आदिकालीन साहित्य परंपरा : खुसरो, चंदबरदाई, विद्यापति एवं अब्दुल रहीम
आदिकालीन साहित्य परंपरा प्रस्तावना (Introduction)
खुसरो को हिंदी खड़ीबोली का पहला लोकप्रिय कवि माना जाता है। अमीर खुसरो खड़ी बोली हिंदी के प्रथम कवि हैं। वे अपनी पहेलियों और मुकरियों के लिए जाने जाते हैं। सबसे पहले उन्हीं ने हिंदी भाषा ( हिन्दवी) का उल्लेख किया था। वे फारसी के कवि भी थे। उनको दिल्ली सल्तनत का आश्रय मिला हुआ था। उनके ग्रंथों की सूची लंबी है। साथ ही इनका इतिहास स्रोत के रूप में महत्त्व है। मध्य एशिया की लाचन जाति के तुर्क सैफुद्दीन के पुत्र अमीर खुसरो का जन्म सन् (652 हि.) में एटा उत्तर प्रदेश के पटियाली नामक कस्बे में हुआ था। लाचन जाति के तुर्क चंगेज खाँ के आक्रमणों से पीड़ित होकर बलबन (1266-1286 ई.) के राज्यकाल में शरणार्थी के रूप में भारत में आ बसे थे। खुसरो की माँ बलबन के युद्धमंत्री इमादुतुल मुलक की लड़की एक भारतीय मुसलमान महिला थी। सात वर्ष की अवस्था में खुसरो के पिता का देहांत हो गया। किशोरावस्था में उन्होंने कविता लिखना प्रारंभ किया और 20 वर्ष के होते होते वे कवि के रूप में प्रसिद्ध हो गए। खुसरो में व्यावहारिक बुद्धि की कमी नहीं थी। सामाजिक जीवन की खुसरो ने कभी अवहेलना नहीं की। खुसरो ने अपना सारा जीवन राज्याश्रय में ही बिताया। राजदरबार में रहते हुए भी खुसरो हमेशा कवि, कलाकार, संगीतज्ञ और सैनिक ही बने रहे।
अमीर खुसरो की कृतियाँ
अमीर खुसरो ने
फारसी कवि निजामी गंजवी के खम्स के जवाब में अपना पंचगंज 698 हिजरी से 701 हिजरी के बीच
लिखा यानि सन् 1298 ई. से 1301 ई. तक। इसमें
पाँच मसनवियाँ हैं। इन्हें खुसरों की पंचपदी भी कहते हैं। ये इस प्रकार हैं-
1. मतला - उल - अनवार
निजामी के मखजनुल असरार का जवाब है। (698 हि. /सन् 1298 ई.) अर्थात् रोशनी निकलने की जगह उम्र 45 कवि जामी ने इसी
के अनुकरण पर अपना 'तोहफतुल अबरार' (अच्छे लोगों का
तोहफा ) लिखा था। इसमें खुसरो ने अपनी इकलौती लड़की को सीख दी है जो बहुत सुंदर
थी। विवाह के पश्चात् जब बेटी विदा होने लगी तो खुसरो ने उसे उपदेश दिया था -
खबरदार चर्खा कातना कभी न छोड़ना। झरोखे के पास बैठकर इधर-उधर न झाँकना ।
2. शीरी व खुसरो -
यह कवि निजामी की खुसरों व शीरी का जवाब है। यह 698 हिजरी सन् 1298 ई., उम्र 45 वर्ष में लिखी गई। खुसरो ने इसमें प्रेम की पीर को तीव्रतर
बना दिया है। इसमें बड़े बेटे को सीख दी है। इस रोमांटिक अभिव्यक्ति में भावात्मक
तन्मयता की प्रधानता है। मुल्ला अब्दुल कादिर बादयूनी, फैजी लिखते हैं
कि ऐसी मसनवी इन तीन सौ वर्षों में अन्य किसी ने नहीं लिखी। डॉ. असद अली के अनुसार
यह रचना अब उपलब्ध नहीं तथा इसकी खोज की जानी चाहिए।
3. मजनूँ व लैला-
निजामी के लैला-मजनूँ का जवाब 699 हिजरी सन् 1299 ई. उम्र 46 वर्ष। प्रेम तथा शृंगार की भावनाओं का चित्रण इसमें 2660 पद हैं।
लैला-मजनूँ का प्रत्येक शेर गागर में सागर के समान है। यह पुस्तक प्रकाशित हो चुकी
है। कुछ विद्वान इसका काल 698 हिजरी भी मानते
हैं। कलात्मक दृष्टि से जो विशेषताएँ 'मजनूँ व लैला' में पाई जाती हैं, वे और किसी मसनवी में नहीं हैं। शैय्या पर फँस जाना. लैला
की बीमारी का समाचार सुनकर मजनूँ का उसके पुरों को आना और उसकी अर्थी देखना, मजनूँ का मस्त
होकर गीत गाना, लैला के अंतिम
संस्कार के समय मजनूँ का दम तोड़ देना और साथ ही दफन होना।
4. आइने -
सिकंदरी या सिकंदर नामा- निजामी के सिकंदरनामा का जवाब (699 हिजरी सन् 1299 ई.) इसमें सिकंदरे आजम और खाकाने चीन की लड़ाई का वर्णन है। इसमें अमीर खुसरो ने अपने छोटे लड़के को सीख दी है। इसमें रोजी-रोटी कमाने व कुवते बाजू की रोटी को प्राथमिकता, हुनर (कला) सीखने, मजहब की पाबंदी करने और सच बोलने की वह तरकीब है जो उन्होंने अपने बड़े बेटे को अपनी मसनवी शीरी खुसरो में दी है। इस रचना के द्वारा खुसरो यह दिखाना चाहते थे कि वे भी निजामी की तरह वीर रस प्रधान मसनवी लिख सकते हैं।
5. हशव - बहिश्त -
निजामी के हफ्त पैकर का जवाब (701 हिजरी सन् 1301 ई.) फारसी की सर्वश्रेष्ठ कृति | इसमें ईरान के बहराम गोर और एक चीनी हसीना (सुंदरी) की काल्पनिक प्रेम गाथा का बेहद ही मार्मिक चित्रण है, जो दिल को छू जाने वाली है। इसमें खुसरो ने मानो अपना व्यक्तिगत ददं पिरो दिया है। कहानी मूलत: विदेशी है अतः भारत से संबंधित बातें कम हैं। इसका वह भाग बेहद ही महत्त्वपूर्ण है जिसमें खुसरो ने अपनी बेटी को संबोधित कर उपदेशजनक बातें लिखी हैं। मौलाना शिबली (आजमगढ़) के अनुसार इसमें खुसरो की लेखन कला व शैली चरमोत्कर्ष को पहुँच गई है। घटनाओं के चित्रण की दृष्टि से फारसी की कोई भी मसनवी, चाहे वह किसी भी काल की हो, इसका मुकाबला नहीं कर सकती। आज के संदर्भ में खुसरो की कविता का अनुशीलन भावात्मक एकता के पुरस्कर्ताओं के लिए भी लाभकारी होगा। खुसरो वतनपरस्तों अर्थात् देशप्रेमियों के सरताज कहलाए जाने योग्य हैं। उनका संपूर्ण जीवन देश भक्तों के लिए एक संदेश है। देशवासियों के दिलों को जीतने के लिए जाति, धर्म, आदि की एकता की कोई आवश्यकता नहीं अपितु धार्मिक सहिष्णुता, विचारों की उदारता, मानव मात्र के साथ प्रेम का व्यवहार, सबकी भलाई (कल्याण) की कामना तथा राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता होती है । यद्यपि अमीर खुसरो दरबारों से संबंधित थे और उसी तरह का जीवन भी व्यतीत करते थे जो साधारणतया दरबारी का होता था। इसके अतिरिक्त ये सेना के कमांडर जैसे बड़े-बड़े पदों पर भी रहे किंतु यह उनके स्वभाव के विरुद्ध था। अमीर खुसरो को दरबारदारी और चाटुकारिता आदि से बहुत चिढ़ व नफरत थी। वह समय-समय पर इसके विरुद्ध विचार भी व्यक्त किया करते थे। उनके स्वयं के लिखे ग्रंथों के अलावा उनके समकालीन तथा बाद के साहित्यकारों के ग्रंथ इसका जीता-जागता प्रमाण है।
खुसरो की कृतियों के उदाहरण
दोहा
खुसरो दरिया प्रेम का, सो उलटी वा की धार,
जो उबरो सो डूब गया, जो डूबा हुवा पार ।
सेज वो सूनी देख के रोवुं मैं दिन रैन,
पिया पिया मैं करत हूँ पहरों, पल भर सुख ना चैन ।
पद
छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके
छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके
प्रेम बटी का मदवा पिलाइके
मतवाली कर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
गोरी गोरी बईयाँ, हरी हरी चूड़ियाँ
बईयाँ पकड़ धर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
बल बल जाऊँ मैं तोरे रंग रजवा
अपनी सी कर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
खुसरो निजाम के बल बल जाए
मोहे सुहागन कीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके
गजल
जिहाल-ए-मिस्कीं मकुन तगाफुल,
दुराये नैना बनाये बतियाँ।
कि ताब-ए-हिजरा नदारम ऐ जान,
न लेहो काहे लगाये छतियाँ।।
शवां-ए-हिजरां दरज चूं जुल्फ
वा रोज-ए-वस्लत चो उम्र कोताह
सखि पिया को जो मैं न देखूं
तो कैसे काटू अँधेरी रतियाँ ।।