ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (11th Five Year Plan)
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के उद्देश्य लक्ष्य एवं नीतियों की रूपरेखा
(Objective, Targets and Policies Outlined of 11th Five Year Plan)
योजना आयोग ने 11 वीं पंचवर्षीय योजना के दिशा-निर्देश पत्र ( Approach) की रूपरेखा जनवरी 2006 में प्रस्तुत की। इस प्रारूप पर राष्ट्रीय विकास परिषद (National Development Council) ने विचार किया। अतः दिशानिर्देश पत्र का अन्तिम विवरण दिसम्बर 2006 में पेश किया गया जिसका शीर्षक था, "तेज और अधिक समावेशी विकास की ओर" (Towards faster and more inclusive growth) । इस प्रलेख में यह बात स्वीकार की गयी है कि दसवीं योजना (2002-07) में चाहे औसत वार्षिक सकल देशीय उत्पाद (Gross Domestic Prouduct) की वृद्धिदर त्वरित करके 7.2 प्रतिशत कर ली गई है परन्तु यह आम आदमी की समस्याओं का समाधान नहीं कर पायी। 11वीं पंचवर्षीय योजना के शब्दों में "यह निष्पादन हमारी अर्थव्यवस्था की मजबूती और निजी क्षेत्र की गत्यात्मकता को प्रतिबिम्बित करता है। इसके साथ यह भी सच है कि आर्थिक विकास, विशेषकर नब्बे के दशक के मध्य के पश्चात् पर्याप्त रूप में समावेशी ( Inclusive ) बनने में विफल रहा है। कृषि ने इस समय के पश्चात् अपने विकास की गति खोई है और तत्पश्चात् वह लगभग संकट की स्थिति में है। तेज विकास होने के बावजूद संगठित क्षेत्र में नौकरियों में वृद्धि नहीं हुई है। गरीबी रेखा (Poverty lines) के नीचे हमारी जनसंख्या के अनुपात में कमी हुई है, परन्तु यह केवल एक मर्यादित गति से कुपोषण के स्तरों में भी थोड़ी कमी हुई है परन्तु इस समस्या का आकार अभी भी बहुत अधिक है। जनसामान्य का एक बड़ा भाग बुनियादी सेवाओं जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, पीने का साफ पानी और सफाई से वंचित है जिनके बिना वे विकास के लाभों में अपने भाग का दावा नहीं कर सकते।"
प्रलेख फिर भी इस बात पर बल देता है- “ तीव्र विकास
हमारी रणनीति के लिए दो कारणों से अनिवार्य है। पहला, केवल तेजी से
विकसित हो रही अर्थव्यवस्था में यह आशा की जा सकती है कि हम अपनी जनसंख्या के
अधिकतर भाग की आय बढ़ा सकेंगे ताकि जीवन स्तर में सामान्य उन्नति हो सके। दूसरे
तेज विकास इसलिए भी अनिवार्य है ताकि बुनियादी सेवाएं (Basic
services) उपलब्ध करायी जा सकें। "
योजना आयोग ने प्रस्ताव किया है कि “ आर्थिक विकास की
वृद्धि दर बढ़ाकर ग्यारहवीं योजना में 9 प्रतिशत के इर्द गिर्द की जा सकती है, यदि उचित नीतियां
तय कर ली जाएं। जनसंख्या की वृद्धिदर 1.5 प्रतिशत होने के साथ, जी.डी.पी. की 9
प्रतिशत वृद्धि द्वारा वास्तविक प्रति व्यक्ति आय 10 वर्षों में दुगुनी की जा सकती
है। इसके साथ ऐसी नीतियों को जोड़ना होगा जो यह सुनिश्चित करें कि विकास विस्तृत
आधार वाला है जिससे जनसंख्या के सभी वर्गों को लाभ हो, विशेषकर उनको जो
अभी तक वंचित रहे हैं।"
जी.डी.पी. को 9 प्रतिशत समग्र वृद्धिदर के साथ, कृषि के विकास की
दर 4 प्रतिशत निश्चित की गयी है, उद्योग की 10.5 प्रतिशत और सेवाओं की 9.9
प्रतिशत। 10वीं योजना में प्राप्त वृद्धिदर की तुलना में कृषि की वृद्धिदर दुगुने
से भी अधिक की जाएगी, परन्तु उद्योग में 8.3 प्रतिशत से दर मामूली
बढ़ा कर 10.5 प्रतिशत और सेवाओं में 9 प्रतिशत से 9.9 प्रतिशत की गई है।
ग्यारहवीं योजना के समष्टि आर्थिक सूचक (Macro Economic Indicators) तालिका 1 में दिए गए हैं-
योजना में यह अनुमान लगाया गया है कि 9 प्रतिशत की वृद्धिदर
निवेश की 35.1 प्रतिशत दर के साथ प्राप्त की जा सकती है। अत: पूंजी-उत्पाद अनुपात
3.9 कल्पित किया गया है।
निवेश दर को 35.1 प्रतिशत तक बढ़ाने के लिए देशीय बचत दर को
उन्नत करके 32.3 प्रतिशत करना होगा। अतः विदेशी निवेश से 2.8 प्रतिशत साधन प्राप्त
किए जाएंगे।
योजना प्रलेख में यह उल्लेख किया गया है-" एक
व्यवहार्य लक्ष्य यह होगा कि 10वीं योजना के अन्त तक प्राप्त 8 प्रतिशत की
वृद्धिदर को बढ़ा कर 11वीं योजना के अन्त तक 10 प्रतिशत किया जाए, तभी 11वीं योजना
में औसतन लगभग 9 प्रतिशत औसत वृद्धिदर प्राप्त की जा सकेगी। विकास की संरचना ऐसी
होनी चाहिए जिसके लाभ विस्तृत रूप में फैले हुए हों। इस संदर्भ में कृषि की वृद्धि
दर लगभग दुगुनी करने का विशेष महत्त्व है। इसके साथ-साथ गैर-कृषि रोजगार का तीव्र
विकास करना होगा ताकि 7 करोड़ नयी नौकरियां कायम की जा सकें। यदि ये लक्ष्य
प्राप्त कर लिये जाते हैं, तो गरीबी स्तर के नीचे रहने वाली जनसंख्या के
अनुपात में योजना के अन्त तक 10 प्रतिशत की कमी प्राप्त की जा सकती है। "
सर्व शिक्षा अभियान ( Education for all ) -
6-14 वर्ग की आयु के बच्चों में सर्वशिक्षा अभियान के तहत 100 प्रतिशत नामांकन 2007 तक प्राप्त कर लिया जाएगा। किन्तु नामांकन केवल पहला कदम है। बच्चों को आठ वर्ष की पढ़ायी पूरी करनी होगी और यह चुनौती अब भी बनी हुई है। 2003-04 में स्कूल छोड़ने वाले बच्चों का समग्र देश में अनुपात लगभग 31 प्रतिशत था और यह कुछ राज्यों में और भी अधिक था। स्कूल छोड़ने वाले लड़कों एवं लड़कियों का अनुपात सभी सामाजिक वर्गों में कम करना होगा, यदि यह पूर्णतया समाप्त न भी किया जाए। भौतिक और मानवीय आधारसंरचना (Physical and Human Infrastructure) को ध्यान में रखते हुए 11वीं योजना उल्लेख करती है - "हमें यह भी दृष्टि में रखना होगा कि हमारे स्कूलों में केवल 28 प्रतिशत स्कूलों को बिजली प्राप्त है और लगभग आधे स्कूलों में दो अध्यापक और दो कमरे हैं। हमारे प्राथमिक स्कूलों में केवल 40 प्रतिशत अध्यापक ग्रेजुएट थे और 30 प्रतिशत ने हायर सेकेण्डरी भी पूरा नहीं किया था। एक गैर-सरकारी संस्था प्रथम को उद्धरित करते हुए, योजना प्रलेख में उल्लेख किया गया- " चौथी तक शिक्षा प्राप्त 38 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं जो छोटे वाक्यों वाला छोटा-सा पैराग्राफ भी पढ़ नहीं सकते जो दूसरी कक्षा तक शिक्षा प्राप्त बच्चों के लिए है। लगभग 55 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं जो तीन अंकों वाली संख्या को एक अंक वाली संख्या से भाग नहीं दे सकते।"
माध्यमिक शिक्षा (Secondary Education ) -
केवल प्राथमिक
शिक्षा का सर्वव्यापीकरण (Universalisation) ज्ञान
अर्थव्यवस्था (Knowledge Economy) के लिए काफी नहीं ऐसा व्यक्ति जिसने केवल 8
वर्षों की पढ़ायी की हो, ज्ञान अर्थव्यवस्था में जिसमें सूचना एवं संचार
टेक्नोलॉजी का प्रभुत्व है जो आधुनिक उद्योगों और सेवाओं का प्रयोग करती है अनपढ़
ही माना जाएगा और उसे अलाभ ही होगा। 11वीं योजना में शिक्षा के न्यूनतम स्तर को
बढ़ाकर हाईस्कूल या 10वीं कक्षा के स्तर तक ले जाने का प्रयास किया जाना चाहिए।
योजना में यह बात जान ली गयी है कि सेकेन्डरी स्कूलों का
लगभग 58 प्रतिशत निजी सहायता प्राप्त या गैर - सहायता प्राप्त स्कूल हैं जिनमें
विद्यार्थी जनसंख्या का 25 प्रतिशत शिक्षा प्राप्त करता है। परन्तु चूंकि पब्लिक
स्कूलों में पढ़ायी की लागत अधिक है, सरकारी स्कूलों
में 75 प्रतिशत बच्चे शिक्षा प्राप्त करते हैं। गरीब परिवारों से आने वाले बच्चों
की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जो प्राथमिक शिक्षा पूरी कर लेते हैं, यह जरूरी है कि
सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता उन्नत की जाए।
तकनीकी या व्यावसायिक शिक्षा (Technical or Vocational Training)-
भारत में 5,000 औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान (ITIs) श्रम मंत्रालय के
अधीन हैं और 7,000 व्यावसायिक स्कूल मानव संसाधन विकास मंत्रालय की देखरेख में
कार्य करते हैं। 11वीं योजना के अनुसार इन व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थानों की कुल
सामर्थ्य 20 से 30 लाख है और इस सामर्थ्य को बढ़ा कर 150 लाख करने की आवश्यकता है।
भारत में आई.टी.आई. संस्थानों में केवल 40 प्रकार के कौशल का प्रावधान है जबकि चीन
में यह 4,000 प्रकार के कारीगरी के काम सिखाते हैं। इनमें सार्वजनिक-निजी मॉडल को
मजबूत बनाने की आवश्यकता है और उद्योग को भी साथ लेना होगा ताकि नवीनतम प्रकार की
तकनालॉजी का प्रशिक्षण दिया जाए जो उद्योगों में आज इस्तेमाल हो रही है या जिसकी
निकट भविष्य में जरूरत है।
उच्च शिक्षा और तकनीकी शिक्षा ( Higher and Technical Education) -
चाहे भारत में एक सुविकसित और व्यापक उच्च
शिक्षा प्रणाली है, परन्तु इसके द्वारा कॉलेजों और विश्वविद्यालयों
के लिए प्रासंगिक आयुवर्ग के 10 प्रतिशत के लिए प्रावधान है जबकि बहुत से विकासशील
देशों में यह आंकड़ा 20 से 25 प्रतिशत है।
इस सम्बन्ध में तीन उद्देश्य होने चाहिए विस्तार, समावेश और श्रेष्ठता (Expansion, inclusion and excellence) यह बात बड़ी चिन्ता का विषय है कि 6 से 8 राज्यों में ही इंजीनियरिंग कॉलेजों या जैव तकनालॉजी प्रयोगशालाओं का 60 प्रतिशत है। 11वीं योजना में उच्च शिक्षा का विस्तार करते समय इस क्षेत्रीय विभाजन का ध्यान रखा जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त, उच्च शिक्षा को विभिन्न उपायों के प्रयोग द्वारा अधिक समावेशी बनाने की आवश्यकता है। । इस सम्बन्ध में केन्द्र सरकार, अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के अतिरिक्त अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण (Reservations) का विस्तार करने का प्रयास कर रही है। किन्तु ऐसा करते समय यह ध्यान रखना होगा कि सभी वंचित वर्गों में मलाईदार परत (Creamy layer) को बाहर रखा जाए ताकि यह आरक्षण के लाभ हड़प न जाए। इसके अतिरिक्त, उच्च वर्गों में गरीबों को भी उच्च शिक्षा का लाभ उपलब्ध कराने के लिए आरक्षण देना चाहिए। साथ ही गरीब बच्चों के लिए शिक्षा सम्बन्धी ऋण और छात्रवृत्तियों का प्रावधान करने की जरूरत है ताकि वे उच्च शिक्षा प्राप्त कर सामाजिक सीढ़ी के उच्च पायदान पर पहुँच सकें। तीसरे, निजी प्रबंध और सार्वजनिक प्रबन्ध के आधीन उच्च शिक्षा संस्थानों में शिक्षा की गुणवत्ता (Quality) विकसित करनी चाहिए। इस सम्बन्ध में उच्च शिक्षा प्राप्त विद्यार्थियों के लाभार्थियों (Beneficiaries) अर्थात् राज्य सरकार और निगम क्षेत्र को इस उद्देश्य के लिए आवश्यक संसाधनों का प्रावधान करना चाहिए।
स्वास्थ्य के सम्बन्ध में, स्वास्थ्य सेवाओं अर्थात् मातृ एवं बाल स्वास्थ्य देखरेख, शुद्ध पेयजल और मूल सफाई सेवाओं की उपलब्धि की हमारी अधिकतर जनसंख्या के लिए भारी कमी है, विशेषकर गरीब वर्गों के लिए तो इनकी न्यूनतम मात्रा भी उपलब्ध नहीं।
कुछ सेवाएं जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य देखरेख निजी क्षेत्र
में उपलब्ध हैं परन्तु उनकी पूर्ति बहुत महंगी है और वे आम आदमी की पहुंच के बाहर
हैं। जाहिर है कि इन सेवाओं को उपलब्ध कराने के लिए वित्त पोषण का अधिकतर - भाग
सार्वजनिक क्षेत्र को उठाना होगा।
दसवीं योजना ने भी इस सम्बन्ध में उल्लेख किया" इन
सेवाओं की उपलब्धि घटिया है और जिन लोगों को इन्हें उपलब्ध कराने का दायित्व सौंपा
जाता है, उनकी जवाबदेही नहीं हो पाती।" ग्रामीण क्षेत्रों में
जवाबदेही में सुधार लाने के लिये योजना में यह सुझाव दिया गया है कि इनका अधिक
सक्रिय निरीक्षण पंचायती राज संस्थानों द्वारा किया जाए। शहरी क्षेत्रों में
गैर-सरकारी संस्थाओं की सहायता ली जा सकती है। सैकेन्डरी एवं उच्च शिक्षा और
तृतीयक स्तर की स्वास्थ्य देखरेख (Tertiary healthcare ) के लिए जवाबदेही
लाने के अन्य तरीके ढूंढने होंगे। शिक्षा, स्वास्थ्य एवं
सम्बन्धित अनिवार्य सेवाओं की गुणवत्ता (Quality) का विस्तार करने
तथा इन्हें विस्तार करने तथा इन्हें उन्नत करने के लिए सार्वजनिक व्यय को बढ़ाना
अनिवार्य है। केन्द्र एवं राज्य सरकारों को इन सेवाओं के लिए बजट आवंटन ( Budget
allocations) बढ़ाने होंगे।
11वीं योजना में परीक्षण योग्य समाजार्थिक लक्ष्य आय और गरीबी
• जी.डी.पी की वृद्धिदर को 8 प्रतिशत से 10 प्रतिशत करना और इसे 12वीं योजना के दौरान बनाए रखना ताकि 2016-17 तक प्रति व्यक्ति आय दुगुनी की जा सके।
• लाभों के विस्तृत प्रयास के लिए कृषि की जी.डी.पी. की वृद्धि दर को 4 प्रतिशत करना ।
• रोजगार के 7 करोड़ नये अवसर कायम करना
• शिक्षित बेरोजगारी को 5 प्रतिशत के नीचे लाना
• अकुशल श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी दर में 20 प्रतिशत
वृद्धि प्राप्त करना उपभोग निर्धनता के व्यक्ति गणना अनुपात को 10 प्रतिशत कम करना
शिक्षा
- प्राथमिक स्कूलों में पढ़ाई छोड़ने वाले बच्चों की दरों को 2003-04 में 52.2 प्रतिशत थी घटाकर 2011-12 तक 20 प्रतिशत करना
- सात वर्ष से अधिक वाले व्यक्तियों की साक्षरता दर को 85 प्रतिशत या इससे अधिक करना
- साक्षरता में पुरुष - स्त्री अन्तर को 10 प्रतिशत अंक कम करना
- उच्च शिक्षा के लिए प्रासंगिक आयु वर्ग के युवकों के अनुपात को वर्तमान 10 प्रतिशत से बढ़ाकर 11वीं योजना के अन्त तक 15 प्रतिशत करना
स्वास्थ्य
- प्रति 1000 जीवित जन्मों पर शिशु मृत्युदर को 28 और मातृ मृत्यु दर को । के स्तर पर लाना
- सकल प्रजनन दर को 2.1 तक कम करना 2009 तक सभी को पीने का पानी उपलब्ध कराना
- 0-3 वर्ष के आयुवर्ग के बच्चों में कुपोषण के वर्तमान स्तर को आधा करना ।
- स्त्रियों एवं लड़कियों में रक्तक्षीणता (Anaemia) को 11वीं योजना के अन्त तक 50 प्रतिशत कम करना
आधोरसंरचना
- सभी ग्रामों और गरीबी रेखा के नीचे परिवारों को 2009 तक बिजली का कनेक्शन उपलब्ध कराना और योजना के अन्त तक 24 घण्टे बिजली मुहैया कराना
- 1000 से अधिक जनसंख्या को ( पहाड़ी और जनजाति क्षेत्रों में 500 से अधिक आबादी वाले) बारहमासी स्थानों की सड़कों से 2009 तक जोड़ना और सभी महत्त्वपूर्ण निकास स्थानों के 2015 तक जुड़ाव को सुनिश्चित करना
- नवम्बर 2007 तक सभी गांवों को टेलीफोन से जोड़ना और सभी गांवों को 2012 तक ब्राडबैंड सम्पर्क की व्यवस्था करना
- 2012 तक सभी को वासभूमि (Homestead sites ) उपलब्ध कराना और ग्रामीण गरीबों के लिए आवास निर्माण की गति को तेज करना ताकि 2016-17 तक सभी गरीबों को मकान उपलब्ध कराए जा सकें।
कृषि - वृद्धिदर को त्वरित कर 4 प्रतिशत तक ले जाना
कृषि की वृद्धि दर को त्वरित कर सकल देशीय उत्पाद के 4
प्रतिशत तक ले जाना कोई आसान काम नहीं। दसवीं योजना के पहले तीन वर्षों के दौरान, कृषि जी. डी. पी.
(जिससे वाणिकी एवं मत्स्य भी शामिल हैं) की वृद्धि दर केवल 1.7 प्रतिशत रही है।
अतः 11वीं योजना में कृषि वृद्धिदर को दुगुना करने की चुनौती का सामना करने के लिए
बहुत से क्षेत्रों में विशेष प्रयास करने होंगे-
प्रथम, लागतों में वृद्धि की तुलना में कृषि वस्तुओं
की कीमतों में साक्षेप वृद्धि नहीं हुई और इसके परिणामस्वरूप, कृषि की
लाभदायकता (Profitability) गिर रही है। कृषि वस्तुओं की कीमतों को उन्नत करने के लिए
सरकारी हस्तक्षेप करना होगा। इस उद्देश्य के लिए 11वीं योजना में कृषि उपज विपणन
समिति कानूनों (Agricultural Produce Marketing Committee Acts) में संशोधन करना
होगा।
दूसरे, यह आवश्यक है कि हम अपनी दृष्टि विशेष फसल की
उत्पादिता (Productivity ) से हटा कर इसे फार्म- आय (Farm income) की ओर मोड़ें, इसके लिए फार्म
को एक बहु उत्पाद प्रणाली ( Multi-product system) मानना होगा।
तीसरे किसानों पर राष्ट्रीय आयोग ने यह सिफारिश की है कि
कृषि में सार्वजनिक निवेश (Public investment) बढ़ाया जाए, विशेषकर सिंचाई, वाटरशैट विकास, ग्रामीण सड़कों
में जुड़ाव (Connectivity) और ग्रामीण बिजलीकरण पर ।
11वीं योजना के दिशानिर्देश पत्र में 110 लाख हैक्टेयर अतिरिक्त भूमि सिंचाई के आधीन लायी जाएगी - 55 लाख हैक्टेयर बड़ी और मध्यम सिंचाई द्वारा 35 लाख हैक्टेयर छोटी सिंचाई द्वारा और लगभग 20 लाख हैक्टेयर भूगर्भ जल विकास द्वारा।
योजना में यह अनुमान लगाया गया कि कृषि के पुनः उत्थान के 4
प्रतिशत के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए 80,000 करोड़ रुपये की प्रावधान करने की
जरूरत है। दिशा निर्देश पत्र ने सुझाव दिया है कि अतिरिक्त आवंटन के अलावा, रोजगार गारंटी
प्रोग्राम से संसाधन प्राप्त करने चाहिए।
चौथी, 11 वीं योजना के दिशानिर्देश पत्र की एक और
मुख्य सिफारिश भू-सुधार की आवश्यकता को स्वीकार करना है। इस सम्बन्ध में, 11वीं योजना
उल्लेख करती है- " स्वीकृत काश्तकारी अधिकारों के अभाव के कारण दोषी
काश्तकारों को औपचारिक स्रोतों से ऋण प्राप्त करना कठिन हो जाता है। ऐसे काश्तकार
जिनके पास कानूनी अधिकार नहीं है, उन्हें भूमि उन्नत करने के लिए प्रोत्साहन का
अभाव है और इस कारण एक हद तक उत्पादिता में कमी की व्याख्या की जा सकती है।
पांचवें कृषि में ज्ञान अभाव (Knowledge deficit) की पहचान करना जरूरी है। इसके लिए कृषि विस्तार प्रणाली (Agricultural Extension System) को पुनः सशक्त करने की जरूरत है और प्रत्येक जिले में कृषि विकास केन्द्रों को उन्नत करना होगा। इसके लिए भूमि परीक्षण (Soil testing) द्वारा किसानों को सूक्ष्म पोषकों (Micro- nutrients) की कमी सम्बन्धी सूचना देने का भारी विस्तार करना होगा।
छठे, किसानों को मुफ्त बिजली उपलब्ध कराने की नीति
की समीक्षा की आवश्यकता है। इसी प्रकार उर्वरक साहाय्य (Fertilizer
subsidy) की वर्तमान प्रणाली स्वसंतुलित नहीं है और इसके
परिणामस्वरूप नाइट्रोजन उर्वरक का अत्यधिक प्रयोग होता है जोकि दीर्घकालीन
उत्पादिता (Longterm productivity) को कम करता है। दिशानिर्देश पत्र में इस
सम्बन्ध में उल्लेख किया गया- "ये राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील मुद्दे हैं
परन्तु इनकी उपेक्षा करने से समस्या और भी गंभीर हो जाएगी।"
सातवें, ऋण की अपर्याप्त पहुंच अधिकतर किसानों पर
प्रभाव डालती है और उन्हें महाजनों के चंगुल में धकेल देती है जो उनसे अत्यधिक
ब्याजदर वसूल करते हैं। ऐसा करने के लिए सहकारी ऋण प्रणाली को पुनः जीवित करना
होगा | दिशानिर्देश पत्र के अनुसार, "केन्द्रीय सरकार
ने सहकारी प्रणाली को पुनः पूंजीकृत ( Recapitalize) करने के लिए अपनी
रजामन्दी का संकेत किया है यदि राज्य सरकारें ऐसे ढांचे को स्वीकार कर लें जिसमें
ऋण सहकारी समितियों का प्रभावी रूप में अराजनीतिकरण (Depoliticization
) किया जा सके।
अन्तिम, दीर्घकाल में, वैज्ञानिक प्रगति
के पूर्ण उपयोग के लिए कृषि अनुसंधान को पुनः जीवित करना होगा जिससे विभिन्न कृषि
जलवायु संबंधी क्षेत्रों (Agro-climatic zones) में उत्पादिता
बढ़ सके। केन्द्र सरकार को इस सम्बन्ध में स्वामीनाथन और माशेलकर समितियों की
सिफारिशों को लागू करना चाहिए।
औद्योगिक वृद्धि को 10 प्रतिशत करने का लक्ष्य
" 11 वीं योजना में जी.डी.पी. की औसत वृद्धि दर को 9
प्रतिशत तक ले जाने के लिए आवश्यक है कि उद्योग की वृद्धिदर 10.5 प्रतिशत और
विनिर्माण (Manufacturing) की 12 प्रतिशत की जाए। इसके लिए औद्योगिक क्षेत्र में निवेश
में भारी वृद्धि करनी होगी और इसके साथ-साथ टेक्नोलॉजिकल उन्नयन (Technoligical
upgradation) और आधुनिकीकरण द्वारा कौशल के वे स्तर प्राप्त करने होंगे
जिनसे बढ़ते हुए प्रतिद्वन्द्वी विश्व में जीवित रहा जा सके। दिशानिर्देशपत्र में
उल्लेखनीय किया गया है- “ भारतीय विनिर्माण अत्यधिक द्वैतवादी (Dualistic)
है जिसमें संगठित
क्षेत्र विनिर्माण मूल्य का 67 प्रतिशत उत्पन्न करता है परन्तु विनिर्माण द्वारा
रोजगार में केवल 12 का योगदान देता है।... 11वीं योजना की स्पष्ट प्राथमिकता उस
संगठित क्षेत्र को प्रोत्साहित करने की होगी जो अधिक श्रम को रोजगार प्रदान करे और
साथ में असंगठित क्षेत्र की उत्पादिता बढ़ानी होगी । '
“ श्रम-प्रदान बड़े पैमाने के विनिर्माण पर आधारित निम्न कौशल के प्रयोग वाले क्षेत्रों द्वारा औद्योगिक क्षेत्र में रोजगार के विस्तार के अवसर हैं। चीन ने इस संदर्भ में सराहनीय उपलब्धि प्राप्त की है और विश्व बाजार को खोल दिया है जिसमें हम भी प्रभावी रूप से प्रतियोगिता कर सकते हैं।
अतः यह उचित होगा कि अब ध्यान मध्यम और छोटे उद्यमों की ओर
केन्द्रित किया जाए। कृषि संस्करण (Agro- processing), रेशम उत्पादन और
अन्य बहुत से उद्योग मध्यम तथा छोटे उद्यमों को प्रोत्साहित कर विकसित किए जा सकते
हैं। समूह विकास पद्धति (Cluster development approach) द्वारा इनकी जीवन
क्षमता बढ़ायी जा सकती है और समूह में विद्यमान इकाइयों को आधारसंरचना सूचना, उधार और बेहतर
किस्म की सहायक सेवाओं का कम लागत पर प्रावधान किया जा सकता है।
11 योजना ने अपना ध्यान विशेष आर्थिक क्षेत्रों की ओर देते
हुए लिखा है- “ विशेष आर्थिक क्षेत्रों (Special Economic Zones) और देशीय टैरिफ
क्षेत्र (Demestic Traiff Area ) में विनिर्माण इकाइयों के बीच खेल का हमवार
मैदान नहीं है और ऐसी वस्तुओं और सेवाओं को जो पहले ही बिना रियायतों के निर्यात
की जा रही हैं, कर-रियायतें (Tax concessions) देने से राजस्व
की भारी हानि हो सकती है। इन रियायतों के सम्बन्ध में विचार किया जाना चाहिए और
जहां आवश्यक हो उचित रक्षा बचाव उपाय करने होंगे। "
दिशानिर्देश पत्र इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए सुधार के और उपायों की सिफारिश करता है-
1. श्रम- लोचशीलता (Labour flexibility) उपलब्ध कराने की आवश्यकता है।" श्रम कानून में लोचशीलता के अभाव के कारण हम संगठित विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार के विस्तार के अवसर से वंचित हो जाते हैं। यह संवेदनशील मुद्दा है, परन्तु केन्द्र सरकार को इस पर सहमति प्राप्त करने के लिए श्रम नेताओं से बातचीत करनी चाहिए।
2. लघु स्तर उत्पादन में लगातार अनारक्षण (Dereservation) की नीति अपनाने से आरक्षित मदों की संख्या 800 से घट कर 326 हो गयी है। इस नीति को 11वीं योजना में और त्वरित करना होगा ।
3. चाहे औद्योगिक लाइसेंस नीति अब लगभग समाप्त कर दी गयी है
परन्तु कुछ शेष अवरोधक चीनी, पेट्रोलियम परिष्करण और औषध उद्योग में बने हुए
हैं। इन्हें भी धीरे-धीरे समाप्त कर देना चाहिए।
आधारसंरचना विकास ( Infrastructure development)
आधारसंरचना का अभाव आर्थिक विकास पर एक मुख्य सीमाबन्धन है और इसका समाधान प्राथमिकता के आधार पर केन्द्र एवं राज्यों दोनों को करना होगा। ग्रामीण आधारसंरचना पर कार्य करना उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना शहरी आधारसंरचना पर |
" आरम्भिक अनुमानों के अनुसार आधारसंरचना (जिसमें, सड़क, रेल, वायु और जलपरिवहन, पावरजनन, संचारण और टेलीसंचार का वितरण, जल आपूर्ति, सिंचाई और भंडारण शामिल की जाती हैं) पर निवेश को 11वीं योजना में जी. डी. पी. के 4.6 प्रतिशत से बढ़कर 8 प्रतिशत तक ले जाने की आवश्यकता है।” इससे सार्वजनिक क्षेत्र पर बोझ बढ़ेगा क्योंकि निजी क्षेत्र निवेश इन क्षेत्रों में उपलब्ध होने की संभावना नहीं है।"
भारत निर्माण
ग्रामीण आधारसंरचना (Rural Infrastructure) का अभाव समावेशी
विकास के लिए उच्च प्राथमिकता है और संप्रग सरकार द्वारा कल्पित भारत निर्माण
कार्यक्रम इसकी प्रोन्नति का मुख्य उपकरण है। इसे 11वीं योजना में पूरे जोर से
लागू किया जाएगा ताकि सिंचाई, ग्रामीण जुड़ाव (Rural
connectivity), ग्रामीण पेयजल, ग्रामीण
गृहनिर्माण और ग्रामीण टेलीकाम जुड़ाव के महत्त्वपूर्ण लक्ष्य प्राप्त किए जा
सकें।
शहरी आधारसंरचना (Urban Infrastructure )
तीव्र आर्थिक विकास से स्वाभाविकत: अधिक शहरीकरण (Urbanization)
होगा।
दुर्भाग्यवश, देश में शहरी आधार संरचना इस हद तक खराब हो चुकी है कि हम
इससे प्राप्त होने वाली मितव्ययताओं (Economies) का लाभ नहीं उठा
सकते। घटिया शहरी आधारसंरचना जनता के लिए भारी कष्ट का कारण है। भीड़ वाली सड़कें, घटिया सार्वजनिक
परिवहन, पानी की अपर्याप्त उपलब्धि, मल का अनुचित
समाधान और अत्यन्त अपर्याप्त गृहनिर्माण होने के कारण शहरी जनसंख्या का लगभग 50
प्रतिशत गन्दी बस्तियों में निवास करता है। ये सभी शहरी जनसंख्या के जीवन की
गुणवत्ता (Quality) और कल्याण पर प्रभाव डालते हैं। ये विदेशी निवेश पर भी
दुष्प्रभाव डालते हैं क्योंकि भारत इनके कारण विदेशी निवेशकों पर अनुकूल प्रभाव
नहीं डाल पाता।
शहरी आधारसंरचना को उन्नत करने के लिए, संप्रग सरकार ने
3 दिसम्बर 2005 को जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन (Jawaharlal
Nehru National Urban Renewal Mission) 2005-06 से आरम्भ कर 7
वर्षों के लिए चालू किया। यह 63 शहरों में आधारसंरचना सेवाओं के समन्वित विकास
करने का लक्ष्य रखता है ताकि शहरी गरीब वर्ग को सर्वव्यापक रूप में नागरिक
सुविधाएँ पहुंचायी जा सकें। इस योजना पर 50,000 करोड़ रुपये केन्द्र सरकार द्वारा
उपलब्ध कराए जाएंगे। 35 महानगरों (Mega cities) में अतिरिक्त
केन्द्रीय सहायता प्रोजैक्ट लागत के 100 - प्रतिशत अनुदान के रूप में दी जाएगी और
उत्तर-पूर्वीय राज्यों में 90 प्रतिशत के आधार पर।
पावर क्षेत्र का विकास औद्योगिक विकास के लिए केन्द्रीय
महत्त्व रखता है और वास्तविक समस्या वितरण प्रणाली (Distribution
system) की है। यह पूर्णतया राज्य सरकारों के हाथ में है और उन्हें
सर्वोच्च प्राथमिकता के आधार पर वितरण कम्पनियों का निष्पादन उन्नत करना होगा।
सार्वजनिक-निजी साझेदारी (Public-private partnership) निजी क्षेत्र के प्रयास के साथ एक वांछनीय पूरक है। यह उस समय वाद-विवाद का विषय बन जाती है जब निजी क्षेत्र को जरूरत से ज्यादा अनुकूल व्यवहार प्राप्त होता है। अतः यह अनिवार्य है कि सार्वजनिक-निजी साझेदारी कुछ सिद्धान्तों के आधार पर कायम की जाए जो यह सुनिश्चित करे कि सार्वजनिक-निजी साझेदारी सार्वजनिक हित में है। यह तभी किया जा सकता है यदि रियायती समझौतों (Concessional agreements) की शर्तें पारदर्शी बनायी जाएं और इनका लक्ष्य सार्वजनिक हित की सुरक्षा हो। इसके साथ एक मजबूत प्रतियोगी बोली (Competitive bidding) व्यवस्था कायम की जाए ताकि सब-से-कम लागत वाले विकल्पों का चयन किया जाए। यह पद्धति केन्द्र सरकार द्वारा सड़कों, बन्दरगाहों, हवाईमार्गों और रेलवे में अपनायी गयी है। राज्य सरकारों को भी इसी प्रकार की पारदर्शी पद्धति अपनानी होगी ताकि सार्वजनिक-निजी साझेदारी सफल हो सके।
रोजगार (Employment )
" औसत दैनिक स्थिति बेरोजगारी (Daily
status unemployment) जो 1993-94 में 6.1 प्रतिशत थी बढ़कर 1999-00 में बढ़कर 7.3
प्रतिशत हो गयी और फिर और बढ़कर 2004-05 में 8.3 प्रतिशत हो गयी। (पृ. 72) एक और
गंभीर चिन्ता का विषय यह है कि कृषि श्रम परिवारों में जोकि समाज का सबसे गरीब
वर्ग है, बेरोजगार की दर जो 1993-94 में 9.3 प्रतिशत थी, बढ़कर 2004-05
में 15.3 प्रतिशत हो गयी। "
"गैर-कृषि रोजगार में 1999-2005 के दौरान 4.7 प्रतिशत
की महत्वपूर्ण वार्षिक वृद्धि हुई परन्तु यह सारी वृद्धि असंगठित क्षेत्र में हुई
और यह मुख्यतः निम्न उत्पादिता वाले स्वरोजगार में वस्तुतः गिरावट आयी, बावजूद इसके कि
इस क्षेत्र में काफी अधिक जी.डी.पी. की वृद्धि हुई ।
"उद्योगों के वार्षिक सर्वेक्षण के अनुसार, वास्तविक मजदूरी संगठित क्षेत्र में या तो अवरुद्ध रही या इसमें गिरावट आयी, चाहे प्रबन्धकीय और तकनीकी स्टॉफ के वेतन में भारी वृद्धि हुई। " " 1980 के दशक के पश्चात हमारे संगठित क्षेत्र में मजदूरी का भाग आधा हो गया है जो कि विश्व में सबसे नीचा है। इसका एक कारण पूंजी तीव्रता (Capital intensity) में वृद्धि है, दूसरा कारण बहिर्सोत्तीकरण (Outsourcing) है।"
11 वीं योजना में श्रमशक्ति में 6.5 करोड़ की वृद्धि का
अनुमान है। यदि इसमें अवशिष्ट बेरोजगार व्यक्तियों की 3.5 करोड़ संख्या को जोड़
लिया जाए, तो योजना काल में बेरोजगारों की कुल संख्या 10 करोड़ हो
जाएगी। योजना में रोजगार के 6.5 करोड़ अवसर कायम किए जाएंगे। अतः 11वीं योजना के
अन्त तक बेरोजगारों की संख्या 3.5 करोड़ होगी जोकि योजना के आरम्भ में थी। रोजगार
में प्रत्याशित वृद्धि प्राप्त करने के लिए गैर-कृषि रोजगार बढ़ाने का सारा भार
असंगठित क्षेत्र ( Unorganised sector) को सहन करना होगा, क्योंकि अत्यन्त
आशावादी कल्पनाओं के आधार पर भी संगठित क्षेत्र में रोजगार में केवल 20 लाख की
वृद्धि होगी यदि भूतकाल की प्रवृत्ति बनी रहती है।
विकास रणनीति (Growth strategy ) के बारे में
चिरस्थायी चिन्ता का सम्बन्ध इस बात से है कि यह गरीबों की उपेक्षा करती है और
उन्हें विकास के लाभों से वंचित रखती है। इसका स्पष्ट प्रमाण इस बात से प्राप्त
होता है कि गैर कृषि सकल देशीय उत्पाद (Non-agricultural GDP) की कहीं अधिक वृद्धि का लाभ नीचे गरीबों तक नहीं पहुंचता, क्योंकि कृषि से
अब सकल देशीय उत्पाद का केवल 22 प्रतिशत प्राप्त होता है परन्तु यह श्रमशक्ति के
60 प्रतिशत की आजीविका का साधन है। इस परिदृश्य के कारण चाहे जी.डी.पी. की वृद्धि
दर 7 प्रतिशत से अधिक हो गयी है परन्तु गरीबी में कमी की दर मन्द हो गयी है, या केवल मर्यादित
ही कही जा सकती है। दिशानिर्देश पत्र में उल्लेख किया गया।
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दिशा-निर्देश पत्र की समीक्षा का मूल्यांकन
(Approach Paper of 11th Five
Year Plan and its Evaluation)
ग्यारहवीं योजना के दिशा निर्देश पत्र में अपने उद्देश्य के
तौर पर “ तीव्र और अधिक समावेशी विकास" (Towards
Faster and More Inclusive Growth) की कल्पना की गयी है। यह एक अभिनन्दनीय
परिवर्तन है जो कि 1991 में आरम्भ किए गए आर्थिक सुधारों के बाद किया जा रहा है।
यह बात महसूस की गयी है कि सुधार प्रक्रिया ने समृद्धों एवं गरीबों के बीच खाई को
बढ़ा दिया है और 1993-94 और 2004-05 के दौरान गरीबी में कमी की दर मन्द हो कर 0.74
प्रतिशत प्रति वर्ष के मर्यादित स्तर पर आ गयी है। इसके परिणामस्वरूप बेरोजगारी
में वृद्धि हुई है जो 1993-94 में 6 प्रतिशत से बढ़ कर 199-00 में 7.32 प्रतिशत हो
गयी और फिर बढ़कर 2004-05 में 8.3 प्रतिशत हो गयी। इसके अतिरिक्त, इसने ग्राम-नगर
विभाजन ( Rural urban divide ) को और व्यापक बना दिया है और तीव्र प्रगति करने
वाले अगड़े राज्यों और मन्द प्रगति करने वाले पिछड़े राज्यों के बीच क्षेत्रीय
असमानताएं (Regional disparities) बढ़ा दी हैं। सुधार - प्रक्रिया द्वारा जनित
असमान विकास के परिणामस्वरूप भारतीय समाज की राजनैतिक बुनियाद हिल गयी है और इसलिए
इसमें मार्ग परिवर्तन की आवश्यकता बल पकड़ती जा रही है। यदि संप्रग सरकार ऐसा नहीं
करती, तो इसके सामने एक गंभीर खतरा अपने बाजू फैलाए हुए है
क्योंकि यह सरकार आम आदमी की दशा उन्नत करने के नारे के आधार पर विजय प्राप्त कर
पायी थी।
प्रश्न उठता है कि क्या दिशानिर्देश पत्र (Approach
Paper) में उन चिन्ताओं की ओर ध्यान देने की सोच विद्यमान है जिनका
उपचार करने का निर्णय इसमें लिया गया?
दिशा निर्देश पत्र में ग्यारहवीं योजना के दौरान
अर्थव्यवस्था की समग्र वृद्धि दर को बढ़ा कर 9 प्रतिशत तक ले जाने का लक्ष्य रखा
गया है। इसकी प्राप्ति के लिए कृषि की वृद्धि दर को जो दसवीं योजना के दौरान 1.7
प्रतिशत से बढ़ा कर लगभग 4 प्रतिशत करना होगा और उद्योगों की वृद्धि दर को बढ़ा कर
10.5 प्रतिशत एवं सेवा क्षेत्र की वृद्धि दर को 9.9 प्रतिशत करना होगा। यह बात याद
रखने योग्य है कि दसवीं योजना के दौरान उद्योगों की वृद्धि दर 8 प्रतिशत और सेवाओं
की वृद्धि दर 8.9 प्रतिशत रहने का संकेत मिलता है। जाहिर है कि 11वीं योजना में
उद्योगों एवं सेवाओं की वृद्धिदर तो सीमान्त रूप में ही उन्नत की जाएगी परन्तु यह
कृषि की वृद्धिदर को दुगुना करना चाहती है ताकि 90 प्रतिशत की समग्र वृद्धिदर का
लक्ष्य प्राप्त किया जा सके। इसका अभिप्राय यह कि 11वीं योजना की सफलता कृषि के
लिए निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति पर निर्भर करेगी, विशेषकर ऐसा
इसलिए भी है क्योंकि कृषि अभी भी हमारी जनसंख्या के 58 प्रतिशत को आजीविका उपलब्ध
कराती है।
गरीबी में कमी - बुनियादी मुद्दा
परन्तु समावेशी विकास तभी वास्तविक रूप धारण कर सकता है यदि
गरीबी में तीव्र कमी होने के साथ-साथ 11वीं योजना दौरान बेरोजगारी में भी तीव्र
कमी व्यक्त हो। दिशा निर्देश पत्र का ध्यानपूर्वक अध्ययन करने से पता चलता है कि
आयोजकों की इस सम्बन्ध में राजनैतिक इच्छाशक्ति बहुत कमजोर है।
गरीबों में कमी का लक्ष्य निर्धारित करते हुए दिशानिर्देश पत्र ने उल्लेख किया- "हमें इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए औसत भारतीय की वास्तविक आय दस वर्षों से कम समय में दुगुनी करनी होगी और इसी अवधि के दौरान गरीबी को 10 प्रतिशत से कम करने का वायदा करना होगा। "
इस सम्बन्ध में मोहन गुरुस्वामी ने गरीबी रेखा की परिभाषा
के बारे में एक और सवाल उठाया है। " जबकि भूख की परिभाषा कैलारिया के रूप में
स्थिर रह सकती है गरीबी की परिभाषा सामान्य समृद्धि के वर्तमान स्तर के संदर्भ में
सापेक्ष है। वर्तमान औपचारिक परिभाषा केवल कैलोरी उपभोग (Calorie
intake) पर आधारित है और इसमें और कुछ भी शामिल नहीं है, इसलिए यह व्यक्ति
की शारीरिक भूख के सिवाय और कुछ भी नहीं। यह कहीं उचित है कि इसे 'भुखमरी रेखा'
(Starvation line) के रूप में की गयी परिभाषा समझा जाए और यह ठीक वही है ।
" अतः योजना आयोग केवल " भुखमरी रेखा" को 2017 तक 10 प्रतिशत तक कम
करना चाहता है। एक बुनियादी न्यूनतम (Basic minimum) उपलब्ध कराने के
लिए, गरीबी रेखा को बुनियादी आवश्यकताओं की दृष्टि से परिभाषित
करना होगा। जबकि भारत 2020 तक एक आर्थिक महाशक्ति (Economic superpower) का लक्ष्य रखे
हुए है, परन्तु यह उस समय तक केवल भुखमरी को ही दूर कर पाएगा। अतः
भारत को अन्तर्राष्ट्रीय गरीबी रेखा अर्थात 2 डालर प्रतिदिन को आधार बनाकर गरीबी
के नीचे रहने वाली जनसंख्या का प्रतिशत निर्धारित करना होगा। मानवीय विकास रिपोर्ट
(2005) के अनुसार, 1 डालर प्रति दिन के आधार पर 1999-00 में कुल
जनसंख्या का 34. 7 प्रतिशत गरीबी रेखा के नीचे था और यदि 2 डालर प्रति दिन के
मानदण्ड का प्रयोग किया जाए तब भारत की 80 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी के नीचे थी।
वर्तमान गरीबी रेखा जो कैलारी उपभोग पर आधारित है । डालर प्रतिदिन के न्यूनतम
मानदण्ड पर भी नहीं पहुंचती, बुनियादी आवश्यकता (Basic
needs) आधार पर 2 डालर प्रति दिन पर पहुंचने की बात तो दूर रही।
अतः योजना आयोग को गरीबी रेखा में संशोधन कर इसे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर लाना
चाहिए जैसा कि यह विनिर्माण सेवा क्षेत्र और कृषि उत्पादिता पर प्राप्त करने का
प्रयास कर रहा है। इसे झूठे भ्रम पर संतोष नहीं करना चाहिए कि इसने प्रभावी रूप
में गरीबी कम कर दी है।
बेरोजगारी की समस्या
11 वीं योजना में श्रमशक्ति में 6.5 करोड़ की वृद्धि
नवप्रवेशकों के रूप में होगी। यदि इसमें 3.5 करोड़ अवशिष्ट बेरोजगार जोड़ लिए जाएं, तो योजना के
दौरान 10 करोड़ नयी नौकरियां कायम करने की आवश्यकता है। योजना में 6.5 करोड़ नयी
नौकरियां कायम की जाएंगी। परिणामतः 11वीं योजना के अन्त में 3.5 करोड़ व्यक्ति
बेरोजगार रहेंगे। इन प्रकार बेरोजगारों की संख्या योजना के अन्त पर उतनी ही रहेगी
जितनी योजना के आरम्भ में थी। बेरोजगारी में कमी दो कारणतत्वों पर निर्भर है-कृषि
की वृद्धि दर को बढ़ाकर 4 प्रतिशत करना और छोटे तथा मध्यम स्तर के उद्यमों में
रोजगार क्षमता बढ़ाना। आयोजकों को संगठित क्षेत्र से कोई उम्मीद नहीं कि वह अधिक
रोजगार उपलब्ध कराएगा। जहां कृषि में विकास लक्ष्य काफी महत्वाकांक्षी है चूंकि
इसे योजनाकाल में 10वीं योजना में प्राप्त वृद्धि के दुगुने से भी अधिक बढ़ाना है, यह संभव है कि
कृषि में रोजगार की वृद्धि प्रत्याशा से कम रहे। इसके साथ, जहां उद्योग में, 11वीं योजना
समस्या की पहचान तो करती है, किन्तु छोटे तथा मध्यम उद्यमों को मजबूत बनाने
के लिए ठोस रणनीति का सुझाव नहीं देती। बयानबाजी के साथ नीति सम्बन्धी आलम्बन का
अभाव है।
ग्यारहवीं योजना का दिशा निर्देश पत्र रोजगार अवसरों पर कार्यदल (Task Force on Employment Opportunities) की रिपोर्ट (2001) का नये रूप में प्रस्तुतिकरण है जिसके अध्यक्ष डॉ. मोंटेक सिंह आहलूवालिया थे, जो तब योजना आयोग के सदस्य थे और अब योजना आयोग के उपाध्यक्ष हैं। कार्यदल के मुख्य सुझाव थे; कृषि क्षेत्र में निजी क्षेत्र के निवेश को बढ़ावा देना, समन्वित कृषि - कामप्लैक्सों ( Integrated agricultural complexes) और फूड पार्कों (Food parks) के विकास के लिए निगम क्षेत्र का प्रयोग करना. पतित एवं व्यर्थ भूमियों के विकास के लिए कृषि कम्पनियों को ठेके देना, खाद्य संसाधन उद्योगों (Food processing industries) के लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का सहारा लेना, निर्माण, फुटकर व्यापार, सड़क निर्माण आदि में बड़ी फर्मों का प्रयोग कराना। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि रोजगारजनन की पूरी जिम्मेदारी निगम क्षेत्र को सौंप दी जानी चाहिए। इस प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाने के लिए अगले चार वर्षों में लघु उद्योगों का पूर्ण अनारक्षण (Dereservation ) और औद्योगिक विवाद कानून में संशोधन कर श्रम- अधिनियमों में सुधार करना चाहिए ताकि नियोजकों को श्रमिकों को नौकरी पर रखने और उन्हें बर्खास्त करने का बेरोक-टोक अधिकार प्राप्त हो सके। इस रिपोर्ट को श्रम विरोधी समझा गया और नीति-निर्धारकों ने यह बात स्वीकार की कि इसकी अधिकतर सिफारिशें रोजगार को सीमित करने वाली हैं, न कि इसका विस्तार करने वाली । चाहे योजना आयोग ने औपचारिक रूप में इस रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया परन्तु इसे चुपचाप दफना दिया और 5 सितम्बर 2001 को डॉ. एस. पी. गुप्त, सदस्य योजना आयोग की अध्यक्षता में एक विशेष दल ( Special Group) स्थापित कर दिया जिसको 100 लाख रोजगार प्रति वर्ष कायम करने के लक्ष्य हेतु सिफारिशें करने का कार्य सौंपा गया। डॉ. एस. पी. गुप्त की अध्यक्षता में स्थापित विशेष दल ने यह तथ्य उजागर किया कि चूंकि कुल श्रम शक्ति का 93 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र (Unorganized sector) में रोजगार प्राप्त है, इसलिए असंगठित क्षेत्र की उत्पादिता एवं नौकरी की गुणवत्ता (Quality of employment ) उन्नति करने के लिए सभी प्रयास किए जाने चाहिए। असंगठित क्षेत्र के विकास पर अधिक बल देना चाहिए, इसकी अपेक्षा कि श्रम का पूंजी से प्रतिस्थापन किया जाए। विशेष दल ने यह संकेत दिया कि संगठित क्षेत्र का कुल रोजगार में भाग 7 प्रतिशत है और निजी क्षेत्र का भाग केवल 2.5 प्रतिशत है सार्वजनिक क्षेत्र तो पहले ही अपने अतिरिक्त श्रम को कम कर रहा है। यदि निजी क्षेत्र को श्रम कानून के संशोधन द्वारा श्रम रोजगार पर रखने और हटाने की छूट दे दी जाती है, तो इसका फौरी परिणाम अतिरिक्त रोजगार कायम करने की अपेक्षा रोजगार से हटाने के रूप में अधिक व्यक्त होगा । अन्तर्राष्ट्रीय अनुभव को ध्यान में रखते हुए और हमारे देश की भारी जरूरत की दृष्टि से, विशेष दल ने यह नतीजा निकाला कि छोटे एवं मध्यम उद्योगों का बड़े उद्योगों के साथ केवल सह-अस्तित्व ही नहीं बना रहना चाहिए बल्कि उन्हें विकास और रोजगार के मुख्य सहभागियों का कार्यभाग अदा करना होगा। किन्तु 11वीं योजना में छोटे स्तर के उद्यमों में पूर्ण अनारक्षण (Dereservation) करने की सिफारिश की है और इस प्रकार 326 मदों पर उपलब्ध आरक्षण भी समाप्त कर दिया जाएगा। यह श्रम विधान में सुधार का राग अलाप रही है जबकि इसने यह बात स्वीकार कर ली है कि संगठित क्षेत्र से अतिरिक्त रोजगार जनन की कोई उम्मीद नहीं।
श्रम- लोचशीलता (Labour Flexibility) का मुद्दा
यदि हम समावेशी विकास के प्रति सम्मान को छोड़ दें, तो ग्यारहवीं योजना का दिशानिर्देश पत्र श्री आहलूवालिया के कार्य दल की रिपोर्ट का नया अवतार है। दिशानिर्देश पत्र में उल्लेख किया गया है: "इस बात पर बल देना होगा कि श्रम लोचशीलता का अर्थ नौकरी पर " लगाना और हटाना" ही नहीं। श्रम कानूनों के बहुत से ऐसे पहलू हैं जिनमें अधिक लोचशीलता की जरूरत है और यह समग्र श्रम वर्ग के हित में होगा क्योंकि इससे संगठित क्षेत्र में नियोजकों को रोजगार बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा और वास्तव में इससे भारी मात्रा में रोजगार जनन होगा। इस लोचशीलता की विशेष आवश्यकता है यदि हम निर्यात बाजारों के द्वारा प्रस्तुत भारी अवसरों का लाभ उठाना चाहते हैं। ... हमें श्रम कानून के सुधार के क्षेत्र पर सहमत प्राप्त करना चाहिए जिसमें विशेष कर औद्योगिक विवाद कानून (Industrial Disputes Act) और ठेका श्रम (विनिमय एवं उन्मूलन) (Contract Labour-Regulation and Abolition — Act) भी शामिल होने चाहिए।" इस वक्तव्य में योजना आयोग के गुप्त एजेन्डा को एक शब्दावली के आडम्बर में छिपाया गया है। इसका कारण संगठित क्षेत्र में हाल ही के वर्षों में किए जाने वाले प्रस्तावों से स्पष्ट हो जाता है। टैक्सटाइल उद्योग मंत्री चाहते हैं कि (1) काम के घण्टे 48 से बढ़ाकर 60 प्रति सप्ताह कर दिए जाएं (2) स्त्रियों को रात्रि - शिफ्ट में काम करने की अनुमति दी जाए; (3) ठेका श्रम की इजाजत दी जाए और श्रम को नौकरी से हटाने के मानदण्ड (Norms) आसान करने चाहिए और (4) निर्यात उद्योग को औद्योगिक विवाद कानून के लिए एक सार्वजनिक उपयोगिता ( Public utility) का दर्जा देना चाहिए। इसके अतिरिक्त, वाणिज्य मंत्री श्री कमल नाथ चाहते हैं कि विशेष आर्थिक क्षेत्रों (Special Economic Zones) को श्रम कानूनों से छूट दी जाए। जाहिर है कि वह दिशा जिसकी ओर संप्रग सरकार श्रम कानूनों को धकेलना चाहती है, इससे एकदम स्पष्ट हो जाती है चाहे यह कितने ही नरम शब्दों में ग्यारहवीं योजना में उसे छिपाना चाहे । योजना आयोग ने समावेशी विकास का लक्ष्य रखा है। यह इस बात को स्वीकार करता है कि उत्पादिता में तीव्र वृद्धि के बावजूद श्रम की वास्तविक मजदूरी में गिरावट आयी है अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संघ (ILO) की रिपोर्ट जिसका शीर्षक है - Labour and Social Trends in Asia and the pacific (2006) में यह कठोर सत्य प्रस्तुत किया है कि 1990 और 2002 के बीच, भारत के विनिर्माण क्षेत्र में वास्तविक मजदूरी में 22 प्रतिशत की गिरावट हुई, जबकि इस क्षेत्र की इस अवधि के दौरान उत्पादिता में 84% की वृद्धि हुई। जाहिर है कि आर्थिक सुधारों के लाभ निगम क्षेत्र द्वारा हथियार जा रहे हैं जबकि श्रम को उचित मजदूरी प्राप्त नहीं होती । व्यंग्यात्मक बात यह है कि प्रबन्धकीय और तकनीक स्टॉफ वेतन में 15% प्रतिवर्ष की वृद्धि हो रही है। योजना आयोग के समावेशी विकास की रणनीति ऐसे उपायों का सुझाव देने में विफल हुई जिसके द्वारा तीव्र आर्थिक विकास द्वारा जनित अतिरेक में उन्नति से श्रम के भाग में वृद्धि हो। आलोचकों को 11वीं योजना के साम्यता उद्देश्य (Equity objective) की प्राप्ति के बारे में भारी आशंका है। मजदूरी के निर्धारण को बाजार शक्तियों पर छोड़ देने और श्रम कानून द्वारा थोड़ा-बहुत संरक्षण समाप्त कर देने से संगठन क्षेत्र के बड़े व्यापारिक घरानों एवं उद्योगपतियों को श्रम के शोषण की बरोकटोक शक्ति प्राप्त हो जाएगी। परिणामतः श्रम के हितों का हनन जारी रहेगा।
कृषि के विकास को त्वरित करना
सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा जो 11वीं योजना की सफलता से सम्बन्धित है, वह कृषि की वृद्धिदर को त्वरित कर 4 प्रतिशत प्रतिवर्ष के स्तर पर लाना है, जबकि इसकी वर्तमान वृद्धिदर 1.7 प्रतिशत है। इस सम्बन्ध में बहुत से उपाय सुझाए गए हैं जैसे किसानों को उनकी फसल पर लाभकर कीमत ( Remunerative price) उपलब्ध कराना, विशेष फसल की उत्पादिता की अपेक्षा फार्म आय सुरक्षा (Farm income security) पर बल देना और इसके लिए कृषि का विविधीकरण करना, सिंचाई, वाटर शैड विकास, ग्रामीण बिजलीकरण, ग्रामीण आधारसंरचना (Rural Infra - structure) आदि में सार्वजनिक निवेश को बढ़ावा देना, किसानों की उधार के लिए पहुंच को उन्नत करना ताकि उनको महाजनों के चंगुल में फंसने से बचाया जा सके जो ब्याज की बहुत ऊंची दर पर वसूल करते हैं। इस समस्या का समाधान सरकारी ऋण प्रणाली को पुनः सशक्त करने के रूप में सोचा गया है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एस. मुल्लाई नाथन इस सम्बन्ध में साफ शब्दों में उल्लेख करते हैं- " उधार सबसे महत्त्वपूर्ण संसाधन है जिसका ग्राम जनसंख्या को अभाव है... सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र (Priority sector lending) के रूप में उधार देने के बावजूद किसान स्थानीय महाजनों से ऊंची दरों पर उधार लेते हैं।" (बिजनेस लाइन, 12 सितम्बर 2006)। इसके लिए सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और इच्छुक निजी क्षेत्र के बैंकों को मजबूर करना होगा कि वे प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र को सबसे अधिक महत्व दें। इसके लिए किसानों की पहुंच को बढ़ाने हेतु और शाखाएं खोलनी होंगी जो कि एकदम करना चाहिए। इस समस्या के फौरी स्वभाव पर बल देते हुए प्रोफेसर मुल्लाई नाथन का कहना है-“बैंकों और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया को गहरा आत्म-निरीक्षण करना होगा कि जनसंख्या के इस भाग को वित्तीय क्षेत्र क्यों पोषित नहीं कर रहा है। मुझे ऐसा लगता है कि इस प्रक्रिया के परिणाम पर अर्थव्यवस्था का स्वरूप निर्धारित होगा। परन्तु हम इसे किस प्रकार करें? यदि महत्वपूर्ण खिलाड़ी सही दशा में आगे बढ़ें, तब हम ग्रामीण भारत में भारी परिवर्तन कर सकते हैं। यदि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक, भारतीय रिजर्व बैंक और गैर-सरकारी बैंक जैसे आई.सी.आई.सी.आई. बैंक इस समस्या को स्वीकार कर लेते हैं, तो मुख्य मुद्दा इस पर फौरी कार्रवाई करने का रह जाता है।" दिशा निर्देश पत्र में इस 'फौरी कार्रवाई' का अभाव है। इसके लिए तो प्रधानमंत्री इंदिरागांधी द्वारा दिखाए गए पक्के इरादे की जरूरत है जिससे प्राथमिकता प्राप्त उधार की उपलब्धि को त्वरित किया जा सके और इससे जनता की एक भारी संख्या जो मुख्यतः कमजोर वर्गों से है, को लाभ पहुंचाया जा सके।
ग्रामीण आधारसंरचना में सामाजिक आधारसंरचना शामिल नहीं
दिशानिर्देश पत्र में ग्रामीण आधारसंरचना जैसे सिंचाई, ग्रामीण सड़कों, ग्रामीण आवास, ग्रामीण जलपूर्ति, बिजलीकरण एवं
टेलीफोनी (Telephony) के लिए भारत निर्माण को एक मुख्य प्रक्रिया के रूप में पेश
किया गया है। आर्थिक आधारसंरचना के विकास की ओर यह ध्यान अभिनन्दनीय है, परन्तु शिक्षा
एवं स्वास्थ्य पर निवेश के रूप में सामाजिक आधारसंरचना (Social
infrastructure ) का विकास कैसे होगा ।
राष्ट्रीय न्यूनतम साझा कार्यक्रम में यह वचन दिया गया कि
शिक्षा पर व्यय को बढ़ाकर सकल देशीय उत्पाद के 6 प्रतिशत तक ले जाया जाएगा और
स्वास्थ्य पर व्यय को 2-3 प्रतिशत तक दिशानिर्देश पत्र में अर्थव्यवस्था में ज्ञान
एवं स्वास्थ्य के घाटे (Knowledge and health deficit) के बारे में कोई
जिक्र नहीं। डॉ. अमिया कुमार बागची ने दिशानिर्देश पत्र पर इस समस्या की पूर्णरूप
में अनदेखी करने का आरोप लगाया है। उन्होंने उल्लेख किया है- “ दिशानिदेश पत्र
में ग्रामीण आधारसंरचना कायम करने का भारी कार्यक्रम रखा गया है, परन्तु यह बड़ी
अजीब बात है इसमें सैकड़ों स्कूलों में शौचालय एवं पेयजल की सुविधाएं बनाने का
जिक्र नहीं, जिनकी लगभग सभी राज्यों को आवश्यकता है। न ही प्राथमिक
स्वास्थ्य केन्द्रों या अस्पतालों के निर्माण का काई प्रोग्राम पेश किया गया
है।" इस बात के अनेक प्रमाण मौजूद हैं, कि भौतिक पूंजी (Physical
capital) के साथ मानवीय पूंजी (Human capital) के विकास से
आर्थिक विकास महत्त्वपूर्ण रूप में त्वरित होता है।
सैकेन्डरी शिक्षा का तीव्र विस्तार
इस बात के बावजूद कि दिशानिर्देश पत्र में 'प्रथम' एक गैर-सरकारी संस्था के अध्ययन का हवाला दिया गया जिसमें 2005 के दौरान यह देखा गया कि “कि चार वर्ष तक स्कूल में शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् 38 प्रतिशत बच्चे ऐसे थे जो छोटे-छोटे वाक्यों के एक पैराग्राफ भी पढ़ नहीं सकते थे जो कि यह दूसरी कक्षा के बच्चों के पढ़ने के लिए था। लगभग 55 प्रतिशत ऐसे थे जो तीन अंकों की संख्या को एक अंक की संख्या द्वारा भाग देना नहीं जानते थे" फिर भी दिशानिर्देश पत्र बिना प्राथमिक शिक्षा के सर्वव्यापीकरण के सैकेन्डरी शिक्षा के तीव्र विस्तार की ओर बढ़ाना चाहता है। इस उद्देश्य के लिए सार्वजनिक पूर्णतया वित्त पोषित स्कूलों में आधारसंरचना और शिक्षा की गुणवत्ता को उन्नत करना अनिवार्य है। यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि सरकारी स्कूलों में शिक्षकों के गैर- सहायता प्राप्त स्कूलों में काम करने वाले शिक्षकों की तुलना में अधिक वेतन दिया जाता है, परन्तु जवाबदेही (Accountability) की कमी और स्कूल के उचित वातावरण के अभाव के कारण यह दुःखदायी स्थिति विद्यमान है। ग्रामीण स्कूलों में आधारसंरचना के लिए बेहतर वित्तपोषण एक और एक उत्तरदायी प्रणाली की स्थापना द्वारा स्थिति में सुधार लाया जा सकता है ताकि पहली पीढ़ी के शिक्षार्थियों (First generation learners) और ऐसे मां बाप के बच्चों को जो या तो अनपढ़ हैं या कम पढ़े-लिखे हैं, शिक्षा ग्रहण करने में सफल बनाया जा सके।