उसने मौजूदा नैतिकता तथा राजनीति-दोनों की कटु आलोचना की। लोरेंजों की मृत्यु के बाद फ्लोरेन्स नगर पर उसका वास्तविक शासन कायम हो गया। अब उसने चर्च के भ्रष्ट नियमों एवं क्रिया-कलापों में सुधार करने पर जोर दिया। सेवोनारोला ने पोप के आदेश को ठुकरा दिया। इस पर उसे चर्च की उच्च सभा के सम्मुख स्पष्टीकरण के लिए बुलाया गया और चर्च की निन्दा करने के आरोप में उसे जीवित जला दिया गया।
(4) इरेस्मस (1466-1536 ) -
इरेस्मस हालैण्ड का निवासी था। कुछ वर्ष वह इंग्लैण्ड में भी रहा और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में यूनानी भाषा तथा साहित्य पढ़ाने का काम किया। वह अपने युग का एक प्रभावशाली लेखक, विचारक, विद्वान् एवं सुधारक था। यूरोप के बड़े-बड़े संभ्रान्त परिवारों में उसे आदरपूर्वक आमन्त्रित किया जाता था। इरेस्मस को भी चर्च में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा बुराइयों से भारी असन्तोष था । उसने अपनी पुस्तक 'मूर्खत्व की प्रशंसा ' में पादरियों एवं धर्माधिकारियों की अज्ञानता तथा उन मूर्ख लोगों, जिन्हें विश्वास था कि धर्म का अर्थ केवल तीर्थ-यात्रा, शैव पूजा तथा द्रव्यादि लेकर पोप द्वारा अपराध क्षमापन ही है, की खूब आलोचना की। उसकी आलोचना में व्यंग्य तथा उपहास की प्रधानता थी इसलिए शिक्षित लोग रुचि के साथ उसकी कृतियों को पढ़ते थे। इरेस्मस ने प्रायः उन सभी बुराइयों की निन्दा की जिनकी बाद में लूथर ने खूब आलोचना की थी। अन्तर इतना ही था कि सर्वसाधारण इरेस्मस के वास्तविक विचारों को नहीं समझ सका । इरेस्मस ने ईसाई धर्म के मूल सिद्धान्तों के प्रचार हेतु न्यूटेस्टामेन्ट का शुद्ध संस्करण निकाल कर धर्म की उत्पत्ति की ठीक व्याख्या की। इससे धर्मशास्त्रियों की कई भूलें उजागर हो उठीं।
(5) मार्टिन लूथर (1483-1546 ) -
चर्च में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा बुराइयों के विरुद्ध सबसे अधिक असन्तोष जर्मनी में फैला हुआ था और जर्मनी में ही चर्च के विरुद्ध एक व्यापक तथा सशक्त आन्दोलन भी चला। इस आन्दोलन का नेता था मार्टिन लूथर उसका जन्म एक निर्धन परिवार में हुआ था परन्तु वह बचपन से ही मेधावी था। 1505 ई. के उसने एरफर्ट विश्वविद्यालय से एम. ए. किया। इसके बाद उसने कानून का अध्ययन शुरू किया परन्तु न जाने किस घटना के कारण उसने अध्ययन छोड़ कर वैराग्य धारण कर लिया और ईसाई मठ में सम्मिलित हो गया। एरफर्ट में मठ में रहते हुए वह मुक्ति का उपाय सोचने लगा। वहाँ के मठाधिपति ने उसे अपने पुण्य कार्यों पर भरोसा न रख कर ईश्वर की कृपा तथा क्षमा पर भरोसा रखने के लिए कहा। यहाँ रहते हुए लूथर ने महात्मा पाल और आगस्टाइन के लेखों का गम्भीर मनन किया, जिससे उसे ज्ञात हुआ कि मनुष्य किसी भी पुण्य को करने में समर्थ नहीं है, उसकी मुक्ति केवल ईश्वर में श्रद्धा और भक्ति करने से ही हो सकती है। फिर भी इससे लूथर को विशेष सन्तोष नहीं हुआ। 1508 में वह विटनबर्ग विश्वविद्यालय में प्राध्यापक बन गया और अपनी मृत्युपर्यन्त तक विश्वविद्यालय से जुड़ा रहा। यहाँ पर वह पाल के पत्रों तथा भक्ति से मुक्ति पाने के सिद्धान्त की शिक्षा देने लगा। विश्वविद्यालय में वह अपनी संगीत की निपुणता तथा वाक्पटुता के लिए प्रसिद्ध था। 1511 ई. में बड़े धर्माधिकारी उचित-अनुचित उपायों से धन अर्जित करने में लगे हुए थे और एक-दूसरे के प्रभाव को कम करने के लिए गुटबन्दी तथा जोड़-तोड़ में लगे हुए थे। वे लोग अपने कर्त्तव्यों की उपेक्षा करके सांसारिक जीवन बिता रहे थे। धर्माधिकारियों के भ्रष्ट आचरण से लूथर को घोर निराशा हुई । उसका यह विश्वास दृढ़ हो गया कि धर्म के प्रमुख शत्रु धर्म की प्रधान संस्था और उसके संचालक ही हैं। 1517 ई. में एक महत्त्वपूर्ण घटना घटी जिसने लूथर को एक प्रकट विद्रोही बना दिया। यह घटना थी 'पाप विमोचन पत्रों की बिक्री । '
पोप लियो दशम इन दिनों रोम में सन्त पीटर के गिरजाघर को पुनः बनवाने के लिए धन एकत्र कर रहा था और इसके लिए इंडलजेन्स (पाप - विमोचन पत्र) बेचने शुरू किये। पाप - विमोचन पत्र देना कोई नई बात न थी।
परन्तु मृत्यु के बाद ऐसे पापी लोगों की आत्मा को कुछ समय के लिए अपने पाप की सजा भुगतने के लिए नरक में रहना पड़ता है। इंडलजेन्स के माध्यम से नरक की अवधि में अथवा सजा की कठोरता में थोड़ी-बहुत कमी की जा सकती है अथवा पूर्णतया माफ हो सकती है। इंडलजेन्स तभी सार्थक हो सकता था जबकि उसे प्राप्त करने वाला व्यक्ति सच्चे मन से अपने पाप का प्रायश्चित करे। प्रायश्चित करने के अनेक साधनों में से एक था- चर्च को भेंट अथवा गरीबों को दान-पुण्य करना। इसके लिए पोप सम्बन्धित व्यक्ति को इंडलजेन्स जारी करता था ।