आदिकालीन सिद्ध साहित्य परंपरा
आदिकालीन सिद्ध साहित्य परंपरा
सिद्धों ने बौद्ध
धर्म के वज्रयान तत्व का प्रचार करने के लिए जो साहित्य जन भाषा में लिखा, वह हिंदी के
सिद्ध-साहित्य की सीमा में आता है। राहुल सांकृत्यायन ने चौरासी सिद्धों के नामों
का उल्लेख किया हैं, जिनसे सिद्ध सरहपा से यह साहित्य आरंभ होता है।
इन सिद्धों में सरहपा, शबरपा, लुइपा, डोम्भिपा, कण्हपा एवं
कुक्कुरिपा हिंदी के मुख्य सिद्ध कवि हैं। यहाँ संक्षेप में इनके व्यक्तित्व और
कृतित्व का परिचय देकर हम साहित्य के विकास में इनकी भूमिका को स्पष्ट करने की
चेष्टा करेंगे।
सरहपा-ये सरहपाद, सरोजवज्र, राहुलभद्र आदि कई
नामों से प्रख्यात हैं। जाति से ये ब्राह्मण थे। इनके रचना - काल के विषय में सभी
विद्वान एकमत नहीं हैं। राहुल जी ने इनका समय 761 ई. माना है, जिससे अधिकांश
विद्वान् सहमत हैं। इनके द्वारा रचित बत्तीस ग्रंथ बताए जाते हैं, जिनमें से 'दोहाकोश' हिंदी की रचनाओं
में प्रसिद्ध है। इन्होंने पाखंड और आडंबर का विरोध किया है तथा गुरु सेवा को
महत्त्व दिया है। ये सहज भोग- मार्ग से जीव को महासुख की ओर ले जाते हैं। इनकी
भाषा सरल तथा गेय है एवं काव्य में भावों का सहज प्रवाह मिलता है। एक उदाहरण
प्रस्तुत है-
नाद न बिंदु न रवि न शशि मण्डल,
चिअराअ सहावे मूकल।
अजुरे उजु छाड़ मा लेहु बैंक,
निअहि बोहिमा जाहु रे लांक।
हाथेरे कांकाण मा लोङ दापण,
अपणे अपा बुझतु
निअन्मण।
सरहपा की इस
कविता से स्पष्ट है कि उनकी भाषा तो हिंदी ही है, केवल उस पर
यत्र-तत्र अपभ्रंश का प्रभाव है। भाव और शिल्प की जो परंपरा संत साहित्य में जाकर
नए रूप में उभरी, उसका बीज रूप सरहपा के काव्य में द्रष्टव्य है।
शबरपा -
इनका
जन्म क्षत्रिय कुल में 780 ई. में हुआ था। सरहपा से इन्होंने ज्ञान प्राप्त किया
था। शबरों का सा जीवन व्यतीत करने के कारण ये शबरपा कहे जाने लगे। 'चर्यापद' इनकी प्रसिद्ध
पुस्तक है। ये माया-मोह का विरोध करके सहज जीवन पर बल देते हैं और उसी को महासुख
की प्राप्ति का मार्ग बतलाते हैं। इनकी कविता की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
हेरि ये मेरि तइला बाड़ी खसमे समतुला
बुकड़ए मेरे कपास फुटिला
तइला वाडिर पासेर जोहणा वाड़ी ताएला
फिटेल अंधारि रे आकाश फुलिआ ।
लुइपा -
ये राजा
धर्मपाल के शासन काल में कायस्थ परिवार में उत्पन्न हुए थे। शबरपा ने इन्हें अपना
शिष्य - बनाया था इनकी साधना का प्रभाव देखकर उड़ीसा के तत्कालीन राजा तथा मंत्री
इनके शिष्य हो गए थे। चौरासी सिद्धों में इनका सबसे ऊँचा स्थान माना जाता है। इनकी
कविता में रहस्य - भावना की प्रधानता हैं। एक उदाहरण देखिए-
क्राआ तरुवर पंच विडाल, चंचल चीए पइठो काल ।
दिट करिअ महासुह परिमाण, लुइ भरमई गुरु
पूच्छि अजाण ।।
डोम्पा -
मगध के
क्षत्रिय वंश में 840 ई. के लगभग इनका जन्म हुआ था। विरूपा से इन्होंने दीक्षा ली
थी। इनके द्वारा रचित इक्कीस ग्रंथ बताए जाते हैं, जिनमें 'डोम्बि गीतिका', 'योगचर्या', 'अक्षरद्विकोपदेश' आदि विशेष
प्रसिद्ध हैं। इनकी कविता का एक उदाहरण इस प्रकार हैं-
गंगा जउना माझेरे बहर नाइ ।
ताहि बुड़िली मातंग पोइआली ले पार करई।
बाह डोम्बी बाह लो डोम्बी वाटत भइल उछारा ।
सद्गुरु पाऊ पए जाइब पुणु जिणउरा ||
कण्हपा—.
इनका जन्म
कर्नाटक के ब्राह्मण वंश में 820 ई. में हुआ था। बिहार के सोमपुरी स्थान पर ये
रहते थे। जालंधरपा को इन्होंने अपना गुरु बनाया था। कई सिद्धों ने इनकी शिष्यता
स्वीकार की थी। इनके लिखे चौहत्तर ग्रंथ बताए जाते हैं, जिनमें अधिकांश
दार्शनिक विषयों पर हैं। रहस्यात्मक भावनाओं से परिपूर्ण गीतों की रचना करके से
हिंदी के कवियों में प्रसिद्ध हुए। इन्होंने शास्त्रीय रूढ़ियों का भी खंडन किया
है। इनकी कविता का एक उदाहरण देखिए-
आगम वेअ पुराणे, पंडित मान बहति ।
पक्क सिरिफल अलि, जिस वाहेरित
भ्रमयति ।।
कुक्कुरिया -
इनका जन्म कपिलवस्तु के एक ब्राह्मण वंश में माना जाता है। इनके जन्म काल का पता
नहीं चल सका है। चर्पटीया इनके गुरु थे। इनके द्वारा रचित सोलह ग्रंथ माने जाते
हैं। ये भी सहज जीवन के समर्थक थे। इनकी कविता का एक उदाहरण इस प्रकार है-
हांउ निवासी खमण भतारे, मोहोर विगोआ कहण न जाइ।
फेटलिङ गो माए
अंत उड़ि चाहि, जा एथु बाहाम सो एथु नाहिं ।
इन प्रमुख सिद्ध कवियों के अतिरिक्त अन्य सिद्ध कवि भी जन भाषा में अपनी वाणी का प्रचार पद्य में करते थे; किंतु उसमें कवित्व का उतना अंश नहीं, जिसके आधार पर उसे साहित्य के विकास में योगदाता माना जा सके जिन कवियों की पहले चर्चा की गई है, उनका साहित्य ही हिंदी के सिद्ध साहित्य के लिए गौरव का विषय है। इन कवियों ने हिंदी-साहित्य में कविता की जो प्रवृत्तियाँ आरंभ कीं, उनका प्रभाव भक्तिकाल तक चलता रहा। रूढ़ियों के विरोध का अक्खड़पन जो कबीर आदि की कविता में मिलता है इन सिद्ध कवियों की देन है। योग-साधना के क्षेत्र में भी इनका प्रभाव पहुँचा। सामाजिक जीवन के जो चित्र इन्होंने उभारे, वे भक्तिकालीन काव्य के लिए सामाजिक चेतना की पीठिका बन गए। कृष्ण भक्ति के मूल में जो प्रवृत्ति-मार्ग है, उसकी प्रेरणा के सूत्र भी हमें इनके साहित्य में मिलते हैं।