सामन्तवाद का अर्थ और परिभाषा
सामन्तवाद पर विचार- प्रस्तावना
मध्ययुगीन यूरोपीय सभ्यता
के निर्माण तथा विकास में जितने तत्वों ने काम किया है उनमें एक विशेष प्रधान तत्व
है सामन्तवाद । 9वीं सदी से लेकर 11वीं सदी तक यूरोपवासियों
के जीवन के राजनीतिक, आर्थिक सामाजिक तथा
सांस्कृतिक पक्षों को सामन्तवाद ने केवल प्रभावित ही नहीं किया अपितु अपने
उत्तरोत्तर विकास के लिए वे पक्ष इस पर आधारित भी थे। सच पूछा जाय तो 10वीं और 11वीं सदियों में यूरोपीय
सभ्यता की बुनियाद सामन्तवाद पर ही कायम थी। कथित काल में यूरोपीय देशों में
सामन्तवाद का उत्कर्ष और विकास हुआ था जिसने मानव-सभ्यता के निर्माण तथा विकास में
महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया।
सामन्तवाद का अर्थ और
परिभाषा (Meaning and
Definition of Feudalism)
सामन्तवाद की सटीक परिभाषा देना कठिन है। एक तरफ इसमें राजनीतिक वैधता (Political legal) के तत्व शामिल थे तो दूसरी तरफ सामाजिक-आर्थिक (Socio-economic) तत्व भी विद्यमान थे। यूँ सामन्तवाद राजनीतिक तथा सामाजिक संगठन की रचना में योगदान करता रहा किन्तु इसका मूल संबंध भूमि से था। इस प्रकार सामन्तवाद में अनेक बातें शामिल थीं। इसके अतिरिक्त सामन्तवाद की जन्मभूमि तथा विकास स्थल भी एक नहीं है। इसका प्रथम उद्भव फ्रांस में हुआ था और वही वह अपनी स्थिति की पराकाष्ठा पर पहुँच गया। पुनः जर्मनी, इटली, आदि देशों में इसका विकास हुआ और तत्पश्चात यूरोप के अन्य देशों में यह फैलता गया। यूरोप की तरह एशियाई देश भी इसके विकास स्थल रहे। इन सारे देशों की सामन्ती व्यवस्था के अध्ययन तथा पर्यवेक्षण के उपरान्त ही विचारकों तथा मीमांसकों ने सामन्तवाद की व्याख्या इस प्रकार निर्धारित की है :
प्रसिद्ध भारतीय विचारक
श्री एम. एन. राय ने सामन्तवाद में तीन तत्वों का समावेश पाया है- " राजनीतिक
तत्त्व, सामाजिक तत्त्व तथा
आर्थिक तत्व उनके अनुसार 'सामान्तवाद एक सामाजिक
तथा राजनीतिक व्यवस्था थी जो मध्ययुगीन यूरोप में भूमि वितरण के आधार पर फली फूली
थी।" विचारक का संकेत इस बात की ओर है कि सामंत सेना से राजा की सहायता करते
थे (राजनीतिक), सामन्ततंत्र ने समाज के
विभिन्न पहलुओं को प्रभावित किया (सामाजिक) और समूची व्यवस्था भूमि (आर्थिक) पर
आश्रित थी।
एक अन्य भारतीय इतिहासकार
श्री राम शर्मा की दृष्टि में सामन्तवाद मात्र एक सामाजिक संगठन था। उनका कथन है; "यूरोप का मध्यकालीन
सामन्तवाद एक सामाजिक संगठन था जो भूमि के स्वामित्व और उससे संबंधित सेवा की कुछ
शर्तों पर आधारित था। " सामन्तवाद को सामाजिक संगठन का रूप देकर भी इसी
विद्वान ने यह भी स्पष्ट किया है कि इस व्यवस्था में प्रशासन का तरीका, आर्थिक आवश्यकता तथा
राजनीतिक दर्शन के गूढ़ सिद्धांत तथा तत्व भी शामिल थे।
पश्चिमी विद्या- विशारद
विच (Weech) ने श्री एम. एन. राय के
विचार का कुछ संशोधन के साथ समर्थन किया है। उन्होंने सामन्तवाद का मूलाधार भूमि
को माना है। भूमि के आधार होने से दो भावनाओं का जन्म हुआ-रक्षा करने की भावना तथा
सेवा करने की भावना । भूमि के चलते एक अन्य परिणाम भी घटित हुआ समाज में
शोषक-शोषित वर्ग का जन्म विच महोदय ने लिखा है; "इस व्यवस्था में समाज का प्रत्येक व्यक्ति चाहे
वह पूंजीपति वर्ग का हो अथवा सर्वहारा वर्ग का प्रजातंत्र का समर्थक हो या
राजतंत्र का राजा हो या प्रजा- एक दूसरे से बँधा था ।" इसी विद्वान ने इसे और
भी अधिक स्पष्ट करते हुए लिखा है; “सामन्ती व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति अपने से निम्न वर्ग
का शोषण करने का अधिकार रखता था और अपने से ऊपर वालों से शोषित होने का । "
बिशप स्ट्यूब्स ने
विश्लेषणात्मक ढंग से सामन्तवाद की व्याख्या प्रस्तुत की है। उसके अनुसार, "यह कहा जा सकता है कि
भूमि के स्वामित्व के माध्यम से सामन्तवाद समाज का एक पूर्ण संगठन है जिसमें राजा
से लेकर भूमिपतियों तक के सारे लोग संरक्षण तथा सेवा की शर्तों से एक-दूसरे से
बँधे हैं। शर्त यह है कि राजा अपनी रैयतों का संरक्षण करें और रैयत अपने राजा की
सेवा करें। संरक्षण और सेवा उस भूमि की किस्म तथ रकबा पर आधारित और नियमित होती है
जो एक (रैयत) दूसरे (राजा अथवा भूमिपति) के द्वारा पाता है। उन प्रदेशों में जो
राज्य का रूप धारण कर लिये हैं, संरक्षण और सेवा के अधिकारों में एक और अधिकार
क्षेत्राधिकार जुट जाता है। भूमिपति अपनी रैयत की रक्षा के साथ-साथ न्याय का भी
काम करता है, रैयत अपने स्वामी की सेवा
के अतिरिक्त उसके पास अपनी समस्या तथा झगड़े संबंधी मुकदमा भी करता है। जिन
प्रदेशों में सामन्तवादी सरकारों का विकास हो गया है वहाँ प्रजा के शासन की सारी
शाखाएँ- राजनीतिक, आर्थिक, न्यायिक आदि इन्हीं
शर्तों पर संचालित होती है। केन्द्रीय सरकार केवल छाया मात्र बनी रहती है। "
एक अन्य इतिहासकार मायर्स
(Myers) का मत है कि "यह एक
मध्यकालीन सरकार की पद्धति थी जो भूमि पर आश्रित थी और जिसका विकास मध्य युग के
अन्तिम चरण में यूरोप में हुआ और ग्यारहवीं, बारहवीं तथा तेरहवीं सदियों में इसका पूर्ण विकास
हुआ।" वास्तव में यह मध्य काल की सरकार की एक विशेष पद्धति थी जिसकी प्रधान
विशेषता यह थी कि
भूस्वामी राजाओं की तरह संप्रभुता का अधिकार रखते थे। वे भूमि के स्वामी भी थे और
शासक के अधिकारों से सम्पूरित भी थे।
मध्यकालीन यूरोप की विशेष
परिस्थितियों का सामना करने के लिए सामन्तवाद का जन्म हुआ था। एक विशेष परिस्थिति
थी युग की अराजकता तथा अशान्ति। शार्लमाँ की मृत्यु के उपरान्त पश्चिमी यूरोप में
लगभग दो-तीन शताब्दियों तक घोर अराजक स्थिति बनी रही और केवल नाममात्र को कानून और
व्यवस्था रह गयी थी। बर्बर जातियों के आक्रमणों से यूरोप में केंद्रीय शासन
व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी और राजाओं ने नाममात्र को अपनी टूटती छीजती शक्ति के
साथ अपनी स्थिति किसी तरह बनाये रखी। उत्तर में नारमनों तथा डेनों के आक्रमण, पूरब में हंगेरियनों तथा
दक्षिण में मुसलमानों के आक्रमणों से यूरोप के प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण राज्य
टुकड़ों में बँट गये । शासन छोटी-छोटी ईकाइयों में विभक्त हो गया। प्रत्येक इकाई
एक स्थानीय लार्ड या सामन्त के अधीन होती थी । लोगों का जीवन संकटों से ग्रस्त हो
गया। उस समय एक ऐसी शक्ति तथा व्यवस्था की आवश्यकता थी जो आम लोगों के जान-माल की
रक्षा करते हुए अराजक तथा अव्यवस्थित स्थिति पर नियंत्रण कायम कर सके। इसी
आवश्यकता ने यूरोप में सामन्तवाद को जन्म दिया। ऐसी बात हुई कि कुछ वीर पुरुषों ने
जो ईकाइयों के स्वामी थे,
ग्रामों तथा नगरों के
निवासियों की सुरक्षा करने और अराजकता का दमन करने का उत्तरदायित्व अपने सिर पर ले
लिया। उन्होंने ग्रामों तथा नगरों में दुर्गा का निर्माण कर लिया और वहाँ कुछ
सैनिक रखने लगे। सैनिकों की सहायता से वे आसपास के निवासियों की रक्षा करने का काम
करने लगे। धीरे-धीरे वे आसपास की भूमि का स्वामी बनते गये। वहाँ के कृषकों, श्रमिकों, व्यापारियों तथा अन्य
वर्गों के लोगों ने भी उनकी अधीनता स्वीकार कर ली तथा भूमि और सुरक्षा के बदले उस
वीर सामन्त को उन लोगों ने कर देना स्वीकार कर लिया।
इस तरह तत्कालीन समय तथा
समाज की आवश्यकताओं के फलस्वरूप सामन्तवाद का जन्म हुआ। यह सब इतिहास में ऐसे
समयों में अनेक बार हुआ है,
जब केंद्रीय शासन लोगों
के जीवन और सम्पत्ति की रक्षा करने में अक्षम हो गया। मिसाल के तौर पर समाज में इस
प्रकार की व्यवस्था प्राचीन मिस्र में विद्यमान थी। 900-1450 के बीच पश्चिमी यूरोप
में यह व्यवहारतः हर किसी के जीवन में एक प्रधान शक्ति थी। सेना तथा सेवा पर
आधारित भूमि धारण की यह व्यवस्था सामन्तवाद (Feudalism) कहलाती है। जिस जमीन या स्वत्व पर अपने से ऊपर
की किसी शक्ति को शुल्क देना पड़ता है, वह क्षेत्र 'फ्यूड' कहलाता था। ऐसे एक या अनेक क्षेत्रों का मालिक 'फ्यूडल लाई (Feudal Lord) कहलाता था। फ्यूडल लॉर्ड
के लिए हिन्दी में सामान्यतः 'सामन्त' शब्द और उनकी परम्परा या प्रणाली के लिए 'सामन्तवाद' अथवा 'सामन्ततंत्र' शब्द का प्रचलन हुआ है।
सामन्तवाद न कोई प्रणाली, न योजना और न आयोजना थी। यह तो आवश्यकता के कारण हुआ एकमात्र विकास था।
प्लैट तथा इमण्ड ने लिखा है, “जब रोमन साम्राज्य खण्ड-खण्ड होने लगा तब बहुत से कृषकों ने संरक्षण प्राप्त करने के लिए अपनी जमीनें शक्तिशाली भूमिपतियों को सौंप दी। बहुत से धर्मपरायण व्यक्तियों ने अपनी जमीनें चर्च को अर्पित कर दीं और उन्हें अपने जीवन काल में उन पर खेती करने का अधिकार मिल गया। इस प्रकार बहुत से विशेष सामन्त भूमिपति बन गए। इन्हीं लेखकों के अनुसार सामन्ततंत्र के विकास पर जर्मनों ने भी प्रभाव डाला। विजेता जर्मन सरदार प्राय: अपने अनुयायियों को भविष्य में भी उनकी सहायता प्राप्त करते रहने के लिए भूमि के अनेक टुकड़े प्रदान कर देते थे। जिस प्रकार बर्बर जर्मन योद्धा अपने लड़ाकू सरदारों के प्रति निष्ठा की शपथ लेते थे, उसी प्रकार सामन्तीय योद्धा अपने सामन्त स्वामियों के लिये लड़ने की पवित्र शपथ ग्रहण करते थे। मध्यकालीन राजा जो समूचे राज्य की रक्षा कर पाने में असमर्थ होते थे, बहुधा कुछ शक्तिशाली भूमिपतियों से सहायता की माँग करते थे। इस प्रकार के भूमिपतियों को वे पुरस्कार के रूप में कर से मुक्ति भूमि अनुदान या राजा के हस्तक्षेप के बिना अपने प्रदेश का शासन करने की अनुमति देते थे। अन्त में जब शार्लमाँ के साम्राज्य का विभाजन हो गया और यूरोप के लोग नौर्थमेनों तथा मुसलमानों के आक्रमणों से भयभीत हो उठे तब यूरोप पर सामन्ततंत्र का पक्का अधिकार हो गया।