सामन्तवाद : स्वरूप और संरचना (Feudalism : Form and Structures)
प्रस्तावना ( Introduction)
सामन्तवादी व्यवस्था
मूलतः एक ग्रामीण व्यवस्था थी। पश्चिमी यूरोप में एक केंद्रीय सत्ता के अभाव के
परिणामस्वरूप ऐसी राजनीतिक संस्थाओं का उदय हुआ जिन्हें यूरोपीय सामन्तवाद की एक
प्रमुख विशेषता माना जाता है। सामन्तवाद को अंग्रेजी में फ्यूडल सिस्टम (Feudal System) कहते हैं। 'फ्यूडल' शब्द की उत्पत्ति फ्युड (Feud) शब्द से हुई है। जिसका
अर्थ है जमीन का वह टुकड़ा (Fief) जो सेवा करने की कुछ शर्तों पर उसका स्वामी किसी सामन्त को
कृषि कार्यों के लिए दे देता है। वस्तुतः यूरोपीय सामन्तवादी व्यवस्था का मूल आधार
भूमि का स्वामित्व तथा वितरण ही था।
1 सामन्ती संगठन (Feudal Organisation)
देश की सारी भूमि राजा की सम्पत्ति मानी जाती थी। वह अपने लिए कुछ भूमि रखकर (जिसे कानन लैण्ड कहा जाता था) शेष अपने मुख्य सामन्तों में बाँट देता था । ये मुख्य सामन्त लॉड ड्यूक अथवा अर्ल कहलाते थे। ये मुख्य सामन्त राजा से प्राप्त भूमि का एक भाग अपने पास रखकर शेष छोटे सामन्त को दे देते थे। ये छोटे लॉर्ड बैरन कहलाते थे। बैरन भूमि के बदले में मुख्य सामन्तों को सैनिक सहायता देते थे। इस प्रकार ड्यूक और अर्ल अथवा मुख्य सामन्त राजा के सामन्त (Vassals) होते थे और उसे अपना अधिपति स्वीकार करते थे। नाइटों के नीचे सामन्तों का कोई वर्ग नहीं होता था । सामन्ती व्यवस्था में सबसे नीचे किसान थे। सामन्त अपनी भूमि को किसानों को जोतने के लिए देते थे। किसान अपनी इच्छा से कुछ भी नहीं कर सकते थे। उपज का एक भाग इन्हें अपने सामन्त को देना पड़ता था। सामन्त उनसे बेगारी भी लेते थे। अपने स्वामी की आज्ञा के बिना किसान भूमि छोड़कर कहीं नहीं जा सकता था और तो और वह सामन्त की अनुमति के बगैर अपनी पुत्री की शादी भी नहीं कर सकता था।
सामन्तों के अधिक्रम में सबसे छोटी श्रेणी नाइटों (Knights) की होती थी। नाइट बैरन को अपना अधिपति मानते थे और उसे अपनी सैनिक सेवा प्रदान करते थे।
करार की शर्तें
सामन्तवादी व्यवस्था एक प्रकार के करार, समझौता अथवा संविदा (Contract) पर आधारित थी। जैसा कि ऊपर लिखा गया है, सामन्ती व्यवस्था में एक
ऐसे अधिक्रम (Hierarchy) की स्थापना हुई जिसमें
क्रमशः राजा, अर्ल अथवा ड्यूक बैरन, नाइट तथा अन्त में किसान
आते थे। ये सबके सब परस्पर एक जैसी शर्तों के अधीन बँधे होते थे और दोनों पक्ष
अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करते थे। सामन्तों के तीन प्रमुख कर्तव्य थे : (1)
अपनी जागीरों की सुरक्षा करना (2) अपनी जागीरों में कृषि व्यापार और व्यवसाय का
प्रबन्ध करना तथा (3) अपने से ऊँचे सामन्त अथवा राजा को युद्ध के समय सहायता करना।
इनके अलावा वे जनता के धर्म की भी रक्षा करते थे। दुर्बलों तथा नागरिकों की रक्षा
करना भी उनका आदर्श था। न्याय भी सामन्त ही किया करते थे। वे अपनी जागीर की प्रजा
से कर वसूलते थे और अपनी सेना रखते थे। प्रो. ल्यूकस का मत है कि सामन्त मध्ययुग
में वही कार्य करते थे जो आधुनिक युग में संगठित राज्य कर रहे हैं।
उपर्युक्त विवरण से यह
स्पष्ट होता है कि प्रत्येक सामन्त अपने से ऊँचे सामन्त को अपना अधिपति मानता था
तथा अपने से नीचे सामन्तों का अधिपति होता था। राजा का दर्जा सबसे ऊँचा था और देश
के सभी वर्ग के लोग उसे अपना अधिपति मानते थे। ऊपर से नीचे तक सारे सम्बन्ध निष्ठा
पर आधारित थे। कोई भी सामन्त भूमि का स्वामी नहीं होता था। वह अपने अधिपति की ओर
से उसका प्रबंध करता था। सैद्धान्तिक रूप से देश की सारी भूमि राजा की होती थी। आवश्यकता
के समय प्रत्येक अधिपति अपने अधीनस्थ सामन्तों से सैनिक सहायता माँग सकता था। जैसे
युद्ध के समय राजा ड्यूक तथा अलों से, अलों-बैरनों से तथा बैरन नाइटों से सैनिक सहायता लेते थे।
प्रत्येक सामन्त सैनिकों का एक टुकड़ी अपने अधिपति को देता था। इन सबसे मिलकर ही राजा
की सेना बनती थी। यह सामन्ती अधिक्रम इतना शक्तिशाली था कि राजा भी किसी बैरन या
नाइट को सीधा नहीं बुला सकता था और न ही उससे सहायता माँग सकता था। प्रत्येक कार्य
में इस अधिक्रम का पूरी सावधानी से पालन किया जाता था।
सामन्तों का प्रभावशाली स्थान-
प्रत्येक सामन्त अपनी जागीर में सर्वशक्तिशाली होता था। इसका परिणाम यह हुआ कि देश में राजनीतिक एकता लुप्त हो गयी और यूरोपीय देशों में सदियों तक शक्तिशाली केंद्रीय सत्ता स्थापित न हो सकी। कभी-कभी तो मुख्य सामन्त इतने शक्तिशाली हो जाते थे कि वे राजा की आज्ञाओं की अवहेलना भी करने लगते थे। प्रारंभ में यह प्रथा पैतृक नहीं था । किन्तु बाद में यह पैतृक हो गयी। मुख्य सामन्तों के पुत्र सामन्त होते थे।
नियुक्ति समारोह -
जब राजा किसी सामन्त को अथवा बड़े सामन्त छोटे सामन्त को
जागीर देता था, तो इस अवसर पर एक विशेष
समारोह का आयोजन किया जाता था। इसे नियुक्ति समारोह अथवा शरणपूर्ण ( Investiture ) कहते थे। अधीनस्थ सामन्त
(Vassale) अपने स्वामी के सामने
घुटने टेककर अपना हाथ स्वामी के हाथ में देकर निष्ठा एवं सेवा की शपथ लेता था। इसी
प्रकार राजा भी जागीर के प्रतीक के रूप में सामन्त के हाथ में एक मुट्ठी मिट्टी
देता था और वादा करता था कि ज़रूरत पड़ने पर वह उस सामन्त की रक्षा करेगा, उनके परिवार की महिलाओं
का सम्मान करेगा और न्याय देगा।
सामन्तवाद का स्वरूप
(Structure of Feudalism)
सामन्तवाद एक मिश्रित
संगठन था। इसके स्वरूप को जानने के लिए इस व्यवस्था की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक
ढाँचे को जानना आवश्यक हो जाता है।
सामाजिक ढाँचा -
सामन्ती
समाज तीन वर्गों में बँटा हुआ था। सबसे ऊपर शासक वर्ग के लोग थे। इनमें राजा, बड़े सामन्त, छोटे सामन्त और अधिकारीगण
आते थे। मध्यवर्ग में पादरी और चर्च के लोग, शिक्षक, वकील, डाक्टर, उद्योगपति, व्यापारी आदि आते थे। सबसे नीचे किसान, मजदूर तथा गुलामों का
वर्ग था। इस प्रकार सामन्ती समाज एक पिरामिड के समान था जिसमें ऊपर राजा तथा सबसे
निचली सतह पर कम्मी किसान,
मज़दूर और उच्च वर्ग शासक
वर्ग के लोगों के पास बड़ी जागीरें थीं जो पुश्तैनी थीं। इनका रहन-सहन, खानपान आदि उच्च स्तर का
होता था। इनका जीवन विलासमय और ऐश आराम का था। इनकी जागीरों में जो लोग रहते थे, वे लोग गुलाम थे। अपने
सामंत के अधीन होते थे। सामन्तों के दुर्ग किसी ऊँचे स्थान अथवा पहाड़ी पर बनाए
जाते थे। ये दुर्ग के लकड़ी या पत्थर के बने होते थे, जो मजबूत भव्य तथा विशाल
होते थे। दुर्ग के चारों ओर एक मज़बूत प्राचीर होती थी। दुर्ग चारों ओर से गहरी खाई
से घिरा होता था, जिसमें पानी भरा रहता था।
खाई के ऊपर जगह-जगह पर पुल बने होते थे, जिन्हें आवश्यकता पड़ने पर खोला या बन्द किया जा सकता था।
प्राचीर में जगह-जगह सैनिक चौकियाँ होती थी।
मध्य वर्ग
पादरी वर्ग के
लोगों को जीवन सामान्यतः संतोषजनक था। लगभग हर गाँव में ईसाइयों का चर्च होता था ।
इसमें पादरी रहते थे। पादरी वर्ग के लोग धर्म प्रचार का काम करते थे और धार्मिक
एवं सामाजिक अनुष्ठानों का सम्पादन करते थे। वे पुरोहित का काम करते थे तथा विवाह, अन्तिम संस्कार आदि कराते
थे। समाज में पादरियों का काफी सम्मान था। मध्य वर्ग में शिक्षक डाक्टर, उद्योगपति, सौदागर आदि भी आते थे। ये
सुखी तथा सम्पन्न लोग थे। किन्तु सामन्तवादी व्यवस्था में मध्यम वर्ग का विशेष
महत्त्व नहीं था। अब तक यह वर्ग संगठित, शक्तिशाली तथा जागरूक नहीं हो पाया था।
निम्न वर्ग -
निम्न वर्ग
में किसान, मजदूर तथा गुलाम सम्मिलित
थे। किसान अपने सामन्त के दुर्ग के पास ही छोटे-मोटे मकान अथवा झोंपड़ी बनाकर रहते
थे। आक्रमण के समय वे भागकर दुर्ग में शरण लेते थे। किसान सामन्त के खेतों में काम
करते थे। यद्यपि संख्या की दृष्टि से किसान सबसे अधिक थे, किन्तु सामन्त-समाज में
इनका स्थान सबसे नीचा था किसान तीन वर्गों में बंटे हुए थे स्वतंत्र किसान, कृषि दास ( Villeins) तथा दास - किसान (Serfis) । स्वतंत्र - किसान -
स्वतंत्र किसान अपने सामन्त से भूमि प्राप्त करके उस पर खेती करते थे। वे अपने
भूमि का प्रबंध व्यक्तिगत सम्पत्ति की तरह करते थे, यद्यपि भूमि पर उनका कोई हक नहीं होता था।
परन्तु वे सामंत के लिए कृषि कार्य नहीं करते थे। हाँ, वे भूमि का निश्चित लगान
अवश्य देते थे। ऐसे किसानों की संख्या काफी कम थी। इनकी दशा अपेक्षाकृत अच्छी थी।
इन्हें सामन्त के यहाँ बेगारी नहीं करनी पड़ती थी। सामन्त के कारिन्दे आदि भी
इन्हें नहीं सताते थे। सामन्त भी इनके प्रति उदारता से पेश आता था।
कृषिदास -
किसानों का
दूसरा वर्ग कृषि दास (Villeins)
का था। उन्हें अपनी उपज
का एक निश्चित अंश, अपने अधिपति को देना
पड़ता था। उन्हें कुछ निश्चित दिन अपने सामन्त के खेतों पर भी काम करना पड़ता था।
बाकी के दिनों में उन्हें सामन्त से प्राप्त अपनी भूमि में काम करने की छूट थी।
इनका जीवन स्वतंत्र किसानों की अपेक्षा असंतोषजनक किन्तु दास किसानों की तुलना में
अच्छा था।
दास किसान अथवा सर्फ-
जनसंख्या में दास कृषक अथवा सर्फ (Serfs) सबसे अधिक थे। अधिकांश दास कृषकों का जीवन दासों जैसा था। वे अपने सामन्त के खेतों में काम करते थे और उसकी अनुमति के बिना जमीन छोड़कर कहीं जा नहीं सकते थे। दरबार में जाकर सामन्त के सामने अपनी फरियाद भी पेश नहीं कर सकते थे। इसके अतिरिक्त उनसे तरह-तरह की बेगारी भी ली जाती थी। मकान बनाना या उसकी मरम्मत करना, सड़क बनाना तथा उसकी मरम्मत करना तथा सामन्त के खेतों में बिना मजदूरी का काम करना आदि बेगारी उनसे ली जाती थी। किसानों को ऐसी सेवाओं के लिए सामन्त जब चाहे बुला सकता था। यदि सामन्त के यहाँ कोई उत्सव या शादी ब्याह आदि होता, तो दास कृषकों को उसके यहाँ काम करना पड़ता था। ऐसे अवसरों पर उन्हें उपहार आदि भी देना पड़ता था। इन सबके बदले में उन्हें केवल सुरक्षा का आश्वासन मिलता था। सामन्त तथा उसके कारिन्दे दास कृषकों का शोषण करते और उन्हें तरह-तरह से सताते थे। अधिकांश सामन्त कृषि दासों के साथ बड़ी निर्दयता का व्यवहार करते थे। कृषि दासों का जीवन बहुत कष्टमय था। कभी-कभी जब सामन्त ऐसे दास कृषक से काफी प्रसन्न होता था तो वह उसे मुक्त कर देता और इस प्रकार वह स्वतंत्र किसान बन जाता था।
आर्थिक ढाँचा -
सामन्तवादी आर्थिक व्यवस्था भी समाज की भाँति पिरामिडनुमा थी । भूमि इस आर्थिक ढाँचे का आधार थी। उसमें राजा का स्थान सबसे ऊँचा था । वह सर्वश्रेष्ठ भूपति होता था। वह देश की समस्त भूमि का स्वामी होता था, परन्तु वह समस्त भूमि अपने अधीनस्थों, बड़े सामन्तों में बाँट देता था । इसी प्रकार बड़े सामन्त कुछ जमीन को स्वयं अपने लिए रखकर शेष छोटे सामन्तों के बीच बाँट देते थे। इस प्रकार अन्त में किसान आते थे। किन्तु. समस्त भूमि का स्वामी राजा होता था। भूमि पर सामन्तों अथवा किसानों का कोई अधिकार नहीं होता था ।
राजनीतिक ढाँचा -
सामन्तवाद का राजनीतिक ढाँचा भी पिरामिड की तरह था। राजा सर्वोपरि और सम्पूर्ण भूमिका वह स्वामी था जिन्हें वह बड़े सामन्तों और बड़े सामन्त अपने से छोटे सामन्तों के बीच कुछ शर्तों पर बाँटते चले गये। सामन्त आवश्यकतानुसार राजा की सैनिक सहायता कर देते थे और उनके दरबार में बैठकर आवश्यक परामर्श दिया करते थे परन्तु अपने क्षेत्रों के आन्तरिक प्रशासन में वे पूर्णतः स्वतंत्र होते थे। बाद में पादरी वर्ग के लोगों को भी ये विशेषाधिकार प्राप्त हो गये प्रशासन एवं सेना पर इनका व्यापक प्रभाव था।