चीन की प्राचीन सभ्यता की विशेषताएं (Features of Ancient Chineese Civilization)
चीन की प्राचीन सभ्यता की विशेषताएं
समाज-
अत्यन्त प्राचीन काल में ही चीन में समाज का संगठित ढाँचा खड़ा हो चुका था। सामाजिक व्यवस्था में विद्वानों को सबसे ऊँचा स्थान दिया जाता था। धीरे-धीरे चीन में यह धारणा मान्य हो गई कि सरकारी पदों पर विद्वानों को ही नियुक्त किया जाए तथा उन्हें हर प्रकार से सम्मानित किया जाए। चीन का सामाजिक विभाजन निम्न प्रकार से था। इसमें सबसे अधिक सम्मानित श्रेणी को सबसे पहला स्थान दिया गया तथा उससे निम्नतर को उससे नीचे का दर्जा ।
(1) मंडारिन -
यह श्रेणी विद्वानों एवं साहित्यकारों की थीं, परन्तु पैतृक नहीं थी। किसी भी वंश का तथा गरीब से गरीब व्यक्ति भी विद्वान होने पर इस श्रेणी में सम्मिलित हो जाता था तथा राजाओं, सामन्तों एवं जनता द्वारा उसका आदर सम्मान किया जाता था ।
(2) किसान
कृषि चीनवासियों का प्राचीनतम तथा सर्वप्रमुख उद्यम था चीन में खेती करने वालों की श्रेणी अत्यन्त प्राचीन काल से विद्यमान थी इन लोगों को समाज में केवल विद्वानों को छोड़कर सबसे अधिक आदर दिया जाता था।
(3) शिल्पी, दस्तकार, मजदूर
इन लोगों को समाज में तीसरा स्थान प्राप्त था। इससे प्रतीत होता है कि जुलाहों, बढ़ई, लोहार आदि का चीनी समाज में पर्याप्त आदर था।
(4) व्यापारी
इन लोगों का आदर किसानों और दस्तकारों के समान नहीं था क्योंकि ये लोग उनके समान परिश्रम की कमाई नहीं खाते थे।
(5) सैनिक
चीनी समाज की शान्तिप्रियता का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि सैनिकों को समाज में सबसे छोटे दर्जे का माना जाता था। सेना में भर्ती होने वाले या तो अत्यन्त निर्धन, आलसी, आवारा होते थे या ऐसे आदमी होते थे, जिनका चरित्र सन्दिग्ध होता था ।
प्राचीन काल में चीन का सामाजिक जीवन -
प्राचीन काल में चीन में सामाजिक संगठन का आधार परिवार था। परिवार में पिता ही मुखिया माना जाता था। उसकी मृत्यु हो जाने पर माता परिवार की सर्वेसर्वा बन जाती थी। चीन जाति के लोग अपने परिवार तथा अपने मुखिया को बड़े सम्मान व निष्ठा की दृष्टि से देखते थे। परिवार के प्रत्येक सदस्य का कर्तव्य था कि वह परिवार के मुखिया के आदेशों का पालन करे। अपने पूर्वजों के प्रति चीन निवासी बड़ा सम्मान प्रदर्शित करते थे। प्राचीन काल में चीन में सम्मिलित परिवार प्रणाली थी। पति-पत्नी और उनके बच्चों के अतिरिक्त चचेरे, मौसेरे भाई व उनकी पत्नी व बच्चे भी एक ही परिवार के सदस्य माने जाते थे। स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त नहीं था । पर्दा प्रथा का चलन था। स्त्रियाँ प्रायः घरेलू काम ही करती थीं। उनको सामाजिक कार्यों में भाग लेने का अवसर नहीं मिलता था।
प्राचीन काल में चीन का आर्थिक जीवन-
चीन प्राचीन काल में एक कृषि प्रधान देश था। अधिकांश जनता कृषि के कामों में ही लगी रहती थी। कृषि की उन्नति के लिये बाँध बनाये जाते थे और नहरें खोदी जाती थीं। खेती में गेहूँ, चावल और जौ की फसलें मुख्य थीं। मिट्टी के बर्तन तो चीन में काफी समय से बनते चले आ रहे थे किन्तु कांसे का प्रयोग यहाँ शांगवंश काल में अर्थात् 1600 वर्ष ई. पू. में आरम्भ हुआ। अनुमान है कि चीनवासी कांसा बाहर से मंगाते रहे होंगे। लकड़ी के फर्नीचर, रेशम, रेशमी कपड़े और कागज बनाने के उद्योगों में चीन ने बड़ी उन्नति की ।
ईसा से 200 वर्ष पहले चीनवासियों ने सीसे का पता लगा लिया और सीसे की वस्तुएँ बनाने लगे। रेशम का काम चीन की ख्याति का एक मुख्य आधार है। यहाँ के रेशमी कपड़े विख्यात थे। प्रायः स्त्रियाँ ही रेशमी कपड़े तैयार करती थीं। ईसा से लगभग 200 वर्ष पूर्व चीन में कपास भी आने लगी। शायद भारत से ही चीन को कपास पहुँचाई गई। चीन वालों ने कागज बनाने की कला का भी आविष्कार किया।
चीन का वाणिज्य - व्यापार भी विकसित था। रेशम, नमक और लोहा उनके व्यापार की मुख्य वस्तुएँ थीं। ई. पूर्व 5वीं शताब्दी में चीन में सिक्के प्रचलित थे। इतना ही नहीं उस समय एक प्रकार की बैंकिंग व्यवस्था का भी चीन में विकास हो चुका था।
प्राचीन काल में चीन में धार्मिक विश्वास-
चीन के निवासी आरम्भ में प्रकृति की शक्तियों की उपासना करते थे। उनका विश्वास था कि प्राकृतिक वस्तुओं जैसे पहाड़ों, नदियों आदि में जीव होता है। इसी जीव को वे ईश्वर या परमात्मा मानकर उसकी उपासना करते थे। चीनवासी अपने पूर्वजों की भी उपासना करते थे। चीनवासियों ने अपनी उपासना के लिए सुन्दर मन्दिरों का निर्माण किया था, जिन्हें पगोड़ा कहा जाता था। ये मन्दिर ऊँचे गुम्बदनुमा और कई-कई मंजिल ऊँचे होते थे। उन पर सुन्दर कारीगरी की जाती थी।
चीन के लोगों के ग्राम देवता और कुल देवता भी होते थे। प्रकृति की सर्वोच्च शक्ति को चीनी लोग स्वर्ग की आत्मा (Spirit of Heaven ) कहते थे। सब लोग इसकी पूजा करते थे।
चीन में पुरोहित नहीं होते थे। उपासना व्यक्तिगत कार्य था और सब लोग अपने-अपने घरों में उपासना करते थे। लोग अपने देवताओं को अनाज और मांस चढ़ाते थे।
राजा और जनता भी कई प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान करते थी। चीन-वासियों का विश्वास था कि मृत व्यक्ति की आत्मा में बड़ी शक्ति होती है । मृत व्यक्ति की आत्मा किसी को यश सा अपयश दिला सकती है अथवा सफलता या असफलता दिला सकती है। इसी भय के कारण वे मृत आत्मा की भी उपासना करते थे। उनका एक देवता टी (Ti) था। उनका विश्वास था कि सब मृत आत्माएँ टी के अधीन रहती हैं। भूमि और वायु को भी वे देवता मानते थे। शासन प्रबन्ध-चीन में हान वंश के शासन काल में शासन प्रबन्ध में भी भारी उन्नति हुईं, यद्यपि उसका आधार पहले से विद्यमान शासन ही था। प्रमुख सरकारी पदों पर विद्वानों की नियुक्ति होती थी। नियुक्ति का आधार प्रतियोगिता परीक्षाएँ थीं। नमक बनाना, लोहा खोदना तथा उसको साफ करना और सिक्कों का बनाना सरकारी अधिकार में था । वस्तुओं के मूल्य का नियन्त्रण, सरकार द्वारा आवश्यक वस्तुएँ खरीदना और बेचना (Procure ment, Price Control, Supply Deptt. etc.) उस प्राचीन काल के लिये एक बड़ी महत्त्वपूर्ण बात थी। चीन के शासकों ने आधुनिक ढंग पर जल एवं स्थल पर सरकारी यातायात का प्रबन्ध किया अर्थात् गाड़ी, नाव आदि के लिए सरकारी विभाग स्थापित किये। किसानों को सस्ते ब्याज पर सरकार से रुपया उधार दिया जाता था और किस्तों में वापिस लिया जाता था। चीन की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति में जहां परस्पर व्यवहार और शिष्टाचार पर बल दिया गया वहां उसमें विद्या, साहित्य और कला को सदा ही सम्मान दिया गया।
लेखन कला और लिपि-
चीन में अत्यन्त प्राचीन काल में लेखन कला का प्रारम्भ हुआ। कागज के स्थान पर बाँस या लकड़ी की चिकनी बारीक पट्टियों का प्रयोग किया गया। बाँस की ब्रुश जैसी डंडियों की कलम बनायी जाती थी। 105 ई. में चीन में कागज बनाने का आविष्कार हो गया। कितनी ही शताब्दियों तक रेशम का भी कागज की भाँति प्रयोग होता रहा है। चीन की लिपि में वर्णमाला में अक्षर नहीं होते परन्तु वस्तुओं, भावों और क्रियाओं के लिए अलग-अलग चिह्न होते हैं। कहा जाता है कि इन चिह्नों की संख्या लगभग 40,000 है। चीनी भाषा ऊपर से नीचे को लिखी जाती है। साधारण पढ़े-लिखे लोगों को भी लगभग 4,000 चिह्न सीखने होते थे।
भवन और मूर्ति निर्माण कला
चीन की भवन निर्माण कला भी बढ़ी चढ़ी थी। घर लकड़ी, चूना पत्थर आदि के बनाये जाते थे, फिर भी लकड़ी का प्रयोग बहुत अधिक होता था। मकान बनाने में सुन्दरता और कलात्मकता का विचार अधिक रखा जाता था, दृढ़ता और पक्केपन का नहीं। चीन की चित्रकला भी बड़ी समुन्नत तथा अपने ढंग की अलौकिक थी। वहाँ की मूर्ति निर्माण कला के नमूने शान्तुंग प्रान्त में समाधियों में प्राप्त हुए हैं, जो मिस्त्री मूर्तियों के नमूनों से होड़ करते हैं। कविता, संगीत आदि के क्षेत्र में भी चीन ने अपने ढंग से उन्नति की।
आविष्कार और खोज -
प्राचीन काल में चीन में अनेक आविष्कार हुये। कागज का उल्लेख ऊपर हो चुका है। दिशा सूचक यन्त्र अर्थात् कुतुबनुमा (Compass) के आविष्कार का श्रेय भी उन्हीं को है। सबसे प्रथम पत्थर के कोयले को ईंधन के रूप में प्रयोग करने का कार्य भी चीनियों ने ही शुरू किया। पहले-पहल बारूद की खोज भी उन्होंने की, परन्तु उससे भयानक शस्त्रों-तोप, गोले बन्दूक का निर्माण नहीं किया। चीनी मिट्टी के बर्तन तथा रेशम का कपड़ा बनाने का काम भी सबसे पहले चीन में ही शुरू हुआ। चित्रकला के ब्रुश भी पहले-पहल चीन में ही बने। सिक्कों का निर्माण भी चीन में पहले हुआ। भूचाल की गति एवं दिशा जानने का यन्त्र (Siesmograph) भी पहले-पहल चीन में ही बना। बैंकिंग-प्रथा का आरम्भ भी चीन में हुआ । धूप घड़ी के स्थान पर जल घड़ी का आविष्कार करके चीनवासियों ने समय का माप किया। दिन-रात को इन्होंने 12 भागों में विभक्त किया तथा एक नया पंचांग भी बनाया। चीनियों ने एक प्रकार के ताश के पत्ते भी बनाये थे जिनके खेलों से वे मनोरंजन करते थे। इस प्रकार चीन में एक अच्छी राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था थी। हानवंश के समय में इस सभ्यता का दूर-दूर तक प्रचार हुआ। मध्य एशिया, पूर्वी एशिया और दक्षिणी-पूर्वी एशिया के देशों में इस सभ्यता और संस्कृति का दूर-दूर तक प्रचार हुआ।
चीन और भारत के प्राचीन सम्बन्ध (Indo- China Ancient Relation)
चीन और भारत की दुर्गम सीमाएं पर्वतों तथा गहन वनों से आच्छादित हैं। स्थल मार्ग तो इतने दुरूह हैं कि साधारणतया लोगों का आना-जाना कठिन है। मंगोल जाति के लोग चीन, तिब्बत, नेपाल, भूटान, सिक्किम, कश्मीर के भागों और बर्मा में फैल गये। यहाँ तथा बंगाल, आसाम आदि में आर्य तथा मंगोल जातियों का सम्मिश्रण हो गया। हिमालय तथा अन्य पर्वतमालाओं और पठारों एवं नदियों की घाटियों से होकर चीन और भारत के बीच यातायात, व्यापार और विचारों का आदान-प्रदान होता था।
भारत और चीन के बीच आने-जाने का रास्ता अशोक भारत का महान धार्मिक सम्राट था जिसके प्रयत्नों से बौद्ध-धर्म का प्रसार भारत से बाहर के देशों में भी होने लगा। चीन में बौद्ध-धर्म पहुंचा और वहाँ की प्राचीन संस्कृति से इसका इतना सामंजस्य था कि वहाँ इसका बड़ा स्वागत हुआ। बौद्ध धर्म शीर्घ ही चीन का मुख्य धर्म हो गया तथा दोनों देशों के बीच विद्वानों का आना-जाना और धर्म प्रचार के लिए भिक्षुओं की यात्राएं आदि आरम्भ हुईं। चीन और भारत के बीच के जल तथा स्थल मार्ग दोनों ही कठिन हैं, फिर भी साहसी यात्री धर्म का उत्साह हृदय में भर कर यात्राएँ करते थे तथा सफलता प्राप्त करते थे। स्थलमार्ग हिमालय एवं अन्य ऊँची पर्वत मालाओं से होकर गोबी के भयंकर रेगिस्तान को पार करके भारत पहुँचता था। जल मार्ग बर्मा या अण्डमान द्वीप, मलाया, सुमात्रा, दक्षिणी चीन सागर, हिन्दी - चीन आदि से होकर जाता था। इन मार्गों से बहुत से यात्रियों ने यात्राएँ कीं ।
भारत में चीनी यात्री -
चीन से भारत में जो यात्री आये उनमें से कुछ तो इतिहास में बड़े प्रसिद्ध हैं। फाह्यान ह्वेन सांग, इत्सिंग का नाम भारतीय इतिहास में अमर है। फाह्यान विक्रमादित्य के समय में भारत में बौद्ध धर्म का अध्ययन करने, बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित तीर्थ स्थान देखने तथा धर्म सम्बन्धी लेख, पुस्तक सामग्री इकट्ठी करने आया था। उसका गुरु एक भारतीय भिक्षु कुमारजीव था तथा उसी की आज्ञा से फाह्यान भारत आया था। उसने अपनी भारत यात्रा का पूरा विवरण लिखा है, जिससे उस काल के भारतीय इतिहास पर गहरा प्रकाश पड़ता है।
महाराजाधिराज हर्ष के समय ह्वेन सांग नामक चीनी विद्वान भारत आया था। वह भी फाह्यान की भाँति स्थल मार्ग से ही भारत पहुँचा था । वह भारत में 15 वर्षो तक रहा तथा उसने अपना बहुत-सा समय नालन्दा विश्वविद्यालय में अध्ययन करने में व्यतीत किया। उसने भी अपनी यात्रा का पूरा-पूरा विवरण लिखा है तथा उसका वर्णन इतिहासकारों के बड़े काम का है। फाह्यान के समय प्राचीन भारत का स्वर्ण युग था । उसने लिखा है कि लोग पढ़े-लिखे और समृद्ध थे, पक्के घरों में रहते थे तथा स्वतन्त्र और आनन्दमय जीवन व्यतीत करते थे। राजा बड़े विद्वान धार्मिक वृत्ति के व उदार थे तथा देश में धार्मिक सहिष्णुता थी। ह्वेन सांग ने भी भारत की ऐसी ही प्रशंसा की है तथा नालन्दा विश्वविद्यालय का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। इत्सिंग ने भी इसी विश्वविद्यालय में शिक्षा पाई थी तथा उसने भी वहां का और भारत का वर्णन किया है। इन यात्रियों के आँखों देखें तथा पूर्ण वर्णन से स्पष्ट है कि भारत अपने प्राचीन काल में संस्कृति, समृद्धि, सभ्यता, व्यापार और शिल्प की चरम उन्नति पर था । चीन में भारतीय यात्री भारत से भी अनेक बौद्ध भिक्षु, विद्वान आदि बड़ी संख्या में चीन में बौद्ध धर्म को फैलाने जाते थे। अनेक लोग तो वहाँ बस गये थे।
सबसे पहला बौद्ध विद्वान कश्यप मतंग चीन गया। उसे 67 ई. में चीनी सम्राट मिगेटी ने बुलाया था। वह लूलोंग नगर में रहने लगा, जो लू नदी के किनारे है।
धर्मप्रकाश, भद्रा, जिनभद्र, कुमारजीव जिनगुप्त आदि अनेक विद्वान यात्री भारत से चीन गये। इस समय भारत में बौद्ध धर्म कम होता जा रहा था। कहा जाता है कि चीन के लूलोंग प्रान्त में भारतीयों की संख्या धीरे-धीरे लगभग 10,000 हो गई तथा जिनगुप्त चीन सम्राट का गुरु हो गया। ये विद्वान भारत से संस्कृत की पुस्तकें ले गये थे तथा इन्होंने इनका चीनी भाषा में अनुवाद किया। चीन में ये लोग सर्व प्रिय थे तथा इन्हीं के प्रयत्नों से चीन में बौद्ध धर्म और उसकी शिक्षाओं को बड़ा आदर और सम्मानपूर्ण स्थान मिला।