इतिहास में व्यापारिक संगठनों का चाँदी की आमद उदय मूल्यों में वृद्धि
व्यापारिक समुदाय प्रस्तावना ( Introduction)
➦ आधुनिक काल के प्रारंभ में यूरोप के उद्यमी आमतौर से
व्यक्तिगत रूप में अथवा अपने ही परिवार की साझेदारी में व्यापार करते थे। अनेक
समुद्रपारीय उद्यमों में अलग-अलग व्यापारी हैनसिएरिक लीग अथवा मर्चेन्ट एडवेंचरर्स
जैसे बड़े इजारेदारों के निर्देशन में काम करते थे। इनमें भी वे मूलतः खुद ही काम
करते थे, अपना ही माल
बेचते थे और पूँजी भी अपनी ही लगाते थे। जो व्यापारी स्वयं विदेश नहीं जा पाते थे, वे एजेंटों के
जरिए विदेशों के व्यापारियों से संपर्क करते थे। स्वाभाविक रूप से उनमें जोखिम
बहुत अधिक था। एजेंट अकसर अपने व्यापारी का अहित कर देते थे, जहाज़ डूब जाते
थे, बाजार के हालात
बदल जाते थे।
व्यापारिक
संगठनों का उदय (Rise of
Business Organisation)
➦ सोलहवीं शताब्दी में भी यद्यपि ऐसे व्यापारी थे, लेकिन तभी नए प्रकार के व्यापारिक संगठनों का जन्म हुआ। जहाज़ की क़ीमत और उसकी खेप में कई व्यापारियों की साझेदारी की प्रथा चल पड़ी और इस कारण समुद्र मार्ग से व्यापार में छोटे-छोटे व्यापारी अधिक संख्या में शामिल होने लगे थे। इस तरह की साझेदारी भूमध्य सागर और एलिजाबेथ काल के इंग्लैंड में बहुत प्रचलित थी। आमतौर से एक साझेदार जहाज को ले जाता और उसका माल बेच आता था। अन्य साझेदार अपना माल और पूँजी देते थे और उसके लाभ अथवा हानि में हिस्सा बाँटते थे। ऐसे समय में, जब खतरे अधिक थे और बीमा व्यवस्था कमजोर थी, एक जहाज का अकेला मालिक होने की बजाय कई जहाजों का साझीदार होना अधिक विवेकपूर्ण भी था।
➦ जहाज में साझेदारी आमतौर से एक बार की यात्रा के लिए होती
थी लेकिन अधिक स्थायी आर्थिक गतिविधियों में लंबी साझेदारी भी चल पड़ी। इन साझेदारों
में स्थानीय खुदरा व्यापारी, कारखानेदार और बैंकर शामिल थे। इन अधिक स्थायी संगठनों में
से कई संगठन सोलहवीं शताब्दी में परिवार की विस्तृत साझेदारी के रूप में थे। कुछ
संगठन तो बहुत ही केंद्रीकृत थे, जैसे संयुक्त पूँजी कंपनी (Joint Stock Company) । आग्सबर्ग की
एंटन फ्यूगर कंपनी ने यद्यपि एजेंट रखे हुए थे और पूरे यूरोप में उसकी शाखाएँ थीं, लेकिन उसका
निर्देशन मुख्यालय से ही होता था । अन्य संगठनों ने कुछ अधिक अधिकार प्रदान किए
हुए थे। इन कंपनियों की आधारभूत शेयर पूँजी होती थी, जिसे साझीदार देते थे, लेकिन बाद में
बाहर के लोगों को भी शामिल कर लिया गया। मूल पूँजी शेयरधारी कंपनी के लाभ या हानि
में अपना हिस्सा बंटाता था,
लेकिन जो लोग बाद
में शामिल हुए उन्हें अपनी जमा रक्कम पर सीमित ब्याज ही मिलता था।
➦ इस तरह के व्यापारिक संगठन में आधुनिक काल के प्रारंभ में अनेक परिवर्तन आए। इनमें संभवत: सबसे महत्त्वपूर्ण है- संयुक्त पूँजी कंपनी (Joint Stock Company)। इसमें शेयर हस्तांतरित करने की सुविधा दी गई। ऐसी कंपनियों में साझेदारी पंद्रहवीं शताब्दी में जर्मनी और इटली में थी, लेकिन यह अगली शताब्दी, खासकर 1550 के बाद उत्तरी नीदरलैंड और इंग्लैंड में बहुत प्रचलित हो गई। इंग्लैंड का पहला संयुक्त उद्यम रूस और गुयाना के लिए 1550 से आरंभ होने वाले दशक में शुरू हुआ। दोनों सुदूरवर्ती व्यापार के सिलसिले में सामने आए इसमें जोखिम बहुत अधिक और संचालन लागत बहुत ऊँची थी। इसीलिए शेयरधारी पूँजी इकट्ठी कर पूरे संयुक्त उद्यम की लागत को आपस में बाँट लेते थे। 1600 में इस तरह की लगभग बारह संयुक्त पूंजी कंपनियाँ इंग्लैंड में थीं।
➦ ऐसी कंपनियों का संगठन स्वाभाविक रूप से आरंभिक अवस्था में ही था। व्यापारिक कंपनियाँ केवल एक यात्राके लिए माल देती थीं। यात्रा पूरी होने पर लाभांश का भुगतान पूँजी और लाभ के रूप में होता था। कंपनियों ने शेयरों की संख्या सीमित कर दी। उन्हें जब कभी अधिक पूंजी की ज़रूरत होती वे बाहर शेयर जारी करने के बजाय अपने शेयरधारियों (share holders) से ही शेयर बढ़ाने के लिए अनुरोध करतीं। शेयरों के लिए आवेदन पत्र प्रार्थी को स्वयं देने होते थे। इनसे वह काम लंदन में अथवा उसके आसपास रहने वालों तक सीमित हो गया। लेकिन जल्दी ही ऐसे शेयरों के हस्तांतरण के लिए बाजार बन गया। 1623 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने शेयर जनता को बेंचे। इस प्रकार वह काफ़ी शेयर पूँजी जमा करने में सफल हुई।
➦ संयुक्त पूँजी कंपनी एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक घटना थी।
उसके अंतर्गत व्यापारियों को कुछ खास क्षेत्रों में व्यापार करने का एकाधिकार
मिला। सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि उन्होंने बहुत बड़ी संख्या में लोगों की बचत का
फ़ायदा उठाया और बड़े उद्यम की स्थापना लायक रक्कम जमा कर ली। अकेले व्यक्ति को
सारी जोखिम उठाने में हिचकिचाहट होती थी। इस समस्या का भी निराकरण हो गया। इनसे
लोगों को अपनी छोटी रक्कम भी बहुत झमेले में पड़े बिना काम में लाने की प्रेरणा
मिली। शेयरधारी को भी जरूरत पड़ने पर अपने कुछ अथवा सभी शेयर बेंचकर नक़द राशि
प्राप्त करने की सुविधा मिल गई। यही नहीं, शेयरधारी की मृत्यु हो जाने पर संयुक्त पूँजी कंपनी खत्म नहीं
हो जाती थी। मृतक शेयरधारी के शेयर जिस किसी को भी विरासत में मिले अथवा जो
व्यक्ति उन शेयरों को खरीदे, वह उनका नया स्वामी बन जाता था। "
➦ ईस्ट इंडिया कंपनी इस काल में सबसे साफ़ सुथरी संयुक्त
पूँजी कंपनी थी। अपनी पूर्ववर्ती कंपनियों की भाँति उसे - भी ईस्ट इंडिया से
व्यापार करने का एकाधिकार प्राप्त था। इंगलिश कंपनी पर नियंत्रण शेयरधारियों का था
जो अपना बोर्ड चुनते थे। इसके विपरीत डच कंपनी राजनीतिक नियंत्रण में थी ।
प्राचीन इतिहास में चाँदी की आमद ( Import of Silver )
➦ यूरोप की सोलहवीं शताब्दी की अर्थव्यवस्था में इस कीमती
धातु का महत्त्व था, यद्यपि यह उतना
महत्त्वपूर्ण नहीं था, जितना पहले समझा
गया था।
➦ पहली छोटी खेप सोलहवीं शताब्दी में पहुँची। 1550 तक उनमें सोना
और चाँदी दोनों शामिल थे,
लेकिन शताब्दी के
उत्तरार्ध में सोने के आयात का महत्त्व अपेक्षाकृत कम हो गया। बड़ी भारी मात्रा
में चाँदी जहाजों से सेविले भेजी गई। पारे से चाँदी को साफ़ करने का तरीका मालूम
होने पर तो इस बहुमूल्य धातु का लदान और बढ़ गया तथा 1580 से 1620 के बीच वह चोटी
पर जा पहुँचा।
➦ यह चाँदी ऐसे देश में पहुँच रही थी जो सरकारी तौर पर
संरक्षणवादी (Protectionist)
था। कस्टम की
अनेक बाधाएँ थीं। सरकार की स्वीकृति के बिना स्पेन में न कुछ आ सकता था और न उससे
बाहर जा सकता था, यद्यपि चाँदी तथा
अन्य वस्तुओं के व्यापार में खूब तस्करी होती थी। अनाज के भुगतान आदि के लिए भी
सोना और चाँदी देश से बाहर जाने लगी। सबसे बड़ा संकट तो उत्तरी नीदरलैंड में
खर्चीले युद्ध के कारण पैदा हुआ।
➦ स्पेन के अलावा, बहुमूल्य धातु से खजाना एन्टवर्प में भी पहुँचा जहाँ उसका
विनिमय तोपों और गोला-बारूद से होता था। फिलिप द्वितीय की मेरी ट्यूडर के साथ शादी
के बाद इंग्लैंड ने भी बड़ी मात्रा में चाँदी मँगवाई, जिससे वहाँ की
शिथिल अर्थव्यवस्था को कुछ सहारा मिला, लेकिन इनमें सबसे अधिक महत्त्व एन्टवर्ष का था । वहाँ से
चाँदी जर्मनी और मध्य यूरोप, उत्तरी यूरोप और ब्रिटिश द्वीप समूह भेजी गई। इससे यूरोप की
आर्थिक गतिविधियों को बहुत बड़ा सहारा मिला।
➦ सन् 1568 के लगभग अँग्रेज़ जल दस्युओं की गतिविधियों तथा स्पेनी
नीदरलैंड में विद्रोह भड़क उठने के कारण सोने चाँदी की आमद में बाधा पड़ी और स्पेन
अपना सोना चाँदी फ्रांस के रास्ते स्थल मार्ग से भेजने लगा। एक और महत्त्वपूर्ण
मार्ग बारसीलोना से जेनेवा तक था जो 1570 से आरंभ होने वाले दशक में महत्त्वपूर्ण हो गया था। इटली
की अर्थव्यवस्था न केवल स्पेन, बल्कि जर्मनी, पूर्वी यूरोप, फ्रांस और उत्तरी नीदरलैंड के साथ व्यापार संतुलन बनाए रखने
में समर्थ थी । अतः स्पेन अपना सोना इटली को भेजने लगा। यह सोलहवीं शताब्दी में
अधिक बढ़ गया। नए विश्व ( उत्तर दक्षिण अमरीका) से यूरोप में सोने चाँदी की आमद
बहुत व्यापक थी।
इतिहास में मूल्यों में
वृद्धि (Price Hike )
➦ सोलहवीं शताब्दी में क़ीमतों में जो आम वृद्धि हुई, उसका काफ़ी असर
यूरोप के देशों में पंद्रहवीं शताब्दी के मध्य से ही महसूस किया जा रहा था।
मूल्यवृद्धि का असर इतना अधिक था कि सोलहवीं शताब्दी का आदमी तो स्तब्ध रह गया था।
ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ था। पुराने समय में वस्तु विनिमय लगभग बिना तामझाम के हो
जाता था, उसके स्थान पर
ऐसे संकट के वर्ष आए जब महँगाई आसमान छूने लगी। इसका कारण समझने में असमर्थ आदमी
तो जैसे संज्ञाहीन हो गया था।
➦ मूल्यों में यह वृद्धि सोने-चाँदी की आमद से बहुत पहले ही
होने लगी थी। ये सोलहवीं शताब्दी के बाद भी अगली शताब्दी तक होती रही। फ्रांस में
गेहूँ के भाव 1451-1500 की तुलना में 1501 -1550 तक दुगुने हो गए
और फिर 1501-1550 की तुलना में 1551-1600 में तिगुने तक
पहुँच गए। इंग्लैंड में भी गेहूँ के भाव दुगुने हो गए।
➦ पूरे यूरोप में मुद्रा का मूल्य महँगाई बढ़ने के साथ गिरता
गया। यही नहीं, मूल्य-स्तर तथा
मुद्रा की क्रय शक्ति में परिवर्तन के साथ ही विभिन्न आर्थिक वर्गों की संपत्ति
में उथल-पुथल आई। कुछ तबाह हो गए कुछ अचानक समृद्ध बन गए। बँधी आय वालों की क्रय
शक्ति पहले से कम हो गई। आम ज़मीदारों और किसानों का जीवन निर्वाह कठिन हो गया, लेकिन व्यापारी
वर्ग फलने-फूलने लगे। इससे शहरों में मध्य वर्ग बढ़े। मजदूरी पाने वालों ने देखा
कि महंगाई की तुलना में उनकी मजदूरी बहुत पीछे रह गई है। औद्योगिक कर्मचारी ऐसे
देशों में वास्तविक मजदूरी में ह्रास की चपेट में आ गए, जहाँ ज़रूरत से
अधिक श्रमिक उपलब्ध थे। इस संबंध में इंग्लैंड का उदाहरण दिया जा सकता है।
➦ अब प्रश्न यह है कि इस महँगाई का दोष क्या अमरीकी
सोने-चाँदी पर है? आधुनिक इतिहासकार
ई. जे. हेमिल्टन का कहना है कि यूरोप में सोलहवीं शताब्दी में मुद्रा-स्फीति का
कारण समुद्रपार से बड़ी भारी मात्रा में सोने-चाँदी का आयात था । ऐसे ही इतिहासकार
सेविले में सोने चाँदी के आयात तथा स्पेन में व उसके बाहर मूल्यों में वृद्धि के
बीच सीधा संबंध बताते हुए यह निष्कर्ष निकालते हैं कि सोने चाँदी की आमद से
प्रचलित मुद्रा में भारी वृद्धि हुई। इस प्रकार यह तर्क दिया जा सकता है कि (क)
वस्तुओं के भंडार की अपेक्षा सोने व चाँदी की सप्लाई अधिक तेजी से बढ़ी और उसके
दबाव से मूल्य बढ़ गए, (ख) व्यापारिक
सौदों में भारी वृद्धि होने से मुद्रा चलन की दर तेज़ हो गई और (ग) लोगों ने
वस्तुओं की कमी अथवा उनके महँगी होने की आशंका से अपना नक़द धन तुरंत खरीद में लगा
दिया। ऐसे इतिहासकार यह तर्क भी देते हैं कि सोने चाँदी की आमद घटते ही व्यापार
घटा और मुद्रा - चलन की दर भी घट गई। इसका प्रभाव यह हुआ कि सबसे पहले स्पेन में
वृद्धि रुक गई।
➦ इस संबंध में एक बात यह स्पष्ट करनी है कि मुद्रा-स्फीति के
मामले में अमरीकी सोने चाँदी के बजाय यूरोप की अर्थव्यवस्था अधिक उत्तरदायी रही
है। यूरोप में आर्थिक विकास से माँग पैदा हुई और इसकी पूर्ति विदेशी सोने-चाँदी से
की गई। यदि माँग ही न होती तो संभव था कि सोना-चाँदी यूरोप में आता ही नहीं। इसलिए
पहली बात तो यह है कि मुद्रा-स्फीति का मुख्य कारण अमरीकी धन नहीं, बल्कि यूरोपीय
अर्थव्यवस्था में उत्पन्न माँग और आवश्यकताएँ थीं।
➦ दूसरी बात यह है कि यूरोप में सन् 1500 से पहले भी सोना
चाँदी आ रहा था। सहारा का सोना दसवीं शताब्दी से पहले यूरोप में आने लगा था.
यद्यपि सोलहवीं शताब्दी के मध्य से अमरीका के सोने चाँदी के मुक़ाबले में सहारा के
सोने का आयात खत्म हो गया था। पुर्तगालियों ने भी पंद्रहवीं शताब्दी के मध्य में
गुयाना से गुलामों, हाथी दाँत और
काली मिर्च के साथ ही सोना भी लिया था। सहारा से भूमध्यसागर में सोने की आमद
सोलहवीं शताब्दी तक चली। हाँ, 1520-40 के बीच कुछ समय के लिए यूरोप और बारबेरी के मध्य सोने का
व्यापार रुक गया था, क्योंकि त्रिपोली
पर स्पेन ने क़ब्जा कर लिया था और इस्लाम के विजेता मिस्र और तुर्की से विभिन्न
क्षेत्रों में फैल रहे थे। इस प्रकार पश्चिमी भूमध्यसागर से सोना आना बंद हो गया।
लेकिन सूडान का सोना उत्तरी अफ्रीका को सप्लाई किया जाता रहा और वह नए विश्व
(उत्तरी व दक्षिणी अमरीका) से अधिक मात्रा में आए सोने-चाँदी में विलीन हो गया।
अमरीका से पहले की मुद्रा वेतनभोगी सेनाओं और अफसरों पर खर्च की गई और ऐसा लगता है
कि पंद्रहवीं शताब्दी वालों को पिछली शताब्दियों से विरासत में जो सोना-चाँदी
प्राप्त हुआ था उसका भंडार काफ़ी विशाल था। अमरीकी सोने-चाँदी ने प्रचलित मुद्रा
की मात्रा ही बढ़ाई। यदि पहले के सोने-चाँदी के आयात से मुद्रा-स्फीति पैदा नहीं
हुई तो फिर हम कैसे यह दावा कर सकते हैं कि अमरीकी सोने से मुद्रा-स्फीति बढ़ी।
➦ मुद्रा-स्फीति के बारे में कुछ अन्य जटिल बातें भी हैं, जिनसे अमरीकी
सोने की कथित महत्त्वपूर्ण भूमिका के बारे में संदेह ही होता है। उदाहरणार्थ
सुदूरवर्ती बाज़ारों के लिए उत्पादित वस्तुओं की अपेक्षा स्थानीय खपत के लिए
स्थानीय केंद्रों में उत्पादित वस्तुओं के मूल्य कम तेजी से बढ़े। बढ़िया ऊनी कपड़े
के मूल्य जितनी तेजी से बढ़े उतने गेहूँ के नहीं, औजारों और आयुधों के मूल्य तेजी से बढ़े, लेकिन मांस के
उतनी तेजी से नहीं।
➦ इंग्लैंड में 1640 तक क़ीमतों में भारी वृद्धि हुई थी। वहाँ खाद्य पदार्थों के मूल्य निर्मित माल की तुलना में अधिक बढ़े, इसमें स्पेन के सोने की क्या भूमिका है? वह कब, कैसे और कितनी मात्रा में इंग्लैंड पहुँचा और उसे मुद्रा के रूप में ढालने में कितना समय लगा? अन्य देशों की तरह यहाँ भी मुद्रा के प्रचार में वृद्धि से पहले ही मूल्यों में वृद्धि होने लगी थी। हेनरी अष्टम और एडवर्ड के शासनकाल में अपकर्ष से समस्या और जटिल हो गई।