आदिकालीन साहित्य : राजनीतिक तथा धार्मिक साहित्यिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियाँ
आदिकालीन परिस्थितियाँ प्रस्तावना (Introduction)
➽ साहित्य मानव समाज के विविध भावों एवं नित नवीन रहने वाली
चेतना की अभिव्यक्ति है। किसी काल विशेष के साहित्य की जानकारी से तद्युगीन मानव
समाज को समग्रतः जाना जा सकता है। दूसरे शब्दों में, किसी काल विशेष के साहित्य में पाई जाने वाली
प्रवृत्तियाँ तत्कालीन परिस्थितियों के सापेक्ष होती हैं। यह सिद्धांत इस बात की
आवश्यकता पर बल देता है कि साहित्य के प्रेरक तत्व के रूप में हम युगीन परिवेश को
अवश्य जान लें। आदिकालीन साहित्य भी इसका अपवाद नहीं है।
आदिकालीन साहित्य : परिस्थितियाँ
➽ इस काल के साहित्य में जो प्रमुख विशेषताएँ उपलब्ध हो रही
हैं, वे तद्युगीन
परिस्थितियों से विकसित हुई हैं, अतः आदिकालीन साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियों से परिचित
होने से पूर्व कारण, स्वरूप, तत्कालीन
राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक एवं
सांस्कृतिक स्थितियों का आकलन कर लेना चाहिए। इस काल की विभिन्न परिस्थितियों का
आकलन निम्न शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है।
आदिकालीन साहित्य राजनीतिक तथा
धार्मिक परिस्थितियाँ
1. राजनीतिक परिस्थतियाँ
➽ राजनीतिक दृष्टि से यह युद्ध और अशांति का काल था। सम्राट हर्षवर्द्धन
की - मृत्यु (संवत् 704 वि.) के उपरांत
उत्तर भारत खंड-खंड राज्यों में विभक्त हो गया था। गहरवार, परमार, चौहान और चंदेल
वंशों के राजपूत राजाओं ने अपने-अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिए थे। राजपूत
राजा निरंतर युद्धों की आग में जलते जलते अंतत: शक्तिक्षीण हो गए थे और विदेशी
आक्रांताओं का डटकर मुकाबला करने की स्थिति में नहीं रह गए थे। राजपूत शासकों में
परस्पर युद्ध किसी आवश्यकतावश नहीं होते थे कभी-कभी तो शौर्य प्रदर्शन मात्र के
लिए भी युद्ध किए जाते थे।
➽ भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर विदेशी आक्रमणों का भय बराबर
बना रहता था। 10वीं शताब्दी में
महमूद गजनवी ने और 12वीं शती में
मुहम्मद गोरी ने भारत को पदाक्रांत किया। जनता विदेशी आक्रमणकारियों से तो त्रस्त
थी ही, साथ ही युद्धकामी
देशी राजाओं के अत्याचारों को भी सहन करने को विवश थी । यवन शक्तियों के आक्रमण का
प्रभाव मुख्यतः पश्चिम एवं मध्य देश पर ही पड़ा. इन्हीं क्षेत्रों की जनता युद्धों
एवं अत्याचारों से आक्रांत हुई। धीरे-धीरे समस्त हिंदी प्रदेश में स्थित
राज्यों-दिल्ली, कन्नौज, अजमेर आदि पर
मुसलमानों का अधिकार हो गया।
➽ राजनीतिक परिस्थितियों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि 8वीं शती से 14वीं शती तक का यह
काल खंड युद्ध, संघर्ष एवं
अशांति से ग्रस्त रहा। राजाओं में संकुचित राष्ट्रीयता थी। व्यापक रूप से समूचे
भारत को एक राष्ट्र के रूप में नहीं देखा गया। अराजकता, गृह कलह, विद्रोह एवं
युद्ध के इस वातावरण में कवियों ने एक और तो तलवार के गीत गाए तो दूसरी ओर
आध्यात्मिकता की प्रवृत्ति के कारण हठयोग, उपदेशावृत्ति एवं आध्यात्मिकता की बात कही गई।
2. धार्मिक परिस्थिति
➽ इस काल में अनेक प्रकार के धार्मिक मत-मतांतरों का अस्तित्व था। भारतीय धर्म - साधना में उथल-पुथल मची हुई थी। वैदिक एवं पौराणिक धर्म के साथ-साथ बौद्ध धर्म भी इस काल में अपना प्रभाव जमाने के लिए प्रयासरत थे। राजपूत राजा अहिंसामूलक जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म में विश्वास नहीं करते थे। उन पर शैव मत का प्रभाव अधिक था । गाहड़वार राजा स्मार्त मतावलंबी थे। मालवा नरेश वैदिक धर्म के अनुयायी थे तथा कलचुरी नरेश शैव धर्मावलंबी थे। वस्तुतः समस्त उत्तर भारत में धीरे-धीरे शैव मत बौद्धों एवं स्मार्तों के प्रभाव को ग्रहण करता हुआ एक नए रूप नाथ संप्रदाय के रूप में विकसित हो रहा था।
➽ आदिकाल में धार्मिक दृष्टि से तीन संप्रदायों का विशेष प्रभाव परिलक्षित होता है-सिद्ध संप्रदाय, नाथ संप्रदाय एवं जैन संप्रदाय बौद्ध धर्म कालांतर में विकृत होकर वज्रयान बन गया था। इन वज्रयानियों को ही सिद्ध कहते थे। धर्म की यह विकृत अवस्था थी। धर्म के वास्तविक आदर्शों के स्थान पर आचारविहीनता, चमत्कार प्रदर्शन एवं भोग विलास को प्रमुखता मिल गई थी। सिद्धों का प्रभाव निम्न वर्ग की अशिक्षित जनता पर अधिक था। वे तंत्र-मंत्र, जादू-टोना एवं चमत्कार प्रदर्शन द्वारा सामान्य जनता में अपना प्रभाव जमा रहे थे।
➽ भारत के पश्चिमी प्रदेशों विशेषकर गुजरात में जैन मत का बहुत अधिक प्रचार था। जैन मुनि धार्मिक तत्वों का निरूपण अपभ्रंश भाषा में कर रहे थे। स्वयंभू, पुष्पदंत, हेमचंद्र धनपाल जैसे अनेक कवियों ने अपनी रचनाएँ जैन राजाओं के संरक्षण में लिखीं। बौद्ध धर्म की विकृति का प्रभाव जैन धर्म पर पड़ रहा था और यह भी अपने आदर्शों से दूर हट रहा था।
➽ बौद्ध और जैन धर्म में आई विकृति से वैदिक एवं पौराणिक धर्म में भी विकृति आ गई थी। वैष्णवों के पंचरात्र, शैवों के पाशुपत और शाक्यों के त्रिपुर सुंदरी संप्रदायों में बौद्ध धर्म की पूजा पद्धति एवं वामाचार का प्रभाव परिलक्षित हो रहा था। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इस काल में विभिन्न धर्मो के मूलभूत आधार लुप्त हो चले थे और उनमें विकृतियों का समावेश हो गया था। जनता के समक्ष अनेक धार्मिक राहें बनती जा रही थीं। देशव्यापी इस धार्मिक अशांति के समय इस्लाम धर्म भी भारत के द्वार खटखटा रहा था। यद्यपि भारत में मुसलमानों का आगमन हो चुका था, किंतु इसका धर्म अभी अपने जड़ें नहीं जमा पाया था ।
➽ इन धार्मिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में यह कहना
समीचीन है कि धार्मिक दृष्टि से आदिकाल का वातावरण अत्यंत दूषित था। जनता असंतोष, क्षोभ एवं भ्रम
से ग्रस्त थी। आदिकालीन साहित्य में इसी मानसिकता के अनुरूप खंडन-मंडन, हठयोग, वीरता एवं
शृंगारपरक रचनाओं को देखा जा सकता है।
आदिकालीन सामाजिक, साहित्यिक तथा
सांस्कृतिक परिस्थितियाँ
1. सामाजिक परिस्थिति
➽ राजनीतिक एवं धार्मिक परिस्थितियों के कारण समाज में विशृंखलता आ गई थी।
जनता शासन तथा धर्म दोनों ओर से निराश्रित होती जा रही थी। सामान्य जनता अशिक्षित
थी, जो साधु
संन्यासियों के शापों और वरदानों की ओर दृष्टि लगाए रहती थी पूजा-पाठ, तंत्र-मंत्र और
जप-तप करके लोग दुर्भिक्ष महामारी एवं युद्ध के संकटों को टालना चाहते थे।
ब्राह्मणों के प्रति पूज्यभाव में कमी आ गई थी तथा वर्ण-व्यवस्था के प्रति लोगों
का सम्मान नहीं रह गया था। निम्न समझी जानेवाली जातियों में से अनेक 'सिद्ध' हो जाते थे, जो वेद विरोधी
थे। समाज में क्षत्रियों का प्राधान्य था। राजपूतों में शौर्य तो था परंतु वे उसका
उपयोग पारस्परिक प्रतिस्पर्द्धा एवं संघर्ष में ही करते थे। वे वंशगौरव एवं अभिमान
को लेकर गृह कलह में ही उलझे रहते थे।
➽ समाज में स्त्रियों के प्रति पूज्यभाव नहीं था, वे मात्र भोग्या बनकर रह गई थीं। सती प्रथा इस काल का एक भयंकर कोढ़ था। तत्कालीन भारत में स्वयंवर प्रथा भी थी, जो प्रायः युद्ध का कारण बन जाती थी । सुंदर राजकुमारियों से बलपूर्वक विवाह करने के लिए राजपूतों में युद्ध छिड़ जाना एक सामान्य बात हो गई थी। राजा और सामंत अंतः मुखी रंगरेलियों में व्यस्त रहते थे।
➽ जीवन-यापन के साधन दुर्लभ थे तथा निर्धनता, युद्ध, अशांति के कारण जनता सदैव आतंकित रहती थी। तत्कालीन रासो काव्यों में समाज की इस ह्रासोन्मुख स्थिति का पूरा-पूरा चित्र उपलब्ध होता है।
2. आदिकालीन साहित्यिक परिस्थिति -
➽ आदिकाल में साहित्य रचना की तीन धाराएँ बह रही थीं। एक ओर तो परंपरागत
संस्कृत साहित्य की रचना हो रही थी, तो दूसरी ओर प्राकृत अपभ्रंश भाषा में प्रभूत साहित्य का
सृजन, जैसे कवियों के
द्वारा किया जा रहा था। तीसरी धारा हिंदी में लिखे जाने वाले साहित्य की थी।
➽ इस काल में संस्कृत साहित्य के अंतर्गत पुराणों एवं
स्मृतियों पर टीकाएँ लिखी गईं तथा ज्योतिष एवं काव्यशास्त्र पर अनेक मौलिक ग्रंथों
की रचना की गईं। 9वीं से 11वीं शती तक
कन्नौज एवं कश्मीर संस्कृत साहित्य के केंद्र रहे हैं। आनंदवर्द्धन, मम्मट, भोज, क्षेमेंद्र, कुंतक, राजशेखकर, विश्वनाथ, भवभूति एवं
श्रीहर्ष जैसी प्रतिभाएँ इसी युग की देन हैं।
➽ इस काल में अपभ्रंश प्रमुखतः धर्म की भाषा बन गई थी। जैन
कवियों ने गुजरात में रहकर अनेक पुराणों को अपभ्रंश में नए रूपों में प्रस्तुत
किया। स्वयंभू, पुष्पदंत, धनपाल, हेमचंद्र जैसे
जैन कवियों ने जो साहित्य प्रस्तुत किया है, वह अपनी मौलिकता एवं साहित्यिक के कारण उच्चकोटि का है।
➽ देशभाषा हिंदी में भी जनता की मानसिक एवं भावात्मक दशाओं की
अभिव्यक्ति एक वर्ग कर रहा था जिसे भाट या चारण कवि कहा गया। चारण कवियों की
सामयिक आवश्यकता पर बल देते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है, "उस समय तो जो भाट
या चारण किसी राजा के पराक्रम, विजय, शत्रु कन्या हरण का अत्युक्ति पूर्ण आलाप करता या
रणक्षेत्रों में जाकर वीरों के हृदय में उत्साह की उमंगें भरा करता था, वही सम्मान पाता
था। " निरंतर युद्ध के लिए प्रोत्साहित करने वाले एक वर्ग की आवश्यकता थी।
चारण इसी श्रेणी के कवि थे। जिस प्रकार योरोप में वीरगाथाओं का विषय युद्ध और
प्रेम रहा है, उसी प्रकार इन
रचनाओं में भी वीर एवं श्रृंगार रसों की प्रधानता रही है। हिंदी भाषा में रचित इन
काव्य ग्रंथों में एक ओर अपने आश्रयदाताओं की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा की गई है तो
दूसरी ओर उनके युद्धोन्माद को व्यक्त करने वाली घटनाओं की योजना भी की गई है।
3. आदिकालीन सांस्कृतिक परिस्थिति-
➽ सम्राट हर्षवर्द्धन के समय भारत सांस्कृतिक दृष्टि से अपने शिखर पर था हिंदू धर्म एवं संस्कृति राष्ट्रव्यापी एकता का आधार था। किंतु कालांतर में मुस्लिम आक्रमणकारियों ने अपने संकीर्ण दृष्टिकोण एवं धर्मान्धता की भावना से प्रेरित होकर भारतीय संस्कृतिक के मूल केंद्रों मंदिरों मठों एवं विद्यालयों को नष्ट करने का पूरा-पूरा प्रयास किया।
➽ हिंदुओं की स्थापत्य कला धार्मिक भावना से ओतप्रोत थी तथा अत्यंत उच्चकोटि की थी। प्रसिद्ध इतिहासकार अलबरूनी के अनुसार, "हिंदू कला के अत्यंत उच्च सोपान पर पहुँच चुके हैं। मुसलमान जब उनके मंदिर आदि को देखते हैं तो आश्चर्य चकित हो जाते हैं। वे न तो उनका वर्णन कर सकते हैं और न वैसा निर्माण ही कर सकते हैं।" संपूर्ण भारत में ऐसे अनेक मंदिरों का निर्माण आदिकाल में ही हुआ-आबू का जैन मंदिर, खजुराहों का कंदर्पेश्वर, पुरी, भुवनेश्वर, वेलोर, कांची आदि के मंदिर इसी काल की देन है।
➽ मुस्लिम संस्कृति का प्रभाव आदिकालीन हिंदू संस्कृति पर अनेक क्षेत्रों में पड़ने लगा था। उत्सव, मेले, परिधान, आहार, मनोरंजन आदि अनेक बातों में मुस्लिम रंग चढ़ने लगा था। दूसरी ओर हिंदू संगीतकला, वास्तुकला, आयुर्वेद एवं गणित का प्रभाव मुस्लिम संस्कृति पर पड़ने लगा। यह निष्कर्ष निकाल लेना इस दशा में असंगत न होगा कि आदिकालीन भारतीय संस्कृति परंपरा से विच्छिन्न होकर मुस्लिम संस्कृति के गहरे प्रभाव को स्वीकार करती जा रही थी।
➽ संगीत के क्षेत्र में दोनों संस्कृतियों ने परस्पर आदान-प्रदान पर्याप्त मात्रा में किया है। गायन-वादन और नृत्य पर मुस्लिम प्रभाव पड़ रहा था तथा अनेक वाद्ययंत्रों सारंगी, तबला, अलगोजा से हिंदू परिचित हो रहे थे। आदिकालीन भारतीय संस्कृति निश्चित रूप से ह्रासोन्मुख थी।