प्राचीन काल में कृषि - उत्पादन एवं पद्धतियाँ
प्राचीन काल में कृषि - उत्पादन एवं पद्धतियाँ प्रस्तावना ( Introduction)
पंद्रहवीं शताब्दी के अंत में भूमध्यसागरीय क्षेत्र पश्चिमी
यूरोप का सर्वाधिक विकसित क्षेत्र बन चुका था। अमरीकी हो गया। सबसे पहले यूरोप में
कृषि क्षेत्र में हुई उन मुख्य घटनाओं का विवेचन आवश्यक है जिनका सोलहवीं शताब्दी
में यूरोप की अर्थव्यवस्था के लिए निश्चित महत्त्व था। ऐसा करने पर हम इस निष्कर्ष
पर पहुँचेंगे कि इस शताब्दी में व्यापारिक एवं औद्योगिक प्रगति जिन क्षेत्रों में
हुई उनमें ही कृषि विकास भी हुआ और जहाँ भूमध्यसागरीय क्षेत्र के पतनशील इलाकों
तथा पोलैंड में कृषि में परिवर्तन और विकास हुआ वहाँ इन क्षेत्रों में अगली
शताब्दी के संकटकाल के दौरान कृषि विकास का क्रम ही पलट गया।
कृषि क्षेत्र की घटनाएँ व्यापारिक घटनाक्रम की तुलना में
सामान्य ही थीं और इनसे मध्ययुग के उत्तरकाल में उभरे विकास के स्वरूप में प्राय:
कोई परिवर्तन नहीं हुआ। पुरानी कृषि से 'वर्धमान प्रतिफल नियम' (law of increasing return) को लागू करने की
कोई बड़ी संभावना उत्पन्न नहीं हुई यद्यपि संपत्ति के उत्पादन वितरण एवं उपभोग के
विषय में इसकी बुनियादी भूमिका बनी रही।
इन बातों के अलावा दूसरी ओर मौद्रिक अर्थव्यवस्था का
विस्तार गाँवों तक पहुँच गया जिससे यहाँ के परंपरागत मूल्य प्रभावित हुए। इस
मूल्य-क्रांति का प्रभाव संपत्ति के बाजार में भी अनुभव किया गया, जब कि विभिन्न
क्षेत्रों में किसानों ने अनाज के बढ़ते हुए मूल्यों और गोश्त तथा डेरी उत्पादों
की विकासशील मंडी से लाभ उठाने का प्रयास किया।
कृषि क्षेत्र
में असमानताएं (Inequality
in the field of Agriculture)
यूरोप में कृषि क्षेत्र में क्षेत्रीय असमानताएँ बनी रहीं तथा कहीं-कहीं वे बढ़ भी गई। इसके निम्नलिखित कारण थे-
1. भूगोल तथा जलवायु-
भूगोल और जलवायु दोनों ही ग्रामीण कार्य-कलापों का आधार बनी हुई थीं और
उनके परिणामों को भी प्रभावित करती थीं। कुछ स्थानों पर इस क्षेत्र में सुधार भी
किया गया, पर यह इतने छोटे
पैमाने पर था कि इससे यूरोप की कृषि को प्राकृतिक बाधाओं से मुक्त नहीं किया जा
सका। हाल में किए गए कुछ अध्ययनों से इस तथ्य की पुष्टि हुई है कि सोलहवीं शताब्दी
में जलवायु संबंधी कुछ निश्चित परिवर्तन हुए जिनसे भूमध्यसागरीय क्षेत्रों में
बार- बार सूखा पड़ने से स्थिति गंभीर होती गई तथा मध्यवर्ती इलाकों में आर्द्रता
की स्थिति पर प्रभाव पड़ा जिससे कृषि की उपज के विषय में अनिश्चितता पहले से भी
अधिक बढ़ गई।
2. आर्थिक और सामाजिक विकास स्तर-
अभी तक अग्रणी बने रहे कुछ क्षेत्रों में प्रगति का क्रम टूट
गया। उदाहरणार्थ स्पेन, पुर्तगाल और इटली
का ह्रास होने लगा जब कि इंग्लैंड और निचले देश (low countries) आर्थिक रूप से विकसित
होने लगे। विकसित होने वाले देशों में पूँजीवाद ने कृषि संबंधी कार्यों की गति को
नियमित करने का काम किया;
पूँजीवाद ने कृषि
क्षेत्र के लिए एक ढाँचे का निर्माण करने में अपना योग दिया तथा ब्रिटेन, फ्लैमिश
क्षेत्रों, उत्तरी इटली और
उत्तरी फ्रांस के कृषि प्रधान स्वरूप को बदलने में अपनी भूमिका अदा की जब कि स्पेन, दक्षिणी फ्रांस, पुर्तगाल व
पोलैंड में और इटली के कुछ क्षेत्रों में, पूँजीवाद कृषि पर कुछ भी प्रभाव नहीं डाल पाया।
3. भू-स्वामित्व -
इस काल में ग्रामीण यूरोप में जो विविधताएँ देखने को मिलती हैं वे सर्वाधिक स्पष्ट
रूप से भू-स्वामित्व के कानूनी और सामाजिक हाँचे में विद्यमान गहरे अंतर में
परिलक्षित हुई। हम सीमारेखा के रूप में एल्ब नदी को लेंगे इसके पूर्वी क्षेत्र में
जमींदार अपनी जायदाद की स्वयं देख-रेख करता था जब कि पश्चिमी क्षेत्र में
भू-स्वामी अपनी जायदाद का प्रबंध पट्टा लगान अथवा नकद या वस्तुओं की प्राप्ति के
बदले में अन्य व्यक्तियों के सुपुर्द कर देता था ।
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ से मध्य तथा पूर्वी यूरोप में भू-स्वामी, चाहे वे धार्मिक हो या धर्मनिरपेक्ष, अपनी भूमि की सीमा बढ़ाने का प्रयत्न करने लगे। किसानों की भूमि पर अधिकार जतलाकर वे उनसे भूमि ले लेते थे और उसकी कम कीमत अदा करते थे। यह बात पोलैंड में विशेष रूप से थी। सोलहवीं शताब्दी के दौरान निर्धनतम ग्रामीण किसानों की संख्या काफी अधिक बढ़ गई जबकि अमीर किसानों की संख्या में कमी हुई। यह सिलसिला सत्रहवीं शताब्दी में और भी बिगड़ गया। जमींदार लोग इन दोनों वर्गों के हितों को हानि पहुँचाकर अपनी जमीन-जायदाद का विस्तार करते थे; वे भूमि प्रबंधकों की नियुक्ति कर देते थे जो काम की देखभाल करते थे। वे ही भूमि पर काम करने वाले गुलाम जैसे सेवकों पर नियंत्रण रखते थे और उनसे वे सभी सेवाएँ कराते थे जो पट्टेदारों को उच्च वर्ग के लोगों की करनी चाहिए। जमीन के पट्टे बहुत ही कठोर शर्तों पर बढ़ाए जाते थे, जिससे काश्तकारों की स्थिति धीरे-धीरे गुलामों जैसी हो जाती थी। जागीरदारी की यह कठोरता न केवल पोलैंड में बल्कि एल्ब नदी के पूर्व में स्थित जर्मन क्षेत्र, बोहेमा, सिलेसिया, लियोनिया, हंगरी और रूमानिया में भी स्पष्ट रूप से थी। इन सभी क्षेत्रों में किसानों की स्थिति जमींदार साहबों के दासों से कुछ ही बेहतर थी । इन ज़मीदारों ने गुलामों के बिना भूमि बेचने अथवा भूमि के बिना गुलामों को बेचने का अधिकार स्वयं ही ग्रहण कर लिया। इस नई व्यवस्था को कायम रखने के लिए कानून भी बनाए गए। ओटोमन साम्राज्य के बलवान क्षेत्रों में भी किसानों की स्थिति सोलहवीं शताब्दी के मध्य से बिगड़ने लगी। रूस में नकद या वस्तुओं के रूप में भुगतान का स्थान ज़मींदार की भूमि पर किए गए काम और अन्य सेवाओं ने ले लिया। इस शताब्दी के दौरान कृषक द्वारा जमींदार की भूमि पर किए जाने वाले श्रम का समय दुगुना हो गया।
एल्ब नदी के दक्षिण और पश्चिम में इस सबके विपरीत, पुरानी सामंतीय
जायदादों के उन्मूलन का सिलसिला जोर पकड़ने लगा। युद्ध, मुद्रा के
अवमूल्यन, नागरिक और
धार्मिक कलह तथा कृषकों के विद्रोह - इन सब कारणों से जागीरदारों के अधिकारों का
ह्रास हुआ तथा भूमि का हस्तांतरण अधिक आसान हो गया। फ्रांस तथा मध्य और पश्चिमी
जर्मनों में सामंतीय अधिकार बराबर कम होते चले गए। व्यावहारिक रूप में छोटे कृषकों
को हस्तांतरित भूमि पर सामंतों के नियंत्रण की मान्यता ही शेष रही। जमींदार की
भूमि पर कृषक के लिए अनिवार्य रूप से श्रम करने की प्रथा का या तो अंत हो गया या
यह परंपरा नाममात्र के लिए शेष रह गई। इसका स्थान छोटी-छोटी भेंटों ने ले लिया।
भूमि के स्वामी कृषक को भूमि का अपनी इच्छानुसार प्रयोग करने का हक़ मिल गया। इस
प्रकार छोटे किसानों के भू-स्वामित्व का प्रचलन फ्रांस और जर्मनी में अन्य स्थानों
की अपेक्षा अधिक व्यापक रूप से हो गया। यही प्रक्रिया इंग्लैंड में भी बन रही थी
क्योंकि वहाँ भूमि पर श्रम का स्थान लगान ने ले लिया था तथा भूमि की बिक्री भी
होने लगी थी।
निचले देशों के विषय में भी कुछ प्रकाश डालना उचित होगा। इन
देशों के दक्षिणी क्षेत्रों में भूमि की स्थिति पश्चिमी जर्मनी और उत्तरी फ्रांस
में विद्यमान विशेषताओं जैसी ही थी। इन देशों के उत्तरी क्षेत्र में 1579 में मिली
स्वतंत्रता के बाद कुछ उल्लेखनीय सुधार लागू किए गए। आंतरिक अंचल के राज्यों में
उच्च वर्ग और पादरी वर्ग के अधिकार में विशाल जमीन-जायदाद होने के उदाहरण कम नहीं
थे; इनका कोई विघटन
भी नहीं हुआ, तथापि छोटी और
दरमियानी जायदादों के स्वामित्व का भी काफी प्रचलन था और यह अधिक व्यापक होता चला
गया। नए संयुक्त प्रांतों में सुधार आंदोलन तथा स्वाधीनता संग्राम के बाद हुए
राजनैतिक तथा सामाजिक परिवर्तनों का परिणाम यह हुआ कि सामंतीय अधिकारों का सामान्य
रूप में ह्रास होने लगा और भूमि का व्यापक पैमाने पर हस्तांतरण हुआ एवं इसका
अधिकांश अमीर बुर्जुआ लोगों के हाथ लगा। इसका यह परिणाम हुआ कि खेतों के प्रबंध के
लिए ऐसी आधुनिक तथा लाभकारी पद्धतियाँ लागू की गई जिनको बदलती हुई आर्थिक
परिस्थितियों के अनुसार ढालना अधिक आसान था। नई भूमि को कृषियोग्य बनाने के कार्य
पर भी काफी मात्रा में पूँजी खर्च की गई।
इतालवी प्रायद्वीप में भी भू-धारण की विभिन्न पद्धतियों में
क्षेत्रीय आधार पर काफी अंतर था। पीडमॉन्ट (Piedmont) में कुछ बड़ी जायदादें बनी रहीं पर भूमि को
प्राय: छोटे-छोटे खेतों में बाँटने की प्रवृत्ति अधिकाधिक बढ़ती गई और उनका प्रबंध
साझीदार-काश्तकारों को सौंप दिया गया। सिसली में इसके सर्वथा विपरीत पद्धति
जागीरदारी जायदाद का विकास हुआ। दोनों सिसलियों में और पोप के राज्यों में भी यही
स्थिति थी, पर यहाँ भी
समुद्र तट के पास वाले इलाकों में कृषकों के पास छोटी-छोटी जायदादें थीं। अंब्रिया
के पर्वतीय क्षेत्रों में भी इसी पद्धति के छोटे-छोटे खेत अधिक संख्या में थे और
समीपवर्ती टस्कैनी में भी ऐसे ही खेतों की अधिकता थी।
यहाँ साझीदार-भू-धारण पद्धति या एक विशेष कर लगाने वाली
पद्धति, पट्टे के आधार पर
भूमि धारण की तुलना में, निश्चित रूप से
अधिक प्रचलित थी और ग्रामीण जायदादें प्राय: छोटे-छोटे भागों में बँटी हुई थीं।
सत्रहवीं शताब्दी - में मंदी के दौर के कारण भूमि-संबंधी जायदादें पुनः बुर्जुआ
पट्टेबाजों के हाथों में केंद्रित हो गई जिससे सामंतीय शोषण और निर्धनता का दौर
फिर से चालू हो गया।
स्पेन में सोलहवीं शताब्दी में धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष
दोनों आधारों पर सामंतीय भू-स्वामित्व की प्रणाली मजबूत हो गई। अपने समृद्ध आर्थिक
स्वरूप से लाभ कमाने के लिए जायदाद का विस्तार करने के कारण भू-स्वामियों से न
केवल सांप्रदायिक भूमि और चरागाहों पर अनधिकृत कब्जा किया अपितु जमींदारों को भी
किसानों के खेतों पर अपनी शर्तों के अनुकूल दावे करने को उकसाया। उन्होंने कुछ नये
दायित्व लागू किए जिससे उनके पुराने सामंतीय अधिकारों का परंपरागत निर्ममता के साथ, फिर उदय हुआ
यथापि सोलहवीं शताब्दी तक इनका सांकेतिक मंडल ही शेष रह गया था। भूमिगत यह
विकेंद्रीकरण सत्रहवीं शताब्दी में भी चालू रहा ।
इंग्लैंड में इसी दौरान हमें एक ऐसे ग्रामीण समाज के दर्शन
होते हैं जो यूरोप महाद्वीप के निचले क्षेत्रों को छोड़कर बाकी क्षेत्रों से बहुत
अधिक विकसित और गतिशील था । यहाँ मध्यकालीन युग के आरंभ से भू-स्वामित्व के
पुनर्गठन का सिलसिला चालू रहा। सामंतीय ढाँचे के टूट जाने के साथ भू-स्वामित्व में
समय-समय पर परिवर्तन होने लगे तथा कृषि वर्ग अधिक लाभकारी सिद्ध होने लगा। इस
घटनाक्रम को शहर की मंडियों के विकास तथा अंतः क्षेत्रीय और विदेशी व्यापार, मौद्रिक
अर्थव्यवस्था के उदय, ऊन उद्योग के
विस्तार तथा पूँजीवादी वर्ग के आविर्भाव से और अधिक बल मिला। भूमि की बाड़बंदी की
प्रथा ने (यद्यपि यह मध्यवर्ती देशों तक ही सीमित थी) गिरजाघरों की संपत्ति के
अधिग्रहण के साथ मिलकर विशाल जमीन-जायदादों में वृद्धि की तथा भू-स्वामियों और
किसानों के मध्य संबंधों को ही बदल दिया। लेकिन इसके साथ ही, जनता की भूमि के
अधिग्रहण एवं ज़मींदारों तथा बड़े किसानों द्वारा छोटे किसानों के खेतों की बेदखली
से ग्रामीण लोगों के कुछ अधिकारों के उन्मूलन से भूमि संबंधी समझौतों का श्रमजीवी
किसान के प्रतिकूल शर्तों पर नवीकरण और कृषि योग्य भूमि के चरागाहों में बदलाव से
कृषक वर्ग निर्धन होता गया और धीरे-धीरे उसका लोप हो गया।
यूरोप में भू-स्वामी के साथ अपने संबंधों में कृषक अपने
अधिकारों का समर्पण कर रहे थे। ब्रिटेन में ग्रामीण समाज जैसे-जैसे त्रिस्तरीय
(जमींदार, लगान अदा करने
वाला कृषक तथा कृषि मजदूर जिनके पास भूमि नहीं होती थी) बनता गया, वैसे-वैसे
छोटे-छोटे भू-स्वामी किसानों का लोप होता गया। फिर भी छोटे किसानों के लोप के लिए
केवल उनके खेतों को ज़मीदारों द्वारा बेदखली को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
यह सिलसिला लगभग 1550 से आरंभ हुआ। अभी तक केवल वे ही काश्तकार किसान खेतों को
अपने हाथ से निकल जाने का खतरा मोल लेते थे जिनके पास खेत एक निश्चित अवधि तक या
जीवनभर के लिए थे और जिनके पट्टों के नवीनीकरण की कोई संभावना नहीं थी । माफ़ीदारों
(freeholders) को अपनी भूमि की
बेदखली न होने की पूरी गारंटी प्राप्त थी। इस प्रकार भूमि की बेदखली से एक-तिहाई
कृषक वर्ग का लोप हुआ। इस संदर्भ में भूमि की खरीद का भी ध्यान रखा जाना चाहिए।
बाजार की स्थिति, मूल्यों में
वृद्धि और बढ़ते हुए उत्पादन ने पुराने उच्च-वर्ग को भूमि खरीदने की अपेक्षा बेचने
के लिए विवश कर दिया। इस प्रकार एक नए पूँजीवादी बुर्जुआ वर्ग (व्यवसाय, साग, नागरिक, कर्मचारी तथा
व्यापारी) के उदेय तथा भूमि के अच्छे-खासे हिस्से भी प्राप्त कर लेने वाले कुछ
किसानों के अस्तित्व के कारण उच्च वर्ग की संख्या में वृद्धि हुई। स्पष्टतः सन् 1660 तक छोटे किसानों
की भूमि- बेदखली के मामले कृषकों को सामंतीय भूमि की बिक्री के मामलों से कम थे।
कृषि की विभिन्न
पद्धतियाँ (Different
Methods of Agriculture)
तीस वर्षीय युद्ध के छिड़ने तक बढ़ते हुए मूल्यों के प्रभाव
से नार्वे तथा उत्तर-पश्चिमी जर्मनी में अनाजों के उत्पादन क्षेत्र में अस्थायी
तौर पर वृद्धि हुई तथा अनाज का काफी निर्यात भी किया गया। इस क्षेत्र में कुछ
स्थानों पर सोलहवीं शताब्दी में पशुधन की बढ़ती हुई आवश्यकताओं को पूरा करने के
लिए चक्रानुवर्ती फ़सलें उगाने का परीक्षण किया गया। एल्ब नदी से सोवियत रूस तक
फैले हुए विशाल क्षेत्र में अनाज को खेती में अधिक भूमि का उपयोग किया गया, क्योंकि अनाज के
मूल्य बढ़ गए थे तथा सत्रहवीं शताब्दी के मध्य तक अनाजों की अंतर्राष्ट्रीय माँगों
में भी काफी वृद्धि हो चुकी थी। वास्तव में पोलैंड में सोने-चांदी की आमद से कृषि
उपज के मूल्य मध्य और पूर्वी यूरोप के अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा काफी बढ़ गए
जिससे सामंतीय जायदादों का विस्तार हुआ तथा गुलाम कृषि- मज़दूरों की प्रथा का फिर
से उदय हुआ। फिर भी इन जायदादों की लाभकारिता में उनके आकार में वृद्धि के अनुपात
में बढ़ोतरी नहीं हुई। सामंतीय जायदाद का इस प्रकार से विस्तार पहले सन् 1650 तक काफी घट चुका
था । इस बारे में पोलैंड का अनुभव मध्य और दक्षिण-पूर्वी यूरोप से मिलता-जुलता था।
रूस में 1550 तक कृषि भूमि के
विस्तार के बावजूद तथा ग्रामीण लोगों की निर्धनता के कारण यह सिलसिला उलट गया।
उत्तरी तथा पश्चिमी यूरोप
उत्तरी फ्रांस, फ्लैंडर्स, उत्तरी राइन, पश्चिमी टफैलिन, नीदरलैंड तथा इंग्लैंड में भी अन्य स्थानों की तरह युद्धों
और बढ़ते हुए मूल्यों का प्रभाव अनुभव किया गया। पर इस क्षेत्र की एक विशिष्ट बात
यह थी कि 1560-70 की प्रारंभिक
मंदी के बाद कृषि का काफी विकास हुआ। इसमें कोई संदेह नहीं कि मूल्यों की
बढ़ोत्तरी के दौरान भूमि को कृषि योग्य बनाने का कार्य उत्साहपूर्वक किया जाता था
जबकि मूल्यों के घटने पर इसे रोक दिया जाता था - अर्थात् कृषि का विस्तार लाभ
कमाने से जोड़ दिया गया। आमदनी के स्तर का कृषि के विकास और पतन पर अनिवार्य
प्रभाव पड़ता था। यह बात विशेष रूप से उत्तर के निचले क्षेत्रों में देखी जा सकती
थी। इसी अवधि के दौरान फ्लैपिन क्षेत्रों और निचले देशों में कृषि का सर्वाधिक
विकास हुआ। इंग्लैंड में भी और मध्य-पश्चिमी व उनकी फ्रांस में कृषि में काफी
प्रगति हुई। इसकी प्रेरणा अंततः कृषि क्षेत्र में नीदरलैंड द्वारा लागू नए
तौर-तरीकों - से प्राप्त हुई जो काफी प्रसिद्ध हो चुके थे।
जहाँ तक इंग्लैंड का संबंध है, पशु-पालन का लंदन
के समीपवर्ती क्षेत्रों में विकास होता रहा। धीरे-धीरे व्यापारी- पूँजीपतियों और
नए बुर्जुआ वर्ग ने कृषि प्रबंध में नई व्यापार पद्धतियाँ लागू कर दीं। कृषि उपज
को बाजार की परिस्थितियों के अनुसार ढालने के सतत् प्रयत्न किए गए सिंचाई और
पशु-संबंधी कृषि-संपत्ति को सुधारने पर काफी पूँजी खर्च की गई तथा फ़्लैडर्स और
निचले देशों में किए जा रहे लाभकारी कृषि परीक्षणों में गहरी रुचि प्रदर्शित की
गई। सन् 1565 में फ्लैमिशी
आयोजकों ने इंग्लैंड में पहली बार शलजम की फसल उगाई। सोलहवीं शताब्दी में भी
तिपत्तिया घास तथा शमीमा धान्य जैसी चारा फ़सलों का आरंभ काफी प्रचलित हो गया। इसी
प्रकार सिंचित चरागाहों या एलिजाबेथ युग के तथाकथित 'जल चरागाहों (water meadows) का भी प्रचलन कम
नहीं था। फ़सलों के चक्रानुवर्तीय के विस्तार के रूप में गेहूँ के स्थान पर कुछ
क्षेत्रों में अन्य फसलें उगाने का प्रमाण भी मिलता है। निष्कर्ष रूप में, सोलहवीं और
अठाहरवीं शताब्दियों के मध्य इंग्लैंड में कृषि के स्वरूप में भारी परिवर्तन हुए।
फ्रांस के उत्तरी इलाके की स्थिति इस संबंध में इंग्लैंड और निचले देशों से मिलती-जुलती थी, पर मध्य फ्रांस में जाने पर इसके विपरीत स्थिति देखने को मिलती थी। इंग्लैंड और नीदरलैंड का प्रभाव इस क्षेत्र में पड़ा. द्वारा खेती तथा इसी कारण चारा उगाने को अधिक महत्त्व दिया गया। जिन स्थानों पर जलवायु और भूमि की स्थिति जोतकर खेती करने (arable farming) के अनुकूल थी, वहाँ पशुधन विशुद्ध रूप से आमदनी का एक गौण स्रोत बना रहा। लेकिन ऐसे क्षेत्रों में जहाँ अनाज उगाने की इतनी अनुकूल स्थिति नहीं थीं, पशु-पालन ही ग्रामीण जनसंख्या की मुख्य गतिविधि था और यही मंडी अर्थव्यवस्था के संवर्द्धन का साधन या क्योंकि दुग्ध जन्य पदार्थों के विक्रय - से ही स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनाज का भंडार उपलब्ध हो सकता था। इस प्रकार मैदानों की अपेक्षा पहाड़ी क्षेत्र व्यापारिक रूप से अधिक जागरुक थे क्योंकि मैदानी क्षेत्र में कृषक को अनाज उगाने की धुन-सी थी। नारमंडी, ब्रिटानी, बोलोन, लिमोग्स तथा पॉइटू में जलवायु तथा भूमि की हालत अनुकूल होने के कारण अच्छे प्राकृतिक चरागाहों का विकास हुआ और पशु-पालन में अधिक रुचि के कारण यह खेती की मुख्य गतिविधि हो गई यद्यपि अनाजों की खेती को भी कुछ महत्त्व दिया जाता था। यहाँ चारा फसलें बदल-बदलकर फसलें उगाने का एक नियमित भाग बन गई।
पश्चिमी और दक्षिण-पश्चिमी फ्रांस की तरह अनाज पैदा करने के प्रति प्रबल आकर्षण के कारण तथा कृषि उत्पादनों के मूल्य बढ़ जाने के कारण अंगूरों की खेती में भी कमी आई। दक्षिण-पश्चिमी फ्रांस में कई प्रकार की खेती की जाती थी। सोलहवीं शताब्दी में खेत छोटे-छोटे थे पर ग्रामीण क्षेत्र में परिवर्तन होने के साथ उनकी प्रवृत्ति विस्तार की ओर हो गई। अब इन खेतों में कई फसलें उगाई जाती थीं जिससे फसलें चौपट होने के खतरे को यथाशक्ति कम किया जा सके।
जहाँ तक भूमध्यसागरीय यूरोप का संबंध है, सागर तट के
समीपवर्ती क्षेत्र में खेतों के तरीकों में बहुत अंतर था । कुछ स्थानों में
उत्साहपूर्ण पुनरुत्थान के चिह्न नजर आते थे जब कि दूसरे स्थानों ने उन पद्धतियों
को फिर से अपना लिया जो पहले से ही घिसी-पिटी समझी जाती थीं। कास्तील के पठारी
क्षेत्र मीस्टा में 1550 तक अनाजों के
बढ़ते हुए मूल्यों से आकर्षित होकर किसान चरागाहों पर अधिकार करके उन्हें कृषि
भूमि में बदलने लगे थे। सोलहवीं शताब्दी में रोमन काम्पान्या में भूमि को कृषि
योग्य बनाने के कार्य में भी कुछ प्रगति हुई, किंतु इससे कृषि को अस्थायी लाभ ही हुआ क्योंकि अगली
शताब्दी में यह कार्य रुक गया। दक्षिण फ्रांस में भी पंद्रहवीं शताब्दी में
लाभकारी कृषि का समृद्ध दौर आया जब वहाँ के किसानों ने अमरीका से आयातित नई मक्का
और फलियों के साथ अपनी परंपरागत फसलें उगाई। अंगूरों और जैतून के नियत से
कैटलोनिया, बेलेसिया तथा
अंडालुसिया के मैदानों में मिली-जुली खेती होने लगी। पो घाटी और लोम्बार्डी में
चारे की फसलें अन्य फसलों के साथ उगाई गई - यद्यपि अगली शताब्दी में लोम्बार्डी
सहित पो घाटी को छोड़कर, इनमें से अधिकतर
क्षेत्रों में गिरावट आ गई।
कृषि उत्पादन क्षमता
उस समय यूरोप के विभिन्न देशों में उगाई जाने वाली मुख्य
फ़सलों की उपज कितनी थी? जहाँ तक पोलैंड
और डैन्यूब नदी के समीपवर्ती देशों का संबंध है, पूर्वी यूरोप के देशों की कृषि उपज का अनुपात
उत्तरी यूरोप के औसत उपज वाले क्षेत्रों की कृषि उपज के अनुपात से विशेष भिन्न
नहीं था। रूस और बल्कान क्षेत्र में कृषि उपज जरूर - बहुत कम थी।
निचले देशों में अनाज की फ़सलों से काफ़ी उपज होती थी। औसतन इस क्षेत्र की कृषि उपज का अनुपात यूरोप के अन्य क्षेत्रों की कृषि उपज के अनुपात से सत्रहवीं शताब्दी में भी कहीं अधिक अच्छा प्रतीत होता है जबकि इस अवधि में समस्त महाद्वीप में कृषि उपज में गिरावट आई। मटर और फलियों की फ़सल से होने वाली अधिक उपज का प्रमाण उत्तरी नीदरलैंड तथा कुछ ही कम स्तर पर इंग्लैंड में भी मिलता है। फिर भी इंग्लैंड में अनाजों की उपज यूरोपीय महाद्वीप के अन्य क्षेत्रों की उपज से तो सामान्यतः कुछ अधिक थी पर यह स्पष्ट रूप से फ़्लैमिश क्षेत्रों की उपज से कम थी क्योंकि उनमें दालों की उपज इंग्लैंड से अधिक होती थी। अटलांटिक के निकटवर्ती फ्रांसीसी क्षेत्र के विशेष आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। अटलांटिक के समीपवर्ती स्पेन और पुर्तगाल के बारे में भी विशेष आँकड़े नहीं हैं पर जो थोड़े-बहुत आँकड़े उपलब्ध हैं, उनके आधार पर यह अनुमान लगाना तर्कसंगत होगा कि इन क्षेत्रों में मुख्य फ़सलों की उपज -दर उत्तरी नीदरलैंड, इंग्लैंड और उत्तरी यूरोप की कृषि उपज की आधी थी । कृषि-उत्पादन-क्षमता के बारे में फ्रांस की स्थिति मध्यम थी। जहां तक भूमध्यसागरीय क्षेत्रों का संबंध है, हमारे पास सर्वाधिक सूचना इटली के बारे में है। सोलहवीं शताब्दी के बाद से उत्तरी इटली में चावल की खेती से निश्चित ही अधिक उपज होने लगी यद्यपि इस क्षेत्र में भूमि की उत्पादन क्षमता सामान्यतः कम थी।