आदिकालीन रासो साहित्य
आदिकालीन रासो - साहित्य
जैन साहित्य के संदर्भ में यह संकेत किया जा चुका है कि हिंदी साहित्य के आदिकाल में रचित जैन 'रास काव्य' वीरगाथाओं के रूप में लिखित रासो काव्यों से भिन्न है। दोनों की रचना शैलियों का अलग-अलग भूमियों पर विकास हुआ है। जैन रास-काव्यों में धार्मिक दृष्टि के प्रधान होने से वर्णन की वह पद्धति प्रयुक्त नहीं हुई, जो वीरगाथापरक रासो ग्रंथों में मिलती है। इन काव्यों की विषयवस्तु का मूल संबंध राजाओं के चरित तथा प्रशंसा से है। फलत: इनका आकार रचनाकारों की मृत्यु के पश्चात् भी बढ़ता रहा है। रासो काव्यों को देखने से पता चलता है कि उनके रचयिता जिस राजा के चरित्र का वर्णन करते थे, उसके उत्तराधिकारी राजगण अपने आश्रित अन्य कवियों से उसमें अपने चरित भी सम्मिलित करा देते थे। यही कारण है कि इन ग्रंथों में मध्यकालीन राजाओं का भी वर्णन मिलता है तथा भाषा में भी उत्तरवर्ती भाषा रूपों की झलक पाई जाती है। राजस्थान के कतिपय वृत्त-संग्रहकर्ताओं ने अधिकांश रासो काव्यों को इन्हीं बातों के कारण अप्रामाणिक रचनाएँ माना है। भाषा वैज्ञानिकों से उन्हें समर्थन भी मिल गया है। परंतु इतिहास के मर्म को समझने वाले विद्वान उन वृत्त-संग्राहकों के कथनों में विश्वास नहीं करते। सत्य यही है कि रासो काव्यों की रचना आदिकाल में ही हुई थी। उनमें जो अंश उत्तरवर्ती राजाओं से संबंधित हैं, वे प्रक्षिप्त हैं। इसी मान्यता के आधार पर हम रासो-ग्रंथों को आदिकाल का साहित्य स्वीकार करके यहाँ उनका संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करेंगे।
खुमाण रासो -
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसको नवीं शताब्दी की रचना माना है, क्योंकि इसमें नवीं शती के चित्तौड़ - नरेश खुमाण के युद्धों का चित्रण है। राजस्थान के वृत्त संग्राहकों ने इसको सत्रवहीं शताब्दी की रचना बताया है, क्योंकि इसमें सत्रहवीं शताब्दी के चित्तौड़ नरेश राजसिंह तक के राजाओं का वर्णन मिलता है और इसी आधार पर वे इसको आदिकाल की रचना नहीं मानना चाहते। वास्तविकता यह है कि इस काव्य का मूल रूप नवीं शताब्दी में ही लिखा गया था। तत्कालीन राजाओं के सजीव वर्णन, उस समय की परिस्थितियों के यथार्थ ज्ञान तथा भाषा के 'आरंभिक हिंदी रूप' के प्रयोग से इसी तथ्य के प्रमाण मिलते हैं।
वृत्त - संग्राहकों के पास इतिहास को समझने की पैनी दृष्टि नहीं थी, इसलिए राजस्थान में रहते हुए भी वे आदिकाल की संपत्ति को भक्तिकाल और रीतिकाल के भंडार में डालने का दुराग्रह करके यश अर्जित करते रहे हैं, जबकि वह संपत्ति उन कालों की प्रवृत्तियों से किसी भी रूप में मेल नहीं खाती। इन लोगों ने रचनाकारों के नामों के संबंध में भी भ्रम पैदा किया है। अधिकांश विद्वानों ने नवीं शती के खुमाण नरेश के समकालीन दलपत विजय को 'खुमाण रासो' का रचयिता माना है जबकि वृत्त-संग्रहकर्ताओं ने यह सिद्ध करने की असफल चेष्टा की है कि उसका रचयिता सत्रहवीं शती ईस्वी का दलपत विजय नाम का कोई जैन साधु था । रचना-शैली तथा विषय-वस्तु से सिद्ध है कि यह काव्य किसी जैन साधु की रचना नहीं हो सकता। यदि जैन साधु ने इसे लिखा होता तो निश्चय ही इसमें धर्म-भावना किसी-न-किसी रूप में व्याप्त मिलती ।
इस ग्रंथ की प्रमाणिक हस्तलिखित प्रति पूना के संग्रहालय में सुरक्षित है। यह पाँच हजार छंदों का विशाल काव्य-ग्रंथ है। राजाओं के युद्धों और विवाहों के सरल वर्णनों से इस काव्य की भाव भूमि का विस्तार हुआ है। संदर्भानुसार नायिकाभेद, षट्ऋतु आदि के चित्रण भी मिलते हैं। राजाओं की प्रशंसा काव्य का मुख्य प्रतिपाद्य है। वीर रस के साथ-साथ श्रृंगार की धारा भी आदि से अंत तक चली है। वस्तु वर्णनों में पर्याप्त रमणीयता है। इसमें दोहा, सवैया, कवित्त आदि छंद प्रयुक्त हुए हैं तथा इसकी भाषा राजस्थानी हिंदी है। राजाओं के वर्णनों पर आधारित होने पर भी इसमें काव्यात्मक सरस वर्णनों का प्राचुर्य है। एक उदाहरण देखिए-
पिउ चित्तौड़ न आविऊ, सावण पहिली तीज।
जोवै बाट बिरहिणी खिणखिण अणवै खीज ।।
संदेसो पिण साहिबा, पाछो फिरिय न देह ।
पंछी घाल्या पिंज्जरे, छूटण रो संदेह ।।
प्राचीन काल में मुद्रण के अभाव के कारण लिपिकर्ता जैसा लिखते थे, वैसा ही ग्रंथ की भाषा का रूप हो जाता था। धार्मिक साहित्य में धार्मिक भावना के कारण शब्दों के मूल रूप की रक्षा का प्रयत्न किया जाता था, किंतु रासो काव्यों के प्रति वैसा कोई आग्रह नहीं होता था। अतः उनकी भाषा पर लिपिकर्ताओं की भाषा के रूपों के प्रभाव पड़ते रहते थे। इस काव्य की भाषा के साथ भी यही हुआ है। वस्तुतः इस ग्रंथ के मूल रूप तक पहुँचने के लिए प्रमाणिक पाठ संपादन की आवश्यकता है।
बीसलदेव रासो -
इस ग्रंथ की रचना नरपति नाल्ह कवि ने 1155 ई. में की थी, जैसा कि निम्नांकित उद्धरण से स्पष्ट है-
बारह से बहोत्तराहां मंझारि । जेठ वदी नवमी बुधिवारि ।
नाल्ह रसायण आरंभई । सारदा तूठी ब्रह्म कुमारि ।
कासमीरां मुख मंडनी। रास प्रसागों वीसलदेराइ ।
प्रथम पंक्ति से संवत् 1272 वर्ष भी माना गया है, किंतु अधिकांश विद्वान् 1292 वि. ही स्वीकार करते हैं। कुछ वृत्त-संग्रहकर्त्ताओं ने इस ग्रंथ को भी आदिकाल की रचना नहीं माना। यह संभव है कि इसमें भी कुछ परिवर्तन होते रहे हों, किंतु उससे इसकी प्राचीनता समाप्त नहीं हो जाती। डॉ. मोतीलाल मेनारिया सोलहवीं शताब्दी के नरपति नामक एक गुजराती कवि को इसका रचयिता बतलाते है, किंतु डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने कई प्राचीन प्रतियों के आधार पर सिद्ध किया है कि यह कृति चौदहवीं शताब्दी ईस्वी में लिखी गई थी। नवीन खोजों में एक प्राचीन प्रति मिली है, जिससे इस काव्य की रचना काल 1016 ई. सिद्ध होता है। उसमें यह पंक्ति मिलती है-"संवत् सहस तिहत्तर जानि, नाल्ह कबीसर सरसीय वाणि।"
'बीसलदेव रासो' मूलतः गेय काव्य था, अतः इसके रूप में परिवर्तन होता रहा है। डॉ. मेनारिया का मत है कि वह काव्य गेय नहीं था। शायद वे गेयता का अर्थ 'लोकगीतों की तरह गाया जाना लगाते हैं और इसी आधार पर यह कहते हैं कि राजस्थान में कभी भी यह गेय नहीं रहा। डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने 128 छंदों की एक प्रति का संपादन किया है। यह पाठ 'बीसलदेव रासो' का मूल रूप बताया जाता है। इसकी भाषा आदिकालीन आरंभिक हिंदी का सहज स्वरूप सिद्ध होती है।
'बीसलदेव रासो' हिंदी के आदिकाल की एक श्रेष्ठ काव्य-कृति है। इसमें भोज परमार की पुत्री राजमती और अजमेर के चौहान राजा बीसलदेव तृतीय के विवाह, वियोग एवं पुनर्मिलन की कथा सरस शैली में प्रस्तुत की गई है। राजमती की बातों से रुष्ट होकर स्वाभिमानी राजा उड़ीसा चला जाता है। बारह वर्ष तक राजमती उसके विरह में दु:खी रहती है। वह राजभवन की दीवारों को कोसती हुई वन में रहने की कामना करती है। सामंती जीवन के प्रति गहरी अरुचि का सजीव चित्र इस काव्य में मिलता है। 'संदेशरासक' के समान ही 'बीसलदेव रासो' की भाव - भूमि प्रेम की निश्छल अभिव्यक्ति से सरस है। 'मेघदूत' और 'संदेशरासक' की संदेश-परंपरा भी इसमें मिलती है। राजमती एक पंडित के द्वारा अपने पति के पास संदेश भेजती है। जब वह लौट आता है तब राजमती श्रृंगार करके उससे मिलती है। श्रृंगार के वियोग और संयोग पक्षों के अत्यंत मार्मिक चित्र कवि ने प्रस्तुत किए हैं। राजमती में एक कुलीना गृहिणी का स्वाभिमान है, जो विरह के चित्रों को कांतिमय बनाता है। संयोग के समय भी यही कांति काव्य-सौंदर्य की वृद्धि करती है। राजमती की वाणी व्यंग्यमयी हो उठती है, जिससे उसके पति का हृदय हिल जाता है। पति के हृदय को बेधनेवाला राजमती का एक कुलीनता - संस्कार ही उसकी समस्त विरह वेदना का आधार है, वही उसे इस विवशता तक पहुँचाता है-
अस्त्रीय जनम काई दीधउ महेस ।
अवर जनम थारई घणा रे नटेस।
राणि न सिरजीय धडलीय गाइ ।
वणषण्ड काली कोइली ।
हउं बइसती अंबा नइ चंपा की डाल ।
इणि दुष झूरइ अवलाजी बाल।
इस प्रकार इस काव्य के वर्णनों में एक संस्कार-दृष्टि मिलती है, जो नारी गरिमा की स्थापना करती है। कवि ने प्रकृति के रमणीय चित्रों से भी भाव चित्रण को सौंदर्य दिया है। बारह मासों तथा ऋतुओं के प्राकृतिक चित्र संयोग और वियोग में उद्दीपन का काम करते हैं। विरह की विभिन्न दशाओं के वर्णन में समस्त प्रकृति सहायक हुई है तथा अनुभूतियों को भी उसने सुकुमारता प्रदान की है।
'बीसलदेव रासो' की श्रृंगार-परंपरा का आदिकाल में ही अंत नहीं हो जाता। विद्यापति से होती हुई यही परंपरा भक्तिकाल में प्रेमाख्यानक काव्यों तक पहुँची, कृष्ण भक्तों को भी उसने प्रभावित किया तथा रीतिकाल में जाकर उसका सरस शृंगार-काव्य के रूप में चरम विकास हुआ।।
हम्मीर रासो -
प्राकृत-पैंगलम' में इस काव्य के कुछ छंद मिले थे और उन्हीं के आधार पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसके अस्तित्व की कल्पना की थी। उनका अनुमान था कि इसमें हम्मीर और अलाउद्दीन के युद्धों का वर्णन तथा हम्मीर की प्रशंसा चित्रित होगी। किंतु राहुल जी ने उन पद्यों को जज्जल नामक किसी कवि की रचना घोषित किया है। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन है कि 'हम्मीर' शब्द अमीर का विकृत रूप है, जो किसी पात्र का नाम न होकर एक विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता रहा है। अतः शाङ्गधर - कृत इस 'हम्मीर रासो' का अस्तित्व संकट में पड़ा हुआ है। अभी तक इसकी कोई प्रति उपलब्ध नहीं हो सकी है।
परमाल रासो -
उत्तर प्रदेश में 'आल्हखंड' के नाम से जो काव्य प्रचलित है, वही 'परमाल रासो' के मूल रूप का विकसित रूप माना जाता है। यह रासो लोक-गेय काव्य था, अतः इसके मूल की सुरक्षा नहीं हो सकी। इसमें अनेक अंश बाद में जोड़े गए हैं तथा अनेक अंशों में वर्णन और भाषा संबंधी परिवर्तन किए गए हैं। धीरे-धीरे 'आल्हा' लोकगीत की एक शैली ही बन गया है। अतः आधुनिक विषयों पर भी 'आल्ह' लिखे जाने लगे हैं। प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों के अभाव में मौखिक रूप में उपलब्ध 'आल्हखंड' के आधार पर 'परमाल रासो' के साहित्यिक स्वरूप के विषय में कुछ भी कहना कठिन है। 1865 ई. में चार्ल्स इलियट ने जिस 'आल्हखंड' का प्रकाशन कराया था, वह मौखिक परंपरा पर ही आधारित है। इसी प्रति के आधार पर डॉ. श्यामसुंदर दास ने 'परमाल रासो' का पाठ निर्धारित किया और उसे नागरीप्रचारिणी सभा से प्रकाशित कराया। इस नए रूप में उपलब्ध 'परमाल रासो' यद्यपि सर्वथा प्रमाणिक कृति तो नहीं है, तथापि आदिकाल में रचित मूल 'परमाल रासो' के ऐतिहासिक अस्तित्व को समझने में सहायक अवश्य है।
'परमाल रासो' का रचयिता जगनिक नामक कवि माना जाता है, जो महोबा के राजा परमर्दिदेव का आश्रित था।उसने इस काव्य में आल्हा और ऊदल नामक दो वीर सरदारों की वीरतापूर्ण लड़ाइयों का वर्णन किया है। इसी आधार पर इसका रचना काल तेरहवीं शती का आरंभ माना जाता है। इसमें वीर भावना का जितना प्रौढ़ रूप मिलता है, उतना अन्यत्र दुर्लभ है। आज भी जब इसे गायक संगीत के साथ गाते हैं, तब दुर्बलों में भी तलवार चलाने की स्फूर्ति आ जाती है। विवाह और शत्रु- प्रतिशोध वीरता के प्रदर्शन का आधार रहे हैं। युद्धों के अत्यंत प्रभावशाली वर्णनों की इस काव्य में भरमार है। भावों के अनुसार ही भाषा भी चली है और उसमें एक विशेष शब्द- ध्वनि सर्वत्र व्याप्त हो गई है। गेयता का गुण इस काव्य को विकासशील लोकगाथा - काव्य की श्रेणी में ले जाता है, किंतु इसकी रचना लोक-गाथा के रूप में न होकर शुद्ध काव्य के रूप में ही हुई है। भाषा की दृष्टि से इस काव्य का मूल्यांकन कर पाना संभव नहीं, क्योंकि मूल रूप का कोई भी अंश अब शुद्ध रूप में सुरक्षित नहीं है। उसमें अनेक प्रकार के परिवर्तन होते रहे हैं। छंद-विधान की दृष्टि से इस काव्य की एक विशेष शैली है, जिसे आल्ह शैली कहना ही उचित है। इसकी वर्णन शक्ति और प्रभावोत्पादकता को समझाने में निम्नांकित पंक्तियाँ कुछ सहायक हो सकती हैं-
बारह बरस लौ कूकर जीवै, अरु तेरह लौ जियै सयार ।
बरस अठारह क्षत्रिय जीवै, आगे जीवन कौ धिक्कार ।।
पृथ्वीराज रासो -
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि " ( चंद) हिंदी के प्रथम महाकवि माने जाते हैं और इनका ‘पृथ्वीराज रासो' हिंदी का प्रथम महाकाव्य है।" उन्होंने चंदबरदायी को दिल्ली-नरेश पृथ्वीराज चौहान का सामंत और राजकवि माना है। महामहोपाध्याय पं. हरप्रसाद शास्त्री के अनुसार चंदबरदायी का जन्म लाहौर में हुआ था। इनके जन्म-काल के संबंध में कई धारणाएँ हैं। शुक्ल जी ने इनका जन्म वर्ष 1168 ई. माना है तथा लिखा है कि "रासो के अनुसार ये भट्ट जाति के जगात नामक गोत्र के थे। इनके पूर्वजों की भूमि पंजाब थी, जहाँ लाहौर में इनका जन्म हुआ था। इनका और महाराज पृथ्वीराज का जन्म एक ही दिन हुआ था और दोनों ने एक ही दिन यह संसार भी छोड़ा था।" शुक्ल जी ने हरप्रसाद शास्त्री द्वारा प्राप्त चंद का एक वंश-वृक्ष भी प्रस्तुत किया है। वह वंश-वृक्ष शास्त्री जी को नानूराम भाट से प्राप्त हुआ था, जो स्वयं को चंद का वंशज मानता था । उसके कथनानुसार चंद के चार पुत्र थे, जिनमें से चतुर्थ पुत्र जल्ल था। जिस समय पृथ्वीराज को मुहम्मद गोरी बंदी बनाकर अपने देश ले जा रहा था, उस समय चंद भी महाराज के साथ गया था तथा अपने पुत्र जल्ल को 'पृथ्वीराज रासो' सौंप गया था। इस संबंध में यह उक्ति प्रसिद्ध है "पुस्तक जल्हण हत्थ दै, चलि गज्जन नृप काज।" कहा जाता है कि जल्ल ने चंद के अधूरे महाकाव्य को पूर्ण किया था-
रघुनाथ चरित हनुमंत कृत, भूप भोज उद्धरिय जिमि ।
प्रथिराज सुजस कवि चंद कृत, चंद नंद उद्धरिय तिमि ||
यह प्रसिद्ध है कि चंद ने स्वामी के हितार्थ अपना बलिदान किया था। वह बहुत प्रतिभाशाली, दूरदर्शी, वीर तथा स्वामिभक्त कवि था । पृथ्वीराज उसे सदा अपने सखा के समान साथ रखते थे एवं उसकी हर बात मानते थे।
पृथ्वीराज रासो के संस्करण
सभा ने 1584 ई. में लिखित प्रति के आधार पर 'रासो' का संपादन कराया था। इस संस्करण में 69 समय (खंड) तथा 16306 छंद हैं। द्वितीय रूप में उपलब्ध 'पृथ्वीराज रासो' 7000 छंदों का काव्य माना जाता है। इसका प्रकाशन नहीं हुआ, किंतु अबोहर एवं बीकानेर में इसकी प्रतियाँ सुरक्षित हैं, जो सत्रहवीं शताब्दी ईस्वी में लिखी गई हैं। तीसरा लघु संस्करण 3500 छंदों का है, जिसमें केवल 19 समय हैं। इस संस्करण की हस्तलिखित प्रतियाँ भी बीकानेर में सुरक्षित हैं। चौथा संस्करण सबसे छोटा है, जिसमें केवल 1300 छंद हैं। इसी को डॉ. दशरथ शर्मा आदि कुछ विद्वान मूल रासो मानते हैं।
रासो प्रमाणिकता -
इन चारों संस्करणों को देखकर यह प्रश्न सहज रूप में उत्पन्न होता है कि इनमें से प्रमाणिक संस्करण कौन-सा है ? और इसी से लगा हुआ वह विवाद भी बढ़ जाता है. जिसके अनुसार 'पृथ्वीराज रासो' को एक जाली ग्रंथ माना गया है। हिंदी - साहित्य के इतिहास में यह ग्रंथ इस दृष्टि से सर्वाधिक विवादास्पद रहा है। विद्वानों में कई वर्ग बन गए हैं। डॉ. श्यामसुंदरदास मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या, मिश्रबंधु, कर्नल टॉड आदि विद्वानों ने यह माना है कि 'पृथ्वीराज रासो' का जो संस्करण सभा से प्रकाशित हुआ है, वही प्रामाणिक है। दूसरा वर्ग रामचंद्र शुक्ल, कविराजा, श्यामलदान, गौरीशंकर, हीराचंद ओझा, डॉ. बूलर, मुंशी देवीप्रसाद आदि विद्वानों का है, जो 'रासो' को सर्वथा अप्रामाणिक ग्रंथ घोषित करते हैं। आश्चर्य है कि शुक्ल जी अप्रमाणिक मानते हुए भी उसे अपने इतिहास में आदिकाल के अंतर्गत स्थान देते हैं। तृतीय वर्ग के विद्वान मुनि जिनविजय, डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी, डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि यह मानते है कि पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि चंदबरदायी ने ही 'पृथ्वीराज रासो' लिखा था, किंतु मूल रूप आजकल उपलब्ध नहीं है। चौथा मत नरोत्तमदास स्वामी का है। उन्होंने सबसे अलग यह बात कही है कि चंद ने पृथ्वीराज के दरबार में रहकर मुक्तक रूप में 'रासो' की रचना की थी। उनके इस मत से की 'रासो' मूलतः प्रबंधकाव्य नहीं था- अन्य कई विद्वान सहमत नहीं हैं।
वस्तुत: आरंभ में यह ग्रंथ विवादास्पद नहीं था। कर्नल टॉड ने इसकी वर्णन-शैली तथा काव्य-सौंदर्य पर रीझकर इसके लगभग 30 हजार छंदों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया था। तासी भी इसकी प्रमाणिकता में संदेह नहीं करते थे। बंगाल की रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ने इस ग्रंथ का मुद्रण भी आरंभ कराया था। सन् 1875 में डॉ. बूलर ने 'पृथ्वीराज विजय' ग्रंथ के आधार पर इसे अप्रमाणिक रचना घोषित किया। फलतः राजस्थान के कुछ इतिवृत्त - खोजियों- कविराजा मुरारिदान, श्यामलदान, गौरीशंकर, हीराचंद ओझा आदि ने इस काव्य को अप्रमाणिक सिद्ध करने के सायास तर्क जुटाए। इन विद्वानों के तर्कों को निराधार सिद्ध करने का प्रयत्न किया डॉ. दशरथ शर्मा ने वस्तुतः यह विवाद इतना उलझ गया है कि अब तक कुछ विद्वान इसे अप्रमाणिक कृति सिद्ध करने में जुटे हुए हैं। वे एतदर्थ नए-नए तर्क खोजते रहते हैं। कुछ विद्वान ऐसे भी हैं, जो उनके द्वारा खोजे गए तर्कों को निराधार सिद्ध करने के लिए सामग्री जुटाते रहते हैं।
'रासो अप्रमाणिकता के लिए तर्क-
जो लोग 'रासो' को अप्रमाणिक रचना मानते हैं, उनके तर्क निम्नलिखित हैं-
1. 'रासो' में उल्लिखित घटनाएँ और नाम इतिहास से मेल नहीं खाते। इसमें परमार चालुक्य और चौहान क्षत्रियों को अग्निवंशी माना गया है, जबकि वे सूर्यवंशी प्रमाणित हुए हैं।
2. पृथ्वीराज का दिल्ली जाना, संयोगिता स्वयंवर आदि घटनाएँ इतिहास से मेल नहीं खाती।
3. अनंगपाल, पृथ्वीराज तथा बीसलदेव के राज्यों के संदर्भ भी अशुद्ध हैं।
4. पृथ्वीराज की माँ का नाम कर्पूरी था, जो 'रासो' में कमला बताया गया है।
5. पृथ्वीराज की बहिन पृथा का विवाह मेवाड़ के राणा समरसिंह के साथ बताया गया है,
6. पृथ्वीराज द्वारा गुजरात के राजा भीमसिंह का वध भी इतिहास सम्मत नहीं है।
7. 'रासो' में पृथ्वीराज के चौदह विवाहों का वर्णन है, जो इतिहास से मेल नहीं खाता।
8. पृथ्वीराज के हाथों गोरी की मृत्यु की सूचना भी इतिहास सम्मत नहीं है।
9. पृथ्वीराज द्वारा सोमेश्वर का वध भी इतिहास - सम्मत नहीं है।
10. 'रासो' में दी गई तिथियाँ अशुद्ध हैं। सभी तिथियों में इतिहास की तिथियों से प्राय: 90-100 वर्षों का अंतर है।
यदि उपर्युक्त तथ्यों को ही अंतिम प्रमाण मान लिया जाए, तब तो 'पृथ्वीराज रासो' को अप्रमाणिक रचना कहा ही जा सकता है। किंतु दूसरे पक्ष के तर्क भी इस संबंध में विचारणीय हैं-
1. डॉ. दशरथ शर्मा का मत है कि इसका मूल रूप प्रक्षेपों में छिपा हुआ है। इधर जो लघुतम प्रतियाँ मिली हैं, उनमें इतिहास संबंधी अशुद्धियाँ नहीं हैं।
2. घटनाओं में 90-100 वर्षों का जो अंतर है, वह संवत् की भिन्नता के कारण है। मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या ने 'अनंद संवत्' की कल्पना की है और उसके अनुसार तिथियाँ भी शुद्ध सिद्ध होती हैं।
3. डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी का मत है कि 'पृथ्वीराज रासो' में बारहवीं शताब्दी की भाषा की संयुक्ताक्षरमयी अनुस्वारांत प्रवृत्ति मिलती है, जिससे यह बारहवीं शताब्दी का ग्रंथ सिद्ध होता है।
4. 'रासो' इतिहास- ग्रंथ न होकर काव्य-रचना है अतः उसमें इतिहास का सत्य खोजना और उसके न मिलने पर उसे अप्रामाणिक घोषित करना अनुचित है।
5. डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी का यह मत भी है कि 'पृथ्वीराज रासो' की रचना शुक शुकी-संवाद के रूप में हुई थी। अतः जिन सर्गों में यह शैली नहीं मिलती, उन्हें प्रक्षिप्त मानना चाहिए। यदि यह तर्क मान लिया जाए, तो वे ही अंश प्रायः प्रक्षिप्त सिद्ध होते हैं, जिनमें इतिहास विरुद्ध तथ्य हैं।
6. जिन लोगों ने 'रासो' में अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग देखकर उसे जाली ग्रंथ माना है उसके विरुद्ध यह तर्क दिया जाता है, कि चंद लाहौर का निवासी था। वहाँ उस समय मुसलमानों का प्रभाव आ चुका था, अतः उसकी भाषा में अरबी-फारसी के शब्दों का मिश्रण होना सहज है।
वस्तुतः विद्वानों ने बाल की खाल खींचने की चेष्टा में अनेक ऐसे तर्क प्रस्तुत किए हैं, जो इस काव्य की प्रमाणिकता के लिए उचित कसौटी नहीं बन सकते। 'पृथ्वीराज रासो' ही नहीं, 'रामचरितमानस', 'सूरसागर'. 'बीजक' आदि अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथों पर भी यदि अनेक प्रकार के तर्क दिए जाएँ तो उनकी प्रमाणिकता भी किसी-न-किसी सीमा तक संदेह का विषय बन सकती है। 'रामचरितमानस' में तो प्रक्षिप्त अंश स्वीकार किए भी जाते हैं। कई ऐसे पद भी मिलते हैं, जो सूर और मीरा दोनों के नाम से प्रसिद्ध है। अतः प्रक्षिप्तांशों या इतिहास-विरोधी कथनों के आधार पर 'पृथ्वीराज रासो' को अप्रामाणिक मानना उचित नहीं है। चंद ने पृथ्वीराज के जीवन की घटनाओं का जैसा सजीव वर्णन किया है, उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि वह पृथ्वीराज का समकालीन कवि था। अतः 'रासो' को अप्रामाणिक मानना उचित नहीं है। यदि इस विवाद में कोई सत्यांश झलकता भी है, तो वह इतना ही कि 'पृथ्वीराज रासो' में पर्याप्त प्रक्षिप्त अंशों का भी समावेश हुआ है।
'पृथ्वीराज रासो' में -वर्णन का भी आधिक्य है। कवि ने बड़ी तन्मयता के साथ नगरों, वनों, सरोवरों, किलों वस्तु- आदि का वर्णन किया है। युद्ध क्षेत्र के दृश्य तो अद्भुत प्रतिभा का परिचय देते ही है, कवि ने समय और क्रिया को एक साथ बिंबों में बाँधकर रंग और ध्वनियों को भी रूपायित कर दिया है। भाव, वस्तु और ध्वनि की सम्मिलित प्रभावान्विति के उदाहरण 'पृथ्वीराज रासो' में भरे पड़े हैं।
काव्योत्कर्ष -
चंदबरदायी ने इस ग्रंथ में अनेक घटनाओं का समावेश किया है तथा कुछ घटनाएँ बाद में भी चारणों ने जोड़ी हैं, जिससे ऐसा लगता है कि यह काव्य एक घटना-कोश है. परंतु समस्त घटना चक्र के भीतर कवि ने अपनी रस- दृष्टि का नियोजित रूप में विस्तार किया है। अतः इसे 'महाभारत' की तरह एक विशाल महाकाव्य मान सकते हैं। इस काव्य में दो रस प्रमुख हैं- शृंगार और वीर। ये दोनों रस पृथ्वीराज चौहान के चरित्र के दो पाव उन्मुक्त करते हैं। वह जितना वीर है, उतना ही शृंगार- प्रेमी भी है। कवि ने एक ओर तो युद्धों के वर्णन में वीरता और पराक्रम की अद्भुत सृष्टि की है, दूसरी ओर रूप-सौंदर्य और प्रेम के भी सरस चित्र उतारे हैं। नारी दोनों रसों के केंद्र में हैं। उसे पाने के लिए युद्ध होते हैं और पा लेने पर जीवन का विलास-पक्ष अपनी पूरी रमणीयता के साथ उभरता है। ध्यान देने की बात यह है कि प्रेम और शौर्य के सभी चित्रों में कवि ने कुछ नैतिक मर्यादाओं का निर्वाह किया है, जिनके कारण रस की सात्विकता सुरक्षित रही है। एक उदाहरण देखिए-
बज्जिय घोर निसान रान चौहान चहूँ दिसि ।
सकल सूर सामंत समर बल तंत्र-मंत्र तिसि ।
उट्ठि राज प्रथिराज बाग लग्ग मनहु वीर नट ।
कढ़त तेग मन बैग लगत मनहु बीजु झट्ट घट्ट ।।
नारी सौंदर्य का भी एक चित्र देखिए-
मनहुं कला ससिभान कला सोलह सो बन्निय ।
बाल बैस ससि ता समीप अमृत रस पिन्निय।
अमर नैनु खंजन म्रिग लुट्टिय ।
हौर कौर अरु विम्ब मोती खखि अहिवा
छत्रपति गयंद हरि हंस गति बिह बनाय सचै सचिय।
पद्मिनी रूप पद्मावतिष मनहुँ काम कामिनि रचिय ।
वीर और श्रृंगार रसों के पोषण के लिए आवश्यकतानुसार अन्य रसों की भी योजना की गई है और उनके वर्णन में भी कवि ने उतनी ही तन्मयता दिखलायी है।
'पृथ्वीराज रासो' की भाषा के संबंध में भी विवाद रहा है। वस्तुतः यह काव्य पिंगल शैली में लिखा गया है जो ब्रजभाषा का वह रूप है जिसमें राजस्थानी बोलियों का मिश्रण है। कवि ने तत्कालीन सभी प्रचलित शब्दों का स्वतंत्रता से प्रयोग किया है। शब्द चयन रसानुकूल है, अतः वीर रस के चित्रणों में प्राकृत और अपभ्रंश के शब्द भी यत्र तत्र मिल जाते हैं। जहाँ तक भाषा की शक्ति का प्रश्न है, कवि ने अभिधेय भाषा को भी पर्याप्त
प्रभावशाली रूप दिया है। लाक्षणिक तथा ध्वन्यात्मक शब्दावली ने भी प्रायः भाषा-सौंदर्य की वृद्धि की है। अलंकारों का चंद ने सहज प्रयोग किया है। शायद ही कोई अलंकार ऐसा हो जिसे उन्होंने छोड़ा हो। लगभग अड़सठ प्रकार के छंदों में लिखा गया यह महाकाव्य सभी दृष्टियों से आदिकाल की एक श्रेष्ठ कृति सिद्ध होता है।