प्राचीन इतिहास की धार्मिक संस्था (Religious Establishment)
प्रस्तावना ( Introduction)
सोलहवीं सदी के
प्रारम्भ में लिथुआनिया से आयरलैण्ड तक और नावें तथा फिनलैण्ड से लेकर पुर्तगाल और
हंगरी तक सम्पूर्ण पश्चिमी और मध्य यूरोप में कैथोलिक ईसाई चर्च का पूर्ण वर्चस्व
था। ईसाई परिवार में उत्पन्न प्रत्येक शिशु इसका सदस्य समझा जाता था। चर्च
सार्वजनिक तथा विभागीय संस्था थी, न कि व्यक्तिगत और ऐच्छिक । इसकी व्यवस्था करों
तथा देय धन से की जाती थी। प्रत्येक राज्य चर्च का समर्थक था और चर्च के संगठन तथा
उसके पदाधिकारियों की तरफ अँगुली उठाने वालों को राज्य की ओर से उचित सजा दी जाती
थी। चर्च, ईसाई धर्म के परम्परागत विश्वासों तथा आस्थाओं का प्रतीक
समझा जाता था। वह धार्मिक संस्कारों तथा नैतिक मापदण्डों का संरक्षक माना जाता था।
कैथोलिक चर्च (Catholic Church)
ईसाई जगत् के
धार्मिक साम्राज्य के संगठनातमक ढाँचे का अध्यक्ष रोम का बिशप होता था जिसे 'पोप' के नाम से पुकारा
जाता था। उसका निर्वाचन कुछ खास पादरियों द्वारा किया जाता था, जिन्हें 'कार्डिनल' कहा जाता था। पोप
कैथोलिक चर्च का सर्वोच्च नियत-निर्माता, सर्वोच्च
न्यायाधीश और चर्च की सम्पूर्ण गतिविधियों तथा वित्त व्यवस्था का सर्वोच्च प्रशासक
होता था। अपने विशिष्ट धार्मिक कार्यों के अलावा वह अन्य क्षेत्रों में भी
विशेषाधिकार रखता था अथवा रखने का दावा करता था। वह रोम नगर और उसके आस-पास की 'पेपल स्टेट्स' का शासक था। वह
यूरोप के किसी भी ईसाई राज्य के शासक को पदच्युत करने की क्षमता रखता था और
मध्ययुग में कुछ पोपों ने इस अधिकार का प्रयोग भी किया था। वह किसी भी ईसाई देश के
किसी भी ऐसे सिविल कानून को जो उसकी निगाह में अनुचित हो, रद्द कर सकता था।
वह सम्पूर्ण ईसाई भूमि से कर वसूल करता था और विवाह, तलाक, वसीयत, उत्तराधिकार
सम्बन्धी कई वैधानिक मामले अन्तिम निर्णय के लिए उसी के सामने प्रस्तुत किये जाते
थे। वे विभिन्न यूरोपीय कैथोलिक राज्यों में सर्वोच्च धर्माधिकारियों की नियुक्ति
भी करता था। स्पष्ट है कि पोप के अधिकारों की कोई सीमा न थी। मध्ययुग में समय-समय
पर पोप के अधिकारों को कम करने के प्रयास किये गये थे, परन्तु किसी भी
प्रयास को सफलता न मिली और ईसाई जगत् पर पोप का वर्चस्व बना रहा।
रोमन कैथोलिक चर्च की संगठनात्मक व्यवस्था
रोमन कैथोलिक
चर्च की संगठनात्मक व्यवस्था बहुत विशाल एवं व्यापक थी। चर्च के प्रशासन में पोप
की सहायता के लिए एक 'उच्चतम सभा' थी जिसमें 12
सदस्य होते थे और जिन्हें 'कार्डिनल' कहा जाता था।
प्रारम्भ में एक कार्डिनल एक राज्य का सर्वोच्च धर्माधिकारी होता था। इनकी
नियुक्ति पोप के द्वारा की जाती थी और इन लोगों को रोम में ही रहना पड़ता था। एक
विशाल साम्राज्य की भाँति ईसाई जगत् भी प्रान्तों में विभाजित था। प्रान्तों के
सर्वोच्च धर्माधिकारियों की नियुक्ति भी पोप करता था। बड़े प्रान्तों के सर्वोच्च
धर्माधिकारी को 'पेट्रियाक' कहा जाता था, जबकि छोटे
प्रान्तों के धर्माधिकारी को 'आर्क बिशप' एक प्रान्त में
कई 'डायोसीज' नामक इकाइयाँ होती थीं। डायोसीज के अन्तर्गत एक
नगर अथवा कस्बा होता था और इस इकाई के धर्माधिकारी को 'बिशप' कहा जाता था। एक
डायोसीज में बहुत से 'पेरिश' होते थे। पेरिश
का धर्माधिकारी 'पादरी' कहलाता था। सहायक
पादरी को 'डिकन' कहा जाता था । पादरियों की दो श्रेणियां थीं एक
'सेकुलर क्लर्जी' अर्थात् वे पादरी
जिनका जनता से सीधा सम्बन्ध , रहता था और दूसरे, 'रेगुलर' अर्थात् वे पादरी
जो मठों में रहकर धर्मग्रंथों का पठन-पाठन किया करते थे।
मध्यकाल के उत्तरार्द्ध में कैथोलिक चर्च को कुछ समस्याओं का सामना करना पड़ा। कुछ लोगों जिन्हें 'धर्मद्रोही' कहकर पुकारा गया था, ने चर्च की कुछ खास शिक्षाओं को चुनौती देना शुरू कर दिया था और अनेक स्थानों पर दूसरी बातों को मानना शुरू कर दिया गया। अधिकांश धर्मद्रोहियों को समझा-बुझा कर अथवा अन्य दबाव डाल कर चुप करा दिया गया और कुछ अधिक हठी लोगों को मौत की सजा देकर शान्त कर दिया गया। चर्च के निम्न पादरियों के आलसी तथा भ्रष्ट बन जाने से भी चर्च के सामने संकट उठ खड़ा हुआ था। परन्तु आंतरिक सुधारों के माध्यम से जैसे-तैसे इस संकट से भी निपट लिया गया। 1378 से 1417 ई. के मध्य चर्च को आंतरिक विघटन का सामना करना पड़ा जबकि एक ही समय में दो व्यक्ति अपने-अपने को पोप कहते रहे। कौन्सिल आन्दोलन ने पोप की असीम सत्ता को कम करने का सबल प्रयास किया था। कई प्रमुख विद्वानों तथा बिशपों ने यह सुझाव रखा था कि सम्पूर्ण ईसाई जगत् के प्रतिनिधियों की सभा के अधिकार पोप के अधिकारों से सर्वोच्च माने जाएं। परन्तु इस आन्दोलन को भी शान्त कर दिया गया परन्तु चर्च के भीतर सब कुछ ठीक नहीं था और कई ऐसी बातें थीं जिनसे निष्ठावान ईसाई भी अत्यधिक क्षुब्ध थे। पन्द्रहवीं सदी के कुछ पोप अत्यधिक सांसारिक निकले और उन्हें धार्मिक मामलों की अपेक्षा धन-सम्पदा, साहित्य एवं कला में अधिक रुचि रही। उनमें से एक, अलेक्जेण्डर षष्ठ (1491 1503) अपने विलासी तथा भ्रष्ट जीवन के लिये सम्पूर्ण यूरोप में कुख्यात हो गया था। वह अपने महत्त्वाकांक्षी लड़के सीजर बोरगिया और अपनी बदचलन लड़की के लाभ के लिए नाना प्रकार की योजनाएं बनाता रहता था। रोम में जिस अनैतिकता और सांसारिकता का बोलबाला था, उसकी झलक अन्य क्षेत्रों में भी दिखाई देने लग गई थी। कुछ बिशपों एवाटों और पादरियों ने तो अपने धार्मिक कर्तव्यों को निभाना ही बन्द कर दिया था। कुछ धनी और आलसी बन गये थे, कुछ भोगविलास में लिप्त थे तो कुछ अज्ञानी अथवा पापी थे। ऐसे धर्माधिकारियों की संख्या यद्यपि कम थी, फिर भी वे शीघ्र ही सभी की चर्चा का विषय बन गये थे। चर्च की वित्तीय स्थिति को लेकर भी भारी असंतोष फैला हुआ था। जर्मनी में तो बाकायदा छपे हुए पर्चे वितरित किये गये थे, जिनमें कहा गया था कि जर्मनी का धर्म रोम के भ्रष्ट दरबार को कायम रखने के लिये रोम भेजा जाता है। चूँकि इस समय तक राष्ट्रीय राज्यों की नीवें मजबूत हो चुकी थीं और राजाओं की शक्ति काफी बढ़ गई थी; अतः एक तरफ तो राजा लोग पोप के प्रभुत्व से मुक्ति पाने की इच्छा करने लगे थे और दूसरी तरफ लोगों में भी राष्ट्रीयता की भावना का संचार हो चुका था। उन्हें अब ईसाई कहलाने की अपेक्षा फ्रेंच या इंग्लिश नाम से पुकारा जाना अधिक पसन्द था। ऐसी स्थिति में यूरोप में धर्म सुधार आन्दोलन का सूत्रपात हुआ।
धर्म सुधार
आन्दोलन का अर्थ (Meaning of Religious Reforms )
महात्मा ईसा द्वारा संस्थापित ईसाई धर्म के विभाजन की कहानी बहुत पुरानी है। उनकी मृत्यु के तीन-चार सौ वर्षों के बाद ही ईसाई धर्म दो शाखाओं रोमन कैथोलिक चर्च और ग्रीक ओर्थोडक्स चर्च में विभाजित हो गया था। यूरोप में रूस तथा बाल्कन क्षेत्र के अलावा अन्य सभी राज्यों में रोमन कैथोलिक चर्च का वर्चस्व कायम रहा। उसका यह वर्चस्व सोलहवीं सदी के प्रारम्भिक दशकों तक बना और जैसा कि बतलाया जा चुका है कि इस युग में पोप तथा धर्माधिकारी लोग अपने विरुद्ध उठने वाली आवाजों को शान्त करने में सफल रहे थे। परन्तु सोलहवीं सदी में जब चर्च की कुछ धार्मिक बातों एवं विचारों के विरुद्ध जबरदस्त विद्रोह उठ खड़ा हुआ तो चर्च उसे न तो दबाने में सफल रहा और न ही विद्रोहियों की माँग पूरी कर पाया। दूसरी तरफ विद्रोहियों (धर्मसुधारकों) ने भी अपने सिद्धान्तों एवं विचारों को छोड़ना उचित नहीं समझा और विरोधस्वरूप रोमन चर्च को छोड़कर अपने निजी चर्च की स्थापना करना उचित समझा। इस प्रकार कैथोलिक चर्च का विभाजन हो गया। चूँकि आन्दोलनकारियों ने कैथोलिक चर्च का प्रोटेस्ट (विरोध) किया था, अतः उनके द्वारा नवस्थापित धर्म 'प्रोटेस्टैन्ट धर्म' के नाम से प्रसिद्ध हुआ । इस आन्दोलन का प्रारम्भिक ध्येय कैथोलिक चर्च में व्याप्त भ्रष्टाचार और आडम्बरपूर्ण कर्मकाण्डों को दूर करके धर्म में सुधार करना था। परन्तु समय के साथ-साथ इसका प्रारम्भिक ध्येय बदल गया और सुधार के स्थान पर एक नये धर्म की स्थापना हुई और यूरोपीय इतिहास में यह घटना 'धर्म सुधार आन्दोलन' के नाम से विख्यात हुई।
धर्म सुधार आन्दोलन आन्दोलन के
कारण (Causes of Reforms )
पुनर्जागरण, व्यापारिक क्रान्ति, वैज्ञानिक प्रगति राष्ट्रीय राज्यों की स्थापना आदि के परिणामस्वरूप यूरोप में जो नया वातावरण बना, वही इस आन्दोलन का मूल कारण था, अन्यथा चर्च में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध तो 11वीं सदी से ही आवाजें उठने लग गई थीं। 16वीं सदी के सुधारकों को इसलिए सफलता मिल गई थी कि यूरोप का वातावरण बदल चुका था और सर्वसाधारण भी उस माँग के समर्थन में आ जुटा था। अतः इस आन्दोलन के मुख्य कारणों को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक सन्दर्भ में ढूँढ़ना चाहिए।
संक्षेप में इस आन्दोलन के मुख्य कारण इस प्रकार थे-
(1) पुनर्जागरण का प्रभाव
पुनर्जागरण ने धर्म के बन्धनों से जकड़ी हुई मध्यकालीन मान्यताओं एवं अन्धविश्वासों को समाप्त करके लोगों को स्वतन्त्र चिन्तन, मानववादी विचारधारा और वैज्ञानिक मार्ग की ओर अग्रसर किया। अब धार्मिक आस्था का स्थान तर्कवाद ने ले लिया। परिणामस्वरूप लोगों को धर्म का सही रूप समझ में आने लगा और अन्धविश्वासों तथा चर्च में व्याप्त भ्रष्टाचार से अरुचि उत्पन्न होने लगी। धर्म निरक्षेप शिक्षा ने व्यक्ति और इस संसार को समझने की आवश्यकता पर जोर दिया। इससे शताब्दियों से स्थापित विश्वासों की नींव हिलने लग गई। धर्म सुधारकों ने रोमन चर्च के सिद्धान्तों एवं अनुशासन के बारे में भी वैज्ञानिक और तार्किक दृष्टि से विचार-विमर्श करने की आवश्यकता पर जोर दिया। उन्होंने धार्मिक पद्धति से दी जाने वाली स्कूली शिक्षा पर भी घातक प्रहार किया। कागज, छापाखाना और धार्मिक ग्रन्थों के लोक भाषाओं में अनुवाद ने धर्म सुधार आन्दोलन की गति को उत्साहित एवं प्रेरित किया।
(2) चर्च की आन्तरिक कमजोरियाँ
रोमन चर्च की आंतरिक कमजोरियाँ सुधारवादी आन्दोलन की मुख्य
आधारशिला थीं। सामान्य लोग पोप को ईसा का प्रतिनिधि मान कर उसमें आस्था रखते थे।
परन्तु 1378 ई. में पोप ग्रेगरी की मृत्यु के बाद पोप पद को लेकर कैथोलिक जगत् में
जो गम्भीर विवाद उत्पन्न हुआ उससे पोप पद की प्रतिष्ठा को गहरा धक्का लगा। ग्रेगरी
की मृत्यु के बाद कार्डिनलों ने उरबन षष्ठ को पोप चुना, परन्तु उसके
क्रूर तथा बुद्धिहीन कार्यों ने बहुत से कार्डिनलों को उसका विरोधी बना दिया।
फ्रांसीसी कार्डिनल रोम से भाग कर नेपल्स चले गये और उन्होंने क्लीमेन्ट सप्तम को
नया पोप घोषित कर दिया। इस प्रकार अब दो पोप हो गये । उरबन का केन्द्र रोम था और
क्लीमेन्ट का फ्रांस में एविगन। उरबन को रोमन पदाधिकारियों, इंग्लैण्ड, फ्लैण्डर्स तथा
स्केण्डेनेवियन देशों का समर्थन प्राप्त था तो क्लीमेन्ट को फ्रांस, स्पेन, नेपल्स, सिसली, स्कॉटलैण्ड आदि
देशों का अर्थात् अब किसी भी पोप को सम्पूर्ण कैथोलिक चर्च पर एकाधिकार नहीं रहा।
यह स्थिति 1417 ई. तक बनी रही। अन्त में मार्टिन पंचम को सर्वसम्मति से पोप चुना
गया और मतभेद का समय समाप्त हुआ। परन्तु पोप पद के लिए हुए इस संघर्ष ने जनता के
मन में पोप के प्रति श्रद्धा एवं निष्ठा को कम कर दिया। अब वे सोचने लगे कि पोप
धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि कैसे हो सकता है, जबकि उनका
निर्वाचन फ्रांसीसी राजा करा सकते हैं। इस घटना से चर्च की एकता को भी भारी धक्का
लगा था।
चर्च की आंतरिक
कमजोरी का एक कारण चर्च की उच्च सभा थी जिस पर इटली के कार्डिनलों का प्रभाव था।
यूरोप के अन्य देशों में जब धर्माधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी, तो पोप स्थानीय
लोगों को नियुक्त न करके इटली के कार्डिनलों के सम्बन्धियों को ही नियुक्त करता
था। चर्च के संगठनात्मक पदों पर इटलीवासियों के वर्चस्व को अन्य देशों के लोग
ईर्ष्या एवं द्वेष की भावना से देखते थे। एक अन्य कारण पोप तथा उसके अधिकारियों का
ऐश्वर्य एवं विलासितापूर्ण भ्रष्ट जीवन था । यद्यपि धर्माधिकारियों तथा पादरियों
के लिए अविवाहित रहना आवश्यक था, परन्तु इस काल के बहुत से पोप तथा अन्य
धर्माधिकारी अवैध सन्तानों के पिता थे। धर्माधिकारियों की अवैध पुत्र-पुत्रियों की
समस्या ने समूचे यूरोप में अशान्त वातावरण उत्पन्न कर दिया था।
विरोध का एक कारण
यह भी था कि बहुत से धर्माधिकारियों ने अपने धार्मिक कर्त्तव्यों का पालन करना ही
बन्द कर दिया था। इंग्लैण्ड, जर्मनी, फ्रांस तथा अन्य
देशों में नियुक्त धर्माधिकारियों में से अधिकांश इटालियन थे और वे इटली में ही
रहना पसन्द करते थे और धार्मिक अनुष्ठानों को करने के लिए भी कभी अपने
कार्यक्षेत्र में नहीं जाते थे, जबकि उन्हें अपना पद सम्बन्धी धन अपने
कार्यक्षेत्र से मिलता था। इससे लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया कि जब ये लोग अपने
कर्तव्य का पालन ही नहीं करते तो इन लोगों के ऐश्वर्यपूर्ण जीवन पर हमारा धन क्यों
व्यय किया जाए? कुछ प्रगतिशील पादरियों के हस्तक्षेप से फ्लोरेन्स आदि
नगरों में राष्ट्रीय तथा स्थानीय देशभक्ति का प्रादुर्भाव हुआ और वहाँ के निवासी
रोम के पोप के प्रभुत्व से मुक्त होने का प्रयास करने लगे। इसका प्रभाव अन्य देशों
के लोगों पर भी पड़ा।
संगठन में सुधार की दृष्टि से पिछली शताब्दियों में कुछ धर्मनिष्ठ लोगों ने पोप तथा उच्चसभा का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया था परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। सर्वप्रथम इंग्लैण्ड के वाइक्लिफ ने पादरियों के ऐश्वर्यमय विलासी जीवन के विरुद्ध आवाज उठाते हुए सुधारों की माँग की थी। बोहेमिया के जॉन हस ने भी उनकी गतिविधियों की आलोचना की थी, परन्तु दोनों को दंडित किया गया। पन्द्रहवीं सदी में कौंसिलर आन्दोलन हुआ जिसने चर्च में आन्तरिक सुधारों की योजना तैयार की थी, परन्तु पोप के व्यक्तिगत हस्तक्षेप के कारण यह योजना भी असफल रही। बाद में इरेस्मस जैसे विद्वानों ने भी चर्च के क्रिया-कलापों में सुधारों की आवश्यकता पर जोर दिया। इस प्रकार सोलहवीं सदी के प्रारम्भ में धर्म सुधार की अत्यधिक आवश्यकता अनुभव की जा रही थी और इसकी पृष्ठभूमि मजबूत बन चुकी थी।
(3) राजनीतिक कारण-
धर्मसुधार आन्दोलन का एक प्रमुख कारण पोप का राजनीतिक प्रभाव तथा राजाओं
द्वारा पोप के प्रभाव से स्वतन्त्र होने की आकांक्षा थी। रोमन कैथोलिक चर्च को
मानने वाले सभी राजाओं का राज्याभिषेक पोप या उसके प्रतिनिधि के द्वारा अथवा पोप
की स्वीकृति से किया जाता था। पोप को राज्य के घरेलू तथा वैदेशिक मामलों में भी
हस्तक्षेप करने का अधिकार था। पोप अपने आदेश के द्वारा किसी कैथोलिक शासक को धर्म
से बहिष्कृत कर सकता था और उस शासक की जनता को उसके विरुद्ध करने का आदेश भी दे
सकता था। इस प्रकार पोप के पास असीमित राजनीतिक अधिकार थे। दूसरी तरफ सोलहवीं सदी
तक यूरोप में राष्ट्रीय राज्यों और निरंकुश राजतन्त्रों का उदय हो चुका था और
राजाओं की शक्ति काफी सबल हो चुकी थी। राजाओं को पोप की राजनीतिक प्रभुता पसन्द न
थी, क्योंकि इससे उनकी संप्रभुता को चोट पहुँचती थी। अतः वे पोप
के प्रभाव से मुक्त होना चाहते थे। पोप यूरोप के समस्त कैथोलिक राज्यों के चर्चों
का प्रधान था और इस हैसियत से इन राज्यों में चर्च के अधिकारियों को नियुक्त करना
उसके अधिकार की बात थी। यह बात राजाओं को पसन्द न थी क्योंकि प्रायः पोप राजाओं को
परेशान करने के लिए उनके विरोधियों को ऐसे पदों पर नियुक्त कर देते थे। इससे
धर्माधिकारियों और राजाओं के मध्य कई प्रकार के विवाद उठ खड़े होते जिनको सुलझाने
के लिए राजाओं को पोप की शरण लेनी पड़ती थी। इसलिए राजा लोग एक ऐसी ईसाइयत चाहते
थे कि जो किसी विदेशी पोप के प्रति निष्ठावान न हो। पोप और राजाओं के मध्य संघर्ष
का दूसरा कारण चर्च के न्यायालय थे।
सोलहवीं सदी के
प्रारम्भ तक इन न्यायालयों का अस्तित्व बना हुआ था और कई मामलों-विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि
का फैसला चर्च के न्यायालय ही करते थे। राजाओं को यह पसन्द न था। वे अपने राजकीय
न्यायालयों का महत्त्व कायम करना चाहते थे क्योंकि कई बार दोनों न्यायालयों के
परस्पर विरोधी निर्णय से स्थिति विचित्र बन जाती थी। सामान्य जनता भी धार्मिक
न्यायालयों के विरुद्ध थी क्योंकि ये न्यायालय घूस तथा भ्रष्टाचार . के केन्द्र
बने हुए थे। इससे प्रशासन व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने में भी बाधा आती थी।
कुछ विद्वानों के अनुसार पोप तथा राजाओं के मध्य संघर्ष का मुख्य कारण चर्च की धनसम्पदा थी। चर्च के पास बहुत अधिक भूमि थी और इस भूमि से होने वाली उपज पर उसे किसी प्रकार का राजकीय कर नहीं देना पड़ता था। चर्च लोगों से धार्मिक कर भी वसूल करता था, जिससे काफी आय होती थी। धार्मिक न्यायालयों में भी चर्च की आय होती थी। श्रद्धालु ईसाइयों से भी चर्च को काफी धन मिलता रहता था। कुल मिलाकर चर्च काफी समृद्ध था और इसके पदाधिकारी राजाओं के समान ही ऐश्वर्य एवं विलासिता का जीवन बिताते थे। दूसरी तरफ राजाओं को शासन कार्य तथा सैनिक शक्ति को सबल बनाने के लिए धन की सख्त आवश्यकता होती थी। अतः वे लोग चर्च की भूमि तथा आय पर कर लगाना चाहते थे। अतः राजाओं ने धर्मसुधारकों को सहयोग एवं संरक्षण प्रदान किया ताकि पोप के वर्चस्व के समाप्त होते ही वे अपने स्वार्थों को पूरा कर सकें। डी. जे. हिल ने इस सन्दर्भ में लिखा है कि यदि प्रोटेस्टेन्ट आन्दोलन केवल धार्मिक आन्दोलन ही होता तो यह अपने सृजनकर्ताओं के जीवनकाल तक 44 भी न पनप पाता। जिस बात ने इसे सफल बनाया, वह थी इसके राजनीतिक उद्देश्य तथा प्रभाव और विशेषकर कूटनीति । " वस्तुत: लूथर से पहले के सुधारकों को राज्याश्रय उपलब्ध न होने की वजह से असफल होना पड़ा राजाओं के संरक्षण के कारण लूथर पोप के दण्ड से बच गया था।
( 4 ) आर्थिक कारण -
मध्यकाल में यूरोपीय अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित थी । कृषि करने वाले
किसान सामन्ती व्यवस्था के शिकंजे में जकड़े हुए थे और उन्हें किसी प्रकार की
स्वतन्त्रता न थी। इस प्रकार उद्योग भी गिल्ड (श्रेणी) व्यवस्था से बँधे हुए थे।
अर्थात् औद्योगिक क्षेत्र में भी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अभाव था। पुनर्जागरणकाल
में राष्ट्रीय राज्यों की स्थापना से सामन्ती व्यवस्था के पतन से किसानों की
स्थिति में परिवर्तन आ गया। औद्योगिक क्षेत्र में कारीगरों तथा पूँजीपतियों को
स्वतन्त्रता मिली। इससे व्यापार वाणिज्य तथा उद्योग-धन्धों का विकास हुआ और इस काम
में लगे एक सम्पन्न मध्यम वर्ग का उदय हुआ। जीवन के प्रति मध्यवर्गीय दृष्टिकोण
चर्च की शिक्षाओं से मेल नहीं खाता था। जहाँ चर्च आध्यात्मिक गुणों और पारलौकिक
जीवन की तैयारी पर जोर देता था, वहीं मध्यम वर्ग इसी संसार में आराम का जीवन
बिताना चाहता था। इसके अलावा, व्यापारियों को चर्च से दूसरे प्रकार की
शिकायतें भी थीं। वे लोग काफी संकटों को झेल कर दूर-दूर के देशों की यात्रा करते
थे और व्यापार वाणिज्य के द्वारा धन कमाकर जब स्वदेश लौटते थे तो उनके लाभ का बहुत
बड़ा हिस्सा चर्च की भेंट हो जाया करता था। शासक लोग चर्च के शोषण के विरुद्ध
व्यापारियों की सहायता करने में असमर्थ थे। क्योंकि उसके पास पर्याप्त सैनिक शक्ति
का अभाव था। अतः व्यापारी वर्ग ने राजाओं को आर्थिक सहयोग देकर उन्हें सबल बनाया।
व्यापारियों को इस बात की भी शिकायत थी कि चर्च सूद पर कर्ज के विरुद्ध था। परन्तु
व्यापार वाणिज्य के विकास के साथ-साथ सूद पर कर्ज लेना तथा देना आवश्यक हो गया था।
इन दोनों कारणों से व्यापारी वर्ग ने धर्म-सुधारों की माँग का समर्थन कर सुधार आन्दोलन
की गति को बल प्रदान किया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि धर्म सुधार आन्दोलन के विकास
में तत्कालीन अर्थव्यवस्था का भी महत्त्वपूर्ण हाथ रहा था ।
(5) अन्य कारण-
धर्मसुधार आन्दोलन के लिए अन्य बहुत से कारण भी उत्तरदायी थे। एक कारण
वैज्ञानिक प्रगति था। पुनर्जागरण काल में जगत् और मनुष्य के सम्बन्ध में यूनानी
वैज्ञानिक विचारों का प्रसार हुआ जिसने चर्च की मध्यकालीन मान्यताओं के प्रभाव को
काफी कम कर दिया। उदाहरणार्थ, चर्च ने टालमी के इस विचार को प्रामाणिक मान
लिया था कि पृथ्वी सौरमण्डल का केन्द्र है, परन्तु वैज्ञानिकों
ने सिद्ध कर दिया कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है। इसी प्रकार अन्य
वैज्ञानिक खोजों ने चर्च की बहुत सी मान्यताओं को असत्य सिद्ध कर दिखाया। शिक्षा
के प्रसार ने भी धर्म के प्रभाव को कम करने में सहयोग दिया।
रोम के धार्मिक
न्यायालयों में अपीलों की सुनवाई एवं उनके निर्णयों का खुलेआम क्रय-विक्रय होता
था। यह बात भी आन्दोलन का एक कारण बन गई, क्योंकि इस
प्रकार की व्यवस्था में निर्धन लोगों को न्याय नहीं मिल पाता था और सम्पन्न लोग धन
के बल पर अपने अनुकूल न्याय पाने में सफल हो जाते थे। एक अन्य कारण चर्च के बड़े-बड़े
पदों का बेचा जाना था । अर्थात् स्वयं पोप लोग भी ऐसे ही लोगों को उच्च पदों पर
नियुक्त करते थे जो उन्हें अधिक से अधिक धन देने को तैयार होते थे। परिणामस्वरूप
समृद्ध परिवारों के सदस्य चर्च के बड़े-बड़े पदों पर आसीन हो जाते थे और अपने पद
के प्रभाव से अपने परिवार को लाभ पहुँचाने का काम किया करते थे। इससे बहुत से
लोगों में भारी असन्तोष फैला हुआ था। इसी प्रकार एक अन्य कारण पादरी लोगों द्वारा
अपने यजमानों को मनमाना धर्म सिखाना और उनसे अपनी इच्छानुसार द्रव्य वसूल करना था।
( 6 ) तत्कालीन कारण-
धर्मसुधार आन्दोलन का तत्कालीन कारण मार्टिन लूथर द्वारा 'इंडलजेन्स' (पाप विमोचन पत्र) का विरोध करना था। इंडलजेन्स एक ऐसा क्षमापत्र था जिसको धन के द्वारा खरीदा जा सकता था और इस पत्र को खरीदने वालों के लिए पोप का यह आश्वासन होता था कि उसके पापों को क्षमा कर दिया जायेगा।