सामन्तवाद का पतन के कारण (Decline of Feudalism)
सामन्तवाद का पतन (Decline of Feudalism)
यूरोपीय सामन्तवाद का मूल उद्देश्य सुरक्षा एवं शांति व्यवस्था था। काफी हद तक ये उद्देश्य पूरे भी हुए। किन्तु जिस सुख और शांति के इस व्यवस्था की आधारशिला रखी गयी थी, वह पूरी नहीं हो सकी। समाज सामंतों के शोषण का शिकार हो गया। समाज में अशांति एवं कुव्यवस्था- सी फैल गयी। केंद्रीय सत्ता के लुप्त हो जाने से राष्ट्रीय एकता समाप्त हो गयी । सामन्तों की बढ़ती हुई ताकत, प्रभाव, समृद्धि ने उन्हें जरूरत से ज्यादा महत्त्वाकांक्षी बना दिया। अब वे राजा के विरुद्ध षड्यंत्रों तथा विद्रोहों और पारस्परिक संघर्षों में व्यस्त रहने लगे। इससे अशांति और अराजकता और असंतोष बढ़ता बढ़ी। शासन और कानूनों की विभिन्नता के कारण लोगों का जीवन कष्टमय हो गया। सामंतों से उचित एवं निष्पक्ष न्याय की आशा नहीं की जा सकती थी। इस प्रकार चारों ओर अराजकता, अशांति. कुव्यवस्था चला गया। ऐसे वातावरण में आर्थिक, बौद्धिक तथा सांस्कृतिक प्रगति की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। ऐसी स्थिति में सामंतवाद का पतन अनिवार्य हो गया।
पाँचवी शताब्दी में आरंभ होने वाली सामंत प्रथा तेरहवीं शताब्दी तक अपने उत्कर्ष की पराकाष्ठा तक जा पहुंची। किन्तु, तेरहवीं सदी से सामंतवाद के पतन की प्रक्रिया शुरू हो गयी। वैसे तो इस प्रथा के अवशेष अठारहवीं शताब्दी के अन्त तक वर्तमान रहे परन्तु पन्द्रहवीं शताब्दी तक यह प्रथा काफी निर्बल हो गयी और जल्द ही सारे यूरोप में सामंती व्यवस्था की समाप्ति हो गयी। जहाँ तक यूरोप में सामंतवाद के पतन के कारण का प्रश्न हैं, इस संदर्भ में कुछ खास तत्वों की चर्चा की जा सकती है
शक्तिशाली राजतन्त्रों का उदय
राष्ट्रीयता की भावना के विकास और नये अस्त्र-शस्त्र एवं बारूदों के आविष्कार के कारण पन्द्रहवीं शताब्दी तक यूरोप में राजाओं की शक्ति काफी बढ़ गयी। इसी शताब्दी में स्पेन, फ्रांस तथा बाद में इंग्लैंड में शक्तिशाली राजतन्त्रों का उदय हुआ। सामंतों से छुटकारा पाने के लिए व्यापारी पैसे से राजा की सहायता करने लगे। जनता भी राजा के पक्ष में थी। ऐसे राज्यों में सामन्तों का कुछ भी महत्त्व नहीं था। यूरोप के शक्तिशाली शासकों ने सामंतों को दबाया और उनकी शक्ति को क्षीण किया।
राष्ट्रीयता की भावना का विकास-
मध्य युग के अन्त में शिक्षा का तेजी से प्रचार हुआ। शिक्षा के प्रसार के कारण लोगों में राष्ट्रीयता की भावना पनपने लगी। यह भावना सामन्तवाद की विरोधी थी दूसरी ओर सामन्त केवल अपने स्वार्थ सिद्धि में लगे रहते थे। अतः वे राष्ट्रीयता की भावना के विरोधी थे। राष्ट्रीयता हितों और व्यक्तिगत हितों के बीच जब भी टकराव होता है. विजय राष्ट्रीयता की भावना को ही मिलती है।
स्थानीय सेना की स्थापना -
आरंभ में राजा की अपनी सेना केवल नाम मात्र की होती थी। अतः वे प्रायः सामन्तों की सेना पर निर्भर रहते थे। धीरे-धीरे राजाओं ने अपनी स्थायी सेना के महत्त्व को समझा। स्थानीय सेना राजा के प्रति वफादार होती थी। नई भौगोलिक खोजों के कारण तथा वाणिज्य-व्यवसाय एवं उद्योग-धन्धों की प्रगति के चलते राजा की आय में वृद्धि हुई। अब वे अपनी स्थायी सेना रखने लगे। जनता तथा मध्य वर्ग के लोगों ने भी राजा को आर्थिक सहायता दी। इस प्रकार राजा की शक्ति बढ़ती गयी। दूसरी ओर सीमित साधनों के कारण सामन्तों की सेना कमजोर पड़ती गयी। इंग्लैंड में तो हेनरी सप्तम की संसद् ने लिवरी एण्ड मेन्टीनेन्स एक्ट (Livery and Maintenance Act) पास करके सामन्तों को सेना रखने की मनाही कर दी। इस प्रकार कालांतर में राजाओं ने अपनी स्थायी सेना के बल पर सामन्तों की शक्ति को कुचल दिया।
सामन्तों के आपसी संघर्ष -
सामन्त युद्धप्रिय और महत्त्वाकांक्षी होते थे। अपनी शक्ति और सम्पत्ति के विस्तार के लिए वे सदा आपस में ही लड़ते-झगड़ते रहते। इससे उनकी शक्ति तो धीरे-धीरे कम हुई ही, साथ ही उनकी लोकप्रियता भी जाती रही । सामन्ती युद्धों के कारण जनता को भी बड़ी कठिनाई होती थी। सैनिक फसलों को बर्बाद कर देते थे और जानमाल की काफी हानि होती थी । अतः सामन्तों की लोकप्रियता घटने लगी थी। दूसरी ओर आपसी युद्धों धर्म- युद्धों, तथा इंग्लैंड के सामन्तों के बीच होनेवाली गुलामों की लड़ाई आदि के कारण सामन्तों की संख्या एवं शक्ति में काफी कमी आयी। युद्धों के कारण उनकी आर्थिक हालत भी खराब हो गयी। ऐसी अवस्था में उनकी शक्ति इतनी कम हो गयी कि वे राजाओं की बढ़ी हुई शक्ति का सामना करने में बिल्कुल असमर्थ हो गये। अन्त में राजाओं ने उनकी रही सही शक्ति का भी अन्त कर दिया।
धर्म-युद्ध (Crusades)
सामन्त के पतन का एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारण धर्म युद्ध थे। मध्यकाल में जेरूसलेम, नजारेथ आदि धर्मस्थलों को लेकर मुसलमानों तथा ईसाइयों के बीच रक्तरंजित संघर्ष हुए। इन्हें हम धर्म युद्ध से जानते हैं। इन युद्धों में धार्मिक भावनाओं से प्रेरित होकर तथा पोप के आदेश पर बड़ी संख्या में सामन्तों ने भाग लिया। इसमें से अनेक इन युद्धों में काम आये और जो बचे रहे आर्थिक रूप से दिवालिया हो गये। इस प्रकार सामन्तों का प्रभुत्व जाता रहा। के नाम
बारूद का आविष्कार -
यद्यपि सामन्त युद्ध - प्रिय थे किन्तु उनके अस्त्र-शस्त्र पुराने ढंग के होते थे। बाद में यूरोप में नये ढंग के हथियार बनाये जाने लगे, जो कीमती होते थे। अतः बड़ी मात्रा में सामन्त इन नये अस्त्र-शस्त्रों को खरीदने में असमर्थ थे, दूसरी ओर राजा को पैसे की कमी नहीं थी। अतः वह आसानी से अपने सैनिकों को नये हथियार से सुसज्जित कर सकता था। इसी बीच बारूद, बन्दूक और तोप का आविष्कार हुआ। बारूद और तोपों से अब सामन्तों के दुर्भेद्य किलों को आसानी से तोड़ा जा सकता था। बन्दूकों के प्रचलन से सामन्तों के घुड़सवार सैनिकों का महत्त्व भी जाता रहा। किन्तु ये बड़े ही खर्चीले साधन थे। सामन्त अपनी आर्थिक कठिनाइयों के कारण इनका प्रयोग करने में असमर्थ थे। परिणामस्वरूप इन नये साधनों पर राजा का एकाधिकार हो गया। अतः युद्धों में सामन्तों का महत्त्व घट गया। पुन:, इस कारण से सामन्तों को नियंत्रित करने में भी राजा को सफलता मिली।
रोमन सम्राटों का प्रयास
एक हजार ई. के लगभग पश्चिमी यूरोप में पवित्र रोमन साम्राज्य की स्थापना हुई। सम्राट - सामन्ती प्रथा के बाहर थे और वे एक शक्तिशाली केंद्र की स्थापना के पक्षपाती थे। अतः उन्होंने अपने प्रभुत्व काल में सामन्तों की बढ़ती हुई शक्ति पर अंकुश लगाकर रखा । सामन्तों में सम्राटों से लोहा लेने की शक्ति नहीं थी। छापेखाने का आविष्कार-धर्म- युद्धों के क्रम में अरबों के साथ सम्पर्क के कारण यूरोप में छापेखाने का प्रयोग शुरू हुआ। इस प्रकार बड़ी संख्या में सस्ती पुस्तकें सुलभ हो गयीं। परिणामस्वरूप यूरोप में नये विचारों का तेजी से प्रचार हुआ और अन्ध-विश्वासों में कमी आयी। इस नई चेतना ने लोगों की आँखें खोल दीं और लोग सामन्तवाद की बुराइयों से परिचत हो गये। लोग जल्द से जल्द इस व्यवस्था से मुक्ति प्राप्त करने के लिए लालायित हो उठे।
चर्च का प्रभाव -
मध्यकाल में यूरोप के जन-जीवन पर चर्च का गहरा प्रभाव था। चर्च तथा पोप की आज्ञाओं का उल्लंघन राजा भी नहीं कर सकते थे। जब पोप ने अनुभव किया कि सामन्त प्रजा पर तरह-तरह के अत्याचार करते हैं तथा सामन्ती युद्धों के कारण यूरोप को धन-जन की अपार क्षति उठानी पड़ रही है, तो उसने इस दिशा में आवश्यक कदम उठाए। चर्च के द्वारा एक आदेश निकाला गया जिसे 'ईश्वर की शान्ति' (Truce of God) कहा जाता था। इस आदेश के अनुसार बुधवार की शाम से लेकर सोमवार की सुबह तक तथा वर्ष के कुछ महीनों में युद्ध न हो सकते थे। सामन्तों को पोप द्वारा अपनी प्रजा पर अत्याचार न करने की भी सलाह दी गयी। चर्च तथा पोप के इन कार्यों ने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सामन्तों की शक्ति को सीमित किया।
मध्यवर्ग का उत्कर्ष -
शिक्षा की प्रगति, छापाखाने का आविष्कार, वाणिज्य-व्यवसाय की उन्नति तथा शहरों की स्थापना के कारण यूरोप के विभिन्न देशों में एक प्रभावशाली मध्यम वर्ग का उत्कर्ष हुआ। शहरों में रहनेवाले लोग स्वतंत्र विचारों के पोषक होते थे। जाग्रत मध्यम वर्ग के लोग कब तक सामन्तों की अधीनता को सहते? ये लोग शान्ति चाहते थे ताकि उद्योग-धन्धों तथा व्यापार का विकास हो। दूसरी ओर सामन्त युद्धप्रिय थे। अतः मध्यम वर्ग के लोग जल्द से जल्द सामन्तों के चंगुल से मुक्त हो जाना चाहते थे। यही कारण था कि इस वर्ग के लोगों ने राजा और मध्यम वर्ग ने मिलकर कालान्तर में सामंतों की शक्ति का दमन किया।
उद्योग और व्यापार की उन्नति
सामन्त प्रथा में उद्योग एवं व्यापार के प्रति उदासीनता बरती गयी। फिर भी यूरोप के देशों में उद्योग एवं व्यापार की उन्नति होती रही । मध्यकाल में धर्म-युद्धों के कारण यूरोपीय देशों को सम्पर्क एशिया और अफ्रीका के देशों के साथ हुआ इससे उद्योग एवं वाणिज्य का तेजी से विकास हुआ। जल्द ही अनेक नए शहर स्थापित हो गये। उद्योग एवं वाणिज्य की प्रगति ने एक अत्यन्त समृद्ध व्यवसायी वर्ग को जन्म दिया। व्यवसायी वर्ग सामन्तों से क्षुब्ध था क्योंकि सामन्त व्यापार के मार्ग में रोड़े अटकाते थे। इस प्रकार नया व्यवसायी वर्ग अपने अधिकारों के प्रति भी सचेष्ट हो उठा। सामन्तवाद की समाधि पर ही यह वर्ग अपनी महत्त्वाकांक्षा के महल का निर्माण कर सकता था। अतः इस वर्ग के लोगों ने राजा का साथ देकर सामन्तों की शक्ति को कुचलने में काफी सहयोग दिया।
नये शहरों की स्थापना
उद्योग एवं वाणिज्य की प्रगति के कारण यूरोप में अनेक नए शहरों की स्थापना हुई। शहरों का वातावरण काफी खुला था। वे नगर आधुनिकता के प्रतीक थे। नगरों में दूर-दूर के व्यापारी आते जाते थे। अतः नगरों में विचारों का आदान-प्रदान शुरू हुआ और ज्ञान की प्रगति हुई। व्यापारी शिक्षा के प्रति भी सचेष्ट हो उठे और यूरोपीय नगर आधुनिक शिक्षा के प्रतिष्ठित केंद्र बन गये। गाँवों से किसान मजदूर भागकर नयी आजीविका की खोज में शहरों में आने लगे। यह बात सामंतों को पसंद न आयी। फलतः व्यापारियों और सामंतों के बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गयी। सामंतों के विरुद्ध व्यापारियों ने राजा की भरपूर सहायता की। फलस्वरूप सामंतों की शक्ति कम होती गयी।
मुद्रा का प्रचलन-
मुद्रा के प्रचलन ने आर्थिक व्यवस्था में आमूल परिवर्तन किया। विनिमय की सामन्ती प्रथा का अन्त हो गया। वस्तुओं को खरीदने के लिए सामन्तों को भी अब मुद्रा की आवश्यकता हुई। अब पैसे लेकर उनहोंने अपने कम्मियों को भी स्वतंत्र करना शुरू कर दिया। इससे उनका प्रभाव घटता गया। दूसरी ओर इससे राजा को सहूलियत हुई। वह वेतन देकर स्थायी सेना रखने लगा और सामन्तों के नियंत्रण से मुक्त हो गया।
किसानों का असंतोष
सामन्तवादी व्यवस्था में किसानों का बेहद शोषण होता था। भला कब तक वे चुपचाप बैठकर अपनी बर्बादी का नजारा देखते रहते। धीरे-धीरे उनके बीच असंतोष की भावना प्रबल होती गयी और अन्त में इस भावना ने सामन्तों के विरुद्ध विद्रोहों को जन्म दिया। 1381 ई. में इस प्रकार का एक भयानक विद्रोह इंग्लैंड में हुआ। 1358 ई. में फ्रांस में भी किसानों का भयंकर विद्रोह हुआ था। ये विद्रोह सामन्तवाद के लिए प्राणघातक सिद्ध हुए।
वस्तुतः सामन्तवाद की आवश्यकता अस्थायी काल के लिए थी। जिन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए इसकी स्थापना की गयी थी, उनकी प्राप्ति के बाद इसका कोई महत्त्व नहीं रह गया था। बाद में तो यह व्यवस्था समाज तथा देश के लिए अत्यन्त हानिकारक हो गयी। समुचित सुधार और परिवर्तनों के द्वारा इसे लाभदायक बनाया जा सकता था ।
किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। ठीक इसके विपरीत सामन्तों की युद्ध प्रवृत्ति एवं उनके अत्याचारों ने कुछ ऐसी - शक्तियों को जन्म दिया जिसके चलते अन्त में यूरोप में सामन्तवाद का नाश हो गया।
सामन्त-प्रथा का मूल्यांकन (Evaluation of Feudal System)
सामन्तवाद समय, स्थान और मानव स्वभाव की आवश्यकताओं के अनुकूल विकसित एक ऐसी अवस्था थी जिसने समय की चुनौतियों को सहर्ष स्वीकार किया, उनका समुचित निदान किया तथा सदियों यूरोप के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित किया। सामन्तवाद की प्रणय और शौर्य की परम्पराओं ने कवियों तथा साहित्यकारों को उच्च कोटि की साहित्यिक रचनाओं की प्रेरणा दी। इसके सांस्कृतिक एवं नैतिक महत्त्व भी कम नहीं है। साहस, शौर्य, उच्च चरित्र, सदाचार आदि आदर्शों को स्थापित किया गया। इस प्रथा ने मध्यकाल में स्त्रियों की स्थिति को ऊँचा उठाने का प्रयास किया। उस समय जीवन का कोई ऐसा अंग नहीं था जिस पर व्यवस्था का प्रभाव नहीं पड़ा हो। इस संदर्भ में इतिहासकार विल डूरेन्ट ने लिखा है, “इतिहास का अधिकांश आर्थिक और सामाजिक रचनाओं के समान सामन्त-प्रथा भी स्थान, समय और मानव स्वभावों की आवश्यकता के अनुकूल थी।" दुर्भाग्यवश इस व्यवस्था में अनेक मौलिक दोष भी विद्यमान थे। इसने सामाजिक वर्ग-प्रणाली, जन-साधारण के शोषण, अनावश्यक युद्धों, जीवन की विलासिता आदि को प्रोत्साहन देकर उस सामाजिक अशान्ति को जन्म दिया जिसका समाधान अब तक नहीं हो पाया है। राष्ट्रीय एकता पर सामन्तवाद ने भयंकर कुठाराघात किया । सामन्तों ने आर्थिक प्रगति तथा लोकहित की उपेक्षा की। इसी प्रकार साहित्य, ज्ञान विज्ञान, कला एवं संस्कृति के अन्य पक्षों में भी विशेष उन्नति नहीं हो पायी। अतः सामन्तवादी युग को यूरोपीय इतिहास का अन्धकार युग (Dark Age) कहा जाता है। सचमुच ही कुछ हद तक यह अंधकार युग था। आमतौर पर जनता का जीवन कष्टदायक था। लोग शिक्षा के अभाव में अज्ञानी तथा अन्धविश्वासी हो गये थे। सामाजिक विषमता ने कालान्तर में वर्ग संघर्ष का - स्वरूप ग्रहण कर लिया। किसानों और मजदूरों का भयंकर रूप से शोषण किया गया। आम जनता पूर्णतया असहाय थी । सामन्तों की शक्ति इतनी बढ़ गयी कि इसने राष्ट्रीय एकता एवं राष्ट्रीयता की भावना का गला घोंट दिया। यह स्थिति सम्पूर्ण यूरोप में लगभग एक हजार वर्ष तक बनी रही। सामन्त-प्रथा के प्रभाव इतने व्यापक स्थायी, सुदूरगामी एवं शक्तिशाली थे कि विश्व के अनेक देश आज भी उसके दोषों से ग्रसित हैं और उनसे मुक्ति पाने के लिए छटपटा रहे हैं।