सामन्तवाद के गुण
एवं दोष (Merit and Demerit of Feudalism)
सामन्तवाद के गुण एवं दोष प्रस्तावना
सामन्तवाद का
विकास यूरोप में विशेष परिस्थितियों में हुआ था । यद्यपि इस व्यवस्था ने तत्कालीन
चुनौतियों का सामना कर काफी हद तक समय की मांग को पूरा किया और इस प्रकार एक
ऐतिहासिक भूमिका निभाई, फिर भी इस
व्यवस्था में गुण की अपेक्षा दोष ही अधिक थे। वस्तुतः सामंत प्रथा से यूरोप को लाभ
कम और हानि अधिक हुई। यह एक ऐसी व्यवस्था थी; जिसमें गुण और दोष दोनों मिश्रित थे।
सामन्त प्रथा के
गुण (Merits of
Feudalism)
सामंत प्रथा के
अनेक ऐसे गुण थे जिनसे यूरोप को आशातीत लाभ हुए-
1. शान्ति सुव्यवस्था की स्थापना-
रोमन साम्राज्य के पतन के पश्चात् अनेक बर्बर जातियों के
आक्रमण के कारण यूरोप में जो अशान्ति एवं अव्यवस्था स्थापित हो गयी थी, उसे रोकने तथा
पुनः यूरोप में शान्ति सुव्यवस्था स्थापित कर सामन्त-प्रथा ने ऐतिहासिक भूमिका अदा
की। इस प्रकार अब जन-जीवन सुरक्षित हो गया और प्रगति का अवरुद्ध मार्ग पुनः खुल
गया।
2. सैन्य शक्ति का विकास
सामंतवाद ने सैनिक संगठन को प्रोत्साहन दिया। वस्तुतः सामन्तों की शक्ति का
आधार सेना थी। अतः सामंतों ने अपनी सेना को समुचित ढंग से संगठित किया तथा वीरों
को प्रोत्साहन दिया। इस प्रकार यूरोप में सामंतों की शक्ति बढ़ी, जो जनसाधारण की
सुरक्षा में काफी सहायक सिद्ध हुई।
3. प्रशासनिक सुधार सामंत
अपनी जागीरों की शासन व्यवस्था के सुधार में भी विशेष रुचि लेते थे।
सामंत-प्रणाली में सैद्धान्तिक रूप से राजा की सार्वभौम सत्ता को स्वीकार किया
जाता था, किन्तु व्यवहार
में सामंत अपनी जागीरों में लगभग स्वतन्त्र थे। इस प्रकार इस व्यवस्था में सत्ता
का विकेन्द्रीकरण हुआ जिससे जागीरों में अच्छे शासन, न्याय और रक्षा का पर्याप्त प्रबन्ध हो गया।
दूसरी ओर राजा सामंतों पर पूरा नियंत्रण रखकर उनके पारस्परिक झगड़ों और उनकी
निरंकुशता व अत्याचारों को भी रोक सकता था।
4. राजाओं की निरंकुशता पर नियंत्रण
सामंतवाद में राजा संविदा (Contract) में उतना ही बँधा हुआ था जितने कि अन्य सामंत यदि राजा संविदा को शर्तों का उल्लंघन करता था तो तत्कालीन नियमों के अनुसार राजा के विरुद्ध विद्रोह करना न्यायोचित था। राजा मनमानी नहीं कर सकता था । उदाहरणस्वरूप 1215 ई. में सामंतों के दबाव के कारण ही इंग्लैंड का शासक जॉन को मैग्नाकार्टा पर हस्ताक्षर करना पड़ा था।
5. नागरिकता का पाठ
सामंतवाद ने लोगों को नागरिकता का महत्त्वपूर्ण पाठ पढ़ाया। यह व्यवस्था कुछ इस
प्रकार की थी कि सभी लोग अधिकार तथा कर्तव्यों की बेड़ियों में जकड़े हुए थे। लोग
अब इस सिद्धांत से परिचित हो गये कि कर्तव्य एवं अधिकार दोनों साथ चलते हैं तथा
कर्तव्य से ही अधिकारों की प्राप्ति होती है।
6. आर्थिक प्रगति -
सामंतवाद ने आर्थिक प्रगति का मार्ग भी प्रशस्त किया जो इसके उत्थान के पूर्व
रुक-सा गया था। यह व्यवस्था कृषि पर ही आधारित थी, अतः इस व्यवस्था में कृषि की प्रगति पर विशेष
ध्यान दिया गया। पुनः कृषि की उपज बढ़ने से ही सामंतों की आय में वृद्धि हो सकती
थी। अतः इस कारण भी सामंतों ने कृषि कार्यों में गहरी अभिरुचि का प्रदर्शन किया।
कृषि की उन्नति से जन-जीवन में खुशहाली आयी और देश समृद्ध हुआ। सेना के आवागमन के
उद्देश्यों से सामन्तों ने पुरानी सड़कों की मरम्मत करवायी तथा नई सड़कों और पुलों
का निर्माण करवाया। इस प्रकार आवागमन के साधन भी समुन्नत हुए तथा व्यापार को
फलने-फूलने का अवसर भी मिला।
7. सांस्कृतिक प्रगति में योगदान
सामंतवाद के कारण यूरोप के विभिन्न देशों में शान्ति एवं
सुव्यवस्था की स्थापना हुई। ऐसे वातावरण में प्रायः सांस्कृतिक प्रगति भी देखने को
मिलती है। सचमुच ही इस युग में साहित्य एवं विभिन्न कलाओं की काफी उन्नति हुई।
सामंत प्रणाली में वीरता तथा शौर्य को प्रोत्साहन मिला। इसका असर साहित्य पर भी
हुआ। इस प्रकार वीर रस की अनेक कहानियाँ तथा कविताएँ लिखी गयीं। 'रौला की कहानी' सामंत युग की एक
अत्यन्त प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय रचना है। इस युग के प्रभाव से कला भी अछूता नहीं
रहा । सामंतों ने अपनी रक्षा के उद्देश्य से विशाल, सुदृढ़ एवं सुन्दर दुर्गों का निर्माण करवाया।
8. नैतिक गुणों का विकास
सामंत प्रथा ने यूरोप के लोगों की वीरता के साथ नैतिकता का पाठ भी पढ़ाया।
सभी अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करना आवश्यक समझते थे। कुछ उदार विचारों का भी
विकास हुआ सेवा, सच्चाई तथा
ईमानदारी जैसे गुणों को आदर्श माना गया और समाज में नारी को विशेष सम्मान मिला। इस
प्रकार यूरोपीय समाज में नैतिक गुणों के विकास पर काफी जोर दिया जाने लगा।
2 सामन्तप्रथा के
दोष (Demerits of
Feudalism)
उल्लिखित गुणों के बावजूद इस प्रथा में कुछ ऐसे मौलिक दोष थे, जो सभी दृष्टि से हानिकारक सिद्ध हुए
1. केंद्रीय शक्ति का अवसान
सामंतवाद के कारण यूरोप में केन्द्रीय शक्ति का अवसान हुआ था। सामंतों की
शक्ति का व्यापक रूप से बढ़ जाने के कारण राजा की शक्ति जाती रही। राजा स्वयं अपनी
सुरक्षा के लिए सामंतों का मोहताज हो गया। वह सामंतों की सेना पर पूर्णतः आश्रित
था। जनता तथा सैनिक राजा के प्रति निष्ठावान न होकर अपने सामंतों के प्रति
आज्ञाकारिता और स्वामी भक्ति की भावना रखते थे। केन्द्रीय शक्ति की दुर्बलता सदा
आंतरिक अशांति एवं बाह्य आक्रमणों को प्रोत्साहित करती है। ये तत्व किसी भी देश के
लिए घातक सिद्ध हो सकते थे।
2. राष्ट्रीय एकता का लोप
सामंतवादी व्यवस्था ने छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना को प्रोत्साहित किया।
केन्द्रीय शक्ति के अभाव में सामंत अपनी-अपनी जागीरों में सर्वशक्तिशाली बन बैठे।
उनके नेतृत्व में वस्तुत: देश अनेक छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्यों का समूह मात्र रह
गया। विकेन्द्रीकरण के इस वातावरण में राष्ट्रीय एकता की भावना का पूर्णतः लोप हो
गया। राष्ट्रीयता एवं एकता के अभाव में किसी भी देश की प्रगति केवल कठिन ही नहीं, वरन् असंभव हो
जाती है।
3. सामंतों में विद्रोह एवं पारस्परिक संघर्ष की भावना का विकास
शक्तिशाली केन्द्रीय सत्ता के
अभाव में सामतों में विद्रोह की भावना का बलवती होना तथा पारस्परिक युद्धों को
प्रोत्साहन मिलना स्वाभाविक था। एक ओर राजा की शक्ति जाती रही और दूसरी ओर सामंत
शक्तिशाली होते चले गये। जागीर की सेना और प्रजा अपने सामंतों के प्रति निष्ठावान
थीं। इस कारण शक्तिशाली सामंतों में विद्रोह की भावना पनपती थी। साथ ही ये सामंत
इतने महत्त्वाकांक्षी हो गये कि ये अपने पड़ोसी सामंतों पर आक्रमण कर उसकी जागीरें
हड़पने के लिए भी लालायित हो उठे। राजा तो इतना शक्तिहीन था कि उसमें मध्यस्थता
करने की क्षमता ही नहीं थी। इस प्रकार सामंती व्यवस्था में सामंतों में पारस्परिक
संघर्ष की संभावना सदा बनी रहती थी। मध्यकालीन यूरोप का इतिहास ऐसे विद्रोहों तथा
सामंतों के बीच होने वाले लम्बे संघर्षों से भरा पड़ा है।
4. दोषपूर्ण सैन्य संगठन एवं न्याय
सामंती व्यवस्था के कारण यूरोपीय सेना में अनेक दोष उत्पन्न हो
गये । - एक तो स्थायी कोई सेना नहीं होती थी दूसरी ओर सामंतों की छोटी सेनाएँ अनेक
सांगठनिक दोषों का शिकार बन गयी । सामंत अपने-अपने ढंग से अपनी सेना को संगठित
करते थे। इस प्रकार सैनिकों के अस्त्र-शस्त्र, अनुशासन प्रशिक्षण तथा युद्ध के ढंग अपनी ही तरह के होते
थे। ऐसी सेना आपात काल में कारगर सिद्ध नहीं हो सकती थी। न्याय के सिद्धांतों में
काफी विषमता थी। सामंत अलग-अलग ढंग से न्याय किया करते थे। कानून और सजाएँ अलग-अलग
थीं।
5. सामाजिक वर्ग विभेद-
सामन्तवाद ने सामाजिक वर्ग विभेद को काफी बढ़ावा दिया। सामंती समाज स्पष्ट
रूप से दो वर्गों में बँट गया। एक ओर सारी सुविधाओं से युक्त सामंत थे जिनका जीवन
ऐश-आराम का तथा विलासपूर्ण होता था तो दूसरी ओर गरीब किसानों का जीवन अत्यन्त
कष्टदायक एवं निराशापूर्ण था। उनकी अपनी जमीन नहीं थी। दास किसानों की स्थिति तो
और भी दयनीय थी। सामंत तथा उसके कारिन्दे तरह-तरह से किसानों का शोषण करते थे।
उनसे बेगारी ली जाती थी तथा उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता था। उन्हें दो समय
की रोटी भी नसीब नहीं होती थी तथा उनकी फरियादों को सुनने वाला कोई नहीं था।
सामाजिक वर्ग विभेद तत्कालीन यूरोपीय समाज के लिए अभिशाप सिद्ध हुआ ।
6. किसानों की दयनीय स्थिति
उन्हें अपनी उपज का एक बड़ा अंश सामंत को कर के रूप में देना पड़ता था और अधिपति
की बेगारी भी करनी पड़ती थी। सामंत और उसके कारिन्दों द्वारा उन पर तरह-तरह के
अत्याचार किये जाते थे। फिर भी वे उनके विरुद्ध न तो शिकायत कर सकते थे और न ही
न्याय की मांग।
7. आर्थिक प्रगति में रुकावट-
आर्थिक प्रगति की दृष्टि से भी सामंतवाद एक अभिशाप था। सामन्त
युद्धप्रिय होते थे। युद्धों के समय उनकी सेना किसानों की लहलहाती फसलों को नष्ट
कर देती थी। इसकी शिकायत सुनने वाला कोई न था । शिकार खेलते समय सामंत स्वयं
किसानों की फसल की परवाह नहीं करते थे। उनके मवेशी किसानों की खेती चट कर जाते, पर इसकी कोई
सुनवाई नहीं थी। सामंत अपने ऐशो-आराम तथा विलासपूर्ण जीवन में व्यस्त रहते थे।
उन्हें आर्थिक प्रगति की कोई चिन्ता नहीं थी। उन्होंने उद्योग-धन्धों तथा व्यापार
की ओर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। ऐसे वातावरण में आर्थिक प्रगति के मार्ग का अवरुद्ध
हो जाना स्वाभाविक था।
8. विलासिता को प्रोत्साहन -
निस्संदेह सामंतवाद ने अनेक नैतिक गुणों को प्रोत्साहन दिया। किन्तु
साथ ही शक्तिशाली एवं समृद्ध सामंतों का जीवन ऐशो-आराम का विलासमय, ऐश्वर्यपूर्ण तथा
भ्रष्ट था। समाज की . प्रगति में यह तत्व अत्यन्त हानिकारक प्रमाणित हुआ।
9. सांस्कृतिक प्रगति में रुकावट
सामंती व्यवस्था में निर्माण की अपेक्षा विनाश के कार्य ही अधिक
हुए। युद्ध, सामन्तों का
प्रिय मनोरंजन बन गया। सामंती युद्ध सांस्कृतिक प्रगति के मार्ग में बड़े रोड़े-सा
सिद्ध हुए । इस प्रकार साहित्य एवं विभिन्न कलाओं को विशेष प्रोत्साहन नहीं मिल
पाया। बौद्धिक प्रगति के मार्ग भी अवरुद्ध हो गए।
10. चर्च एवं राज्य के बीच संघर्ष-
अन्त में हम यह भी कह सकते हैं कि सामन्त-प्रथा के कारण ही भविष्य में चर्च और राज्य के बीच संघर्ष पैदा हुआ जो सदियों तक चलता रहा। चर्च तथा राजा के बीच होने वाला संघर्ष यूरोप के इतिहास का एक अविस्मरणीय परिच्छेद है। सामंतवाद के गुण तथा दोषों का विश्लेषण करने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि यह प्रथा देश तथा समाज के लिए लाभदायक होने की अपेक्षा अधिक हानिकारक ही सिद्ध हुई ।