व्यापार एवं सामंतवाद का पतन (Trade and the Decline of Feudalism)
सामान्य परिचय
सामन्ती व्यवस्था
से जमीन की समस्या का हल बड़ी तत्परता के साथ हुआ। सामंती व्यवस्था में जमीन के
अनेक हिस्सों में बँट जाने से खेती की जोत (Holding) छोटी हो गयी। इससे कृषि के विकास का समुचित
अवसर प्राप्त हुआ। बंजर, दलदल, परती, रेतीली और
वनाच्छादित जमीन को कृषि की योग्य बनाया गया। उपज में अपेक्षाकृत वृद्धि हुई।
लोगों का जीवन सुखी और सम्पन्न हो गया। किन्तु इस व्यवस्था से हानि भी हुई। इसमें
किसानों का दोहरा शोषण होता था। उन्हें करों के अतिरिक्त उपहार देने पड़ते तथा
बेगारी भी करनी पड़ती थी। उनके साथ अमानवीय बर्ताव किया जाता था और सामंत तथा उसके
कारिंदे उन्हें तरह-तरह से सताते थे।
1 सामन्तकाल में उद्योग एवं वाणिज्य (Trade and Commerce in Feudalism)
वाणिज्य एवं उद्योगों के प्रति सामन्तों ने पूर्ण उदासीनता दिखलायी। सामंती व्यवस्था मूलतः भूमि पर आधारित थी। अतः कृषि ही अर्थ व्यवस्था का आधार बनी रही। सामंतों को उद्योग एवं व्यापार से विशेष सम्बन्ध नहीं था। 'मेनर' स्वावलम्बी होते थे। किसान अपने अधिपति के लिए सब कुछ तैयार कर देता था। व्यापार की मात्रा बहुत कम थी। किसान जो थोड़ा-बहुत ज्यादा वस्तुएँ तैयार करते थे उन्हें आसपास के बाजारों में बेच आते थे। पूँजी की कमी के कारण औद्योगिक प्रगति अथवा बड़े पैमाने पर वाणिज्य व्यवसाय की बात सोची भी नहीं जा सकती थी। इस प्रकार व्यापार के विकास का मार्ग पूर्णतः अवरुद्ध रहा। आवागमन के साधनों में किसी प्रकार का कोई भी सुधार नहीं किया गया। सामंतों ने सड़कें अथवा पुल बनवाये या मरम्मत करवाये उनका स्थानीय महत्त्व था। वे इतनी बड़ी नहीं थीं कि व्यापार में सहायक सिद्ध हो सकती। सड़कें तंग तथा खतरनाक थी। चोर डाकुओं से उनकी सुरक्षा का भी कोई विशेष प्रबन्ध नहीं था।
व्यापार की प्रगति में कुछ अन्य तत्व भी बाधक थे। सामान्ती युग में सिक्कों का सीमित प्रचलन था। सिक्के व्यापार की प्रगति के लिए अनिवार्य माने जाते हैं। ज्यादातर व्यापार सिक्कों के माध्यम से न होकर वस्तु-विनिमय (Exchange of goods) के माध्यम से होता था। दूसरी बात यह थी कि व्यापार पर करों का काफी बोझ था ।
व्यापारियों से कदम-कदम पर चुंगी वसूल की जाती थी। जिस सामंत की जागीर से व्यापारियों का माल आता-जाता था वहाँ उन्हें सड़क-कर, पुल पार करने, नदी मार्ग से जाने-हर के लिए व्यापारियों को चुंगी देनी पड़ती थी। इसी प्रकार ऋण की लेन-देन की भी कोई व्यवस्था नहीं थी। व्यापार एवं उद्योग भी इस व्यवस्था में कुण्ठित रहे। अतः नये शहरों की स्थापना भी बहुत कम हो पायी। शहर आर्थिक प्रगति के सूचक होते हैं। इनकी स्थापना से व्यापार, वाणिज्य तथा उद्योग-धन्धों को बढ़ावा मिलता है। ऐसी परिस्थितियों में उद्योग तथा वाणिज्य की प्रगति की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि सामंतवाद के कारण आर्थिक जीवन में किसी प्रकार की प्रगति नहीं हो सकी। किसान और दस्तकार जिस धन का उत्पादन कठिन परिश्रम से करते थे, सामंत उसे भोग विलास के जीवन और अनावश्यक लड़ाइयों में व्यर्थ खर्च कर डालते थे। उद्यम का सर्वथा अभाव था तथा नये तौर-तरीकों की खोज को प्रोत्साहन नहीं दिया जाता था।
पूँजीवाद का उदय -
सामन्ती व्यवस्था का पतन होने लगा और इसके स्थान पर एक नयी व्यवस्था का जन्म हुआ जिसे हम पूँजीवाद व्यवस्था के नाम से जानते हैं। सामन्ती अर्थव्यवस्था का आधार जमीन थी। कम्मिया मजदूर कृषि कार्य करते थे और अपने सामन्त-स्वामी की सेवा करते थे। परन्तु सामन्तवाद के पतन काल में एक नयी अर्थ-व्यवस्था ने जन्म लिया। खेतों के छोटे-छोटे टुकड़ों की जगह पर यूरोप के अनेक देशों में बड़े-बड़े स्टेट कायम हुए। उसी समय इंग्लैंड में कृषि क्रान्ति का जन्म हुआ और कृषि के तरीकों में अभूतपूर्व परिवर्तन हो गये। बड़े स्टेट बन जाने से छोटे किसान बेकार हो गये। अतः वे उद्योग तथा व्यापार की ओर झुके और बड़े स्टेट के स्वामियों तथा व्यापारियां एवं उद्योगपतियों की सेवा में लग गये। उद्योग और व्यापार की प्रगति होती गयी। यूरोपीय व्यापार का विस्तार सुदूरस्थ देशों के साथ होने लगा। अमेरिका की खोज से इस महादेश में तेजी से यूरोपीय देशों का व्यापार बढ़ा। उसी समय बड़े पैमाने पर सिक्कों का प्रचलन हुआ । आधुनिक ढंग से बैंक स्थापित किये गये। सूद पर कर्ज देने की प्रथा का विस्तार हुआ। व्यापारी अपने संघों अथवा श्रेणियों (Guides) के नियमों का पूर्णरूप से पालन करते थे। ये संघ सदस्यों को बीमा की सुविधा भी प्रदान करते थे। व्यापारी संघों ने अपनी सुविधा के लिए राजा. सामन्त तथा चर्च की शक्ति एवं अधिकारों को कम करने का प्रयास किया। जल्द ही धनवान बैंकरों और व्यापारियों के नये सुदृढ़ सामाजिक वर्ग संगठित हो गये। अब सामन्तों की अपेक्षा राजनीति में यह वर्ग अधिक प्रभावशाली हो गया। इस काल में ज्वायंट स्टॉक कम्पनियों का भी जन्म हुआ। इसमें बहुत से व्यक्ति एक साथ होकर अपनी पूँजी लगाते थे। और समान रूप से मुनाफे तथा घाटे के लिए उत्तरदायी होते थे। ये सारे लक्षण आधुनिक पूँजीवाद के थे अब यूरोप की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था पूर्णत: पूँजीवादी अर्थ व्यवस्था पर आधारित हो गयी। इस व्यवस्था ने नयी आवश्यकताओं तथा तत्वों को जन्म दिया जो भविष्य में पुनर्जागरण के महत्त्वपूर्ण कारक तत्व बने ।
व्यापार का उदय तथा नगरों की स्थापना-
सामन्तवाद के पतन काल में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर यूरोप का
व्यापार होने लगा। यूरोप के व्यापारी भारत तथा चीन जैसे सुदूरस्थ देशों तक
आने-जाने लगे। धीरे-धीरे यूरोप का व्यापारी वर्ग समृद्ध एवं प्रभावशाली बन बैठा।
चर्च तथा सामन्ती प्रथा व्यापार की प्रगति के मार्ग में सबसे बड़े रोड़े थे। चर्च
सूद की लेन-देन को अधार्मिक बताया था। दूसरी ओर सामन्त व्यापारियों की मालों पर
इतनी चुँगी लगा देते थे कि व्यापारियों को लाभ की आशा नहीं रह जाती थी। अतः
व्यापारियों के साथ सामन्तों के अतिरिक्त चर्च का संघर्ष होना भी अनिवार्य हो गया।
अब व्यापारी वर्ग चर्च की कटु आलोचना करने लगा। आलोचना के इसी क्रम में तर्क ने
विश्वास का स्थान प्राप्त किया। यह तत्त्व पुनर्जागरण को लाने में काफी सहायक
सिद्ध हुआ । पुनः व्यापारी समृद्ध थे, अतः उन्हें शिक्षा प्राप्ति की सुविधा थी। शिक्षा ने भी
उनकी अज्ञानता तथा अंध विश्वासों का नाश किया। व्यापारी वर्ग को व्यापार के क्रम
में पूर्व देशों के साथ सम्पर्क स्थापित करने का भी मौका मिला। उन दिनों
सभ्यता-संस्कृति के क्षेत्र में पूर्व देश यूरोप की अपेक्षा काफी आगे थे। अतः उन
व्यापारियों ने पूर्व देशों से नवीन ज्ञान की प्राप्ति कर उसे यूरोप के देशों में
फैलाया। धनी होने के कारण बड़े-बड़े व्यापारी साहित्य, कला तथा संस्कृति
के संरक्षक भी बने।
उद्योग एवं
व्यापार की प्रगति के कारण मध्य युग के अन्त में यूरोप में अनेक नगरों की स्थापना
हुई। इसी प्रकार जब धर्म युद्धों के कारण सामन्तों के पास धन की कमी हो गयी तो
समृद्ध व्यापारियों ने सामन्तों को धन देकर उन्हें नगरों को स्वतंत्र करने के लिए
मजबूर किया। ये नगर आधुनिकता के प्रतीक थे। स्वतंत्र नगरों में व्यापार, व्यवसाय तथा
उद्योगों की काफी उन्नति हुई। उनका सम्पर्क व्यापार के कारण पूर्व देशों से होता
था अतः उन्होंने पूर्वी सभ्यता-संस्कृति को अपनाने की कोशिश की और उनकी अनेक बातें
सीखीं। साथ ही, चूंकि नगर
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के केंद्र थे, इसलिए वे बराबर अन्य स्थानों के व्यापारियों और यात्रियों
से भरे रहते थे। इस कारण विचारों का आदान-प्रदान शुरू हुआ और ज्ञान की प्रगति हुई।
व्यापारी शिक्षा के प्रति भी सचेष्ट हो उठे और यूरोपीय नगर आधुनिक शिक्षा के
प्रतिष्ठित केंद्र बन गये। नगरों में काफी समृद्धि आ गयी। अतः नगर के लोग आजीविका
की ओर से निश्चित होकर साहित्य, कला,
ज्ञान-विज्ञान
आदि की प्रगति में गहरी अभिरुचि लेने लगे।
प्राचीन नगरों का पुनरुत्थान एवं नवीन नगरों की स्थापना-
रोमन साम्राज्य के पतन के सदियों बाद
ग्यारहवीं सदी में पश्चिमी यूरोप के आर्थिक क्षेत्र में पुनरुत्थान की प्रवृत्ति
पहली बार देखने को मिली। इस शताब्दी में फिर से औद्योगिक एवं कृषि कार्य-कलापों के
प्रति लोगों में गहरी अभिरुचि देखी गयी, दलदल भूमि को पुनः कृषि योग्य बनाया गया, सड़कों तथा
नदियों के किनारे नई औद्योगिक एवं वाणिज्य-प्रधान बस्तियाँ स्थापित हुई और वाणिज्य
का पुनरुत्थान हुआ। बर्बर आक्रमणकारी जैसे-जैसे यूरोप में बसते गये, जन-जीवन पुनः
सामान्य होता गया। दसवीं शताब्दी तक बहुत सारी कठिनाइयों के बावजूद यूरोप का
व्यापार फिर से जीवित होने लगा था। सड़कों एवं स्थल मार्गों का महत्त्व बढ़ने लगा
था। राजा एवं सामन्त प्रशासनिक कारणों से अपने विभिन्न अधीनस्थ भूखण्डों में
आते-जाते रहे थे। साधारण लोग भी जैसे कम्मिये तथा नौकर-चाकर भी अपने स्वामियों की
सेवा के लिए उनके साथ आते-जाते रहते थे। तीर्थ यात्राओं की लोकप्रियता भी बढ़ रही
थी। आठवीं सदी के पूर्वार्द्ध में इंग्लैंड से रोम की तीर्थयात्रा करनेवाले लोगों
की संख्या इतनी अधिक थी कि संत पीटर के चर्च के पास उनके विश्राम के लिए विशेष रूप
से एक भवन का निर्माण कराया गया। व्यापारी भी ग्राहकों की तलाश से यूरोप के
कोने-कोने तक घूमते रहते थे। दसवीं सदी के अन्त में और विशेष रूप से जल दस्यु
आक्रमणों के बन्द होने पर यूरोप में जीवन अधिक शांतिपूर्ण हो गया। यातायात के
साधनों में भी वृद्धि हुई। व्यापारी समृद्ध होते गये। इन्हीं परिस्थितियों में
पश्चिमी यूरोप में न केवल प्राचीन नगरों का पुनरुत्थान हुआ, बल्कि कई नये
नगरों की स्थापना भी हुई।
नगरों के पुनरुत्थान एवं नये नगरों की स्थापना के कारण
जैसा कि उल्लेख किया गया है कि ग्यारहवीं शताब्दी प्राचीन नगरों के पुनरुत्थान एवं नवीन नगरों की स्थापना का काल था । पर यह सब कुछ अचानक अथवा अकारण न था। इसके कई कारण थे। इस संदर्भ में इस बात का उल्लेख करना भी अनिवार्य हो जाता है कि यूरोप के विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित होने वाले नगरों की स्थापना के भी अलग-अलग कारण थे। कहीं राजनीतिक तत्वों की प्रधानता थी तो कहीं आर्थिक तत्त्वों की और कहीं धार्मिक तथा अन्य तत्वों की। फिर भी, कुछ मुख्य कारण इस प्रकार थे वाणिज्य का उत्थान- इस युग में पश्चिमी यूरोप में वाणिज्य एवं व्यापार का पुनरुत्थान हुआ। वाणिज्य और व्यापार की आवश्यकता ने कई नगरों को जन्म दिया। जब उद्योग एवं व्यापार में वृद्धि हुई तब अधिक धन का अर्जन किया जाने लगा। धन की प्रचुरता ने नगरों के निर्माण तथा विकास में काफी सहयोग दिया। अच्छे बन्दरगाहों, जहाजों या नौका चलाने योग्य नदियों और प्रमुख सड़कों को जोड़ने वाले स्थानों पर नये शहर सहज ही उठ खड़े हुए।
बर्बर जातियों का ईसाई बनना
कालान्तर में आक्रान्ता बर्बर जातियों ने ईसाई धर्म का आलिंगन किया और
अब - वे यूरोप के विभिन्न क्षेत्रों में स्थायी तौर पर शान्तिपूर्ण ढंग से बस गये।
इस तत्व का भी नगरों के पुनरुत्थान एवं विकास में व्यापक महत्त्व माना जाता है।
बर्बरों के जीवन में स्थायित्व आने के दो कारण थे। पहला यह कि विजय प्राप्ति के
उपरान्त उन्होंने अपने राज्य स्थापित कर लिए थे जहाँ उन्हीं की सरकारें थीं। और
दूसरा यह कि धीरे-धीरे उन्होंने ईसाई धर्म को अंगीकार कर लिया। अब उनका जीवन
नियंत्रित हो गया और व्यापार पुनः प्रगति के मार्ग पर बढ़ चला। व्यापार के उत्थान
का अर्थ था नगरों का उत्थान एवं विकास ।
सुरक्षित स्थानों का महत्त्व-
व्यापारी सुदृढ़ दुर्गों के आसपास अधिक सुरक्षित महसूस करते थे। संकट
एवं आपत्ति के समय वे दुर्गों के अन्दर अपनी सामग्री को सुरक्षित रख सकते थे। इस
प्रकार के सुरक्षित स्थानों पर भी नये शहरों की स्थापना हुई। संकटों तथा आक्रमणों
से जो स्थान त्राण दिलाने में समर्थ थे, वहाँ भी नये शहर बसे पश्चिम में नार्मनों, दक्षिण में अरबों
तथा पूर्व में स्लाव आक्रमणों के कारण सर्वत्र ऐसे सुरक्षित स्थानों की आवश्यकता
थी, जहाँ किसान संकट
के समय आश्रय पाते। यही कारण था कि सम्पूर्ण पश्चिमी यूरोप में दुर्गों का जाल-सा
बिछ गया। इन दुर्गों की रक्षा का उत्तरदायित्व नाइटों के जिम्मे लगा दिया गया।
सामन्तों ने भी अपने क्षेत्रों में बड़ी संख्या में दुर्गों का निर्माण करवाया।
पुराने नगरों में भी चारदिवारी बनाकर इसी प्रकार सुरक्षा की व्यवस्था की गयी थी।
शहरों के नाम से 'चेस्टर' तथा 'कास्टर' शामिल रहे का
अर्थ है कि उनका प्रारंभ रोमन फौजी छावनियों के रूप में हुआ। स्वयं 'टाउन' शब्द की
व्युत्पत्ति 'टुन' शब्द से मानी
जाती है जिसका अर्थ है किसी फार्म अथवा जागीर में शामिल समस्त कृषि क्षेत्र । इस
तरह के फार्म या कृषि भूमि पर बसने वाले व्यक्ति के नाम पर भी नगर बस जाते थे, जैसे एडमंड पर
एडमंडटन |
हाट, मेले आदि स्थानों का महत्त्व
उन स्थानों पर भी नये नगर बस गये जहाँ लोग अपनी आवश्यक सामग्री की
खरीद-बिक्री के लिए इकट्ठे होते थे, जैसे साप्ताहिक हाट, मेला या कोई तीर्थ स्थान किलों तथा मठों के आस-पास अनेक लोग
पड़े रहते थे। उनकी वजह से व्यापारी भी वहाँ पहुँचते रहते थे। उनके लिए सराय बाजार
आदि की स्थापना होती थी जो धीरे-धीरे नगर का रूप ग्रहण कर लेते थे। इंग्लैंड के
राजा एडमंड की कब्र पर फूल चढ़ाने के लिए दूर-दूर से लोग आते थे। इस तरह वहाँ
नॉरमन विजय से पहले ही एक अच्छे-खासे नगर की स्थापना हो चुकी थी। इसी प्रकार यूरोप
के उन स्थानों पर भी नगर बस गये जहाँ मठ एवं समाधियाँ स्थापित थीं।
उल्लेखित कारणों के अतिरिक्त कुछ अन्य कारणों की भी चर्चा की जा सकती है। दशम शताब्दी के अन्त होने पर और विशेष रूप से उत्तर सागर के जल-दस्यु आक्रमणों के बंद होने पर यूरोप में जीवन अधिक शांतिपूर्ण हो गया। शान्तिपूर्ण वातावरण में उद्योगों एवं वाणिज्य की काफी प्रगति हुई और नये शहर बसे। इसी प्रकार तीर्थयात्रियों तथा व्यापारियों ने भी नये नगरों की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। उल्लेखित कारणों से एक और पुराने नगरों का पुनरुत्थान हुआ और दूसरी ओर नए शहरों की स्थापना भी हुई।