इस्लामी साम्राज्य का प्रसार, खिलाफत का उदय प्रथम चार खलीफे Expansion of Islam Empire, Rise of Khilafat : First four Khalifas
इस्लामी साम्राज्य का प्रसार, खिलाफत का उदय प्रथम चार खलीफे
जब तक हजरत मुहम्मद जीवित रहे वे पैगम्बर कानून निर्माता, धर्मगुरू, प्रधान न्यायाधीश प्रधान सेनापति और राज्याध्यक्ष के सभी कार्यों का निर्वाह करते रहे, परन्तु उनके देहावसान के बाद मुसलमानों के सन्मुख उनके उत्तराधिकार की गम्भीर समस्या उठ खड़ी हुई। आध्यात्मिक कार्य के अलावा अन्य सभी बातों के लिए उनका उत्तराधिकारी अर्थात् खलीफा कौन बने या किसे बनाया जाये ?
मुहम्मद साहब अपने पीछे कोई पुत्र नहीं छोड़ गये थे। उनके बाद उनकी एकमात्र पुत्री बीबी फातिमा ही जीवित थी जिनका विवाह हजरत अली के साथ हुआ था। परन्तु अरब सरदारों में उत्तराधिकार का नियम केवल वंश परम्परा पर ही आधारित नहीं था। यह निर्वाचनात्मक था जिसमें जनजातीय वरीयता क्रम को प्राथमिकता प्राप्त थी। इसलिए यदि पैगम्बर साहब के पुत्र भी जीवित रहे होते तो भी उत्तराधिकार की समस्या इतनी सरल नहीं रहती। अपनी मृत्यु के पूर्व मुहम्मद साहब किसी को अपना उत्तराधिकारी भी मनोनीत नहीं कर गये थे। यही कारण है कि उनकी मृत्यु के बाद इस्लामी जगत में उनके उत्तराधिकार को लेकर परस्पर विरोधी मत उभरकर सामने आ गये। एक तरफ वे लोग थे जो अपने आपको हजरत मुहम्मद की जनजाति का सदस्य होने तथा सबसे पहले इस्लाम को अपनाने के लिए अपना दावा प्रस्तुत कर रहे थे। दूसरी तरफ मदीना वाले वे लोग जिनका कहना था कि यदि उन्होंने हजरत को सहयोग एवं समर्थन नहीं दिया होता तो इस्लाम एकान्त में ही बिखर जाता। इसके बाद वैधतावादी आये। उनका तर्क था कि अल्लाह और पैगम्बर निष्ठावानों के समुदाय को मतदाताओं की अस्थिरता एवं अवसरवादिता के लिए नहीं छोड़ सकते थे, अतः उन्होंने अवश्य ही नेतृत्व की स्पष्ट व्यवस्था की होगी। उनकी दृष्टि में इस प्रकार का विधि सम्मत नेता हजरत अली ही हो सकते हैं, जो कि हजरत की एकमात्र जीवित पुत्री के पति के साथ-साथ इस्लाम की दीक्षा लेने वाले प्रथम तीन व्यक्तियों में से भी एक हैं। प्रथम दोनों विचारधाराओं के निर्वाचन सिद्धान्त के विरुद्ध यह दल दैवी अधिकार के नियम का समर्थक था और अन्त में कुरैश तथा उम्माद सरदार थे। इस्लाम के उदय के पूर्व शासन, सत्ता और दौलत पर इन्हीं लोगों का अधिकार था । यद्यपि इन लोगों ने बाद में इस्लाम स्वीकार किया था, परन्तु उत्तराधिकार की दौड़ में ये लोग भी पीछे नहीं रहे।
उत्तराधिकार संघर्ष में प्रथम विचारधारा वाले दल की विजय हुई। हजरत मुहम्मद के ससुर और इस्लाम की दीक्षा लेने वालों में अग्रणी, बुजुर्ग एवं धर्मनिष्ठ अबूबक्र को एकत्रित सरदारों ने अपना समर्थन प्रदान कर उन्हें मुहम्मद साहब का उत्तराधिकारी (खलीफा) निर्वाचित कर लिया।
प्रथम चार खलीफाओं के समय को धर्मनिष्ठ अथवा पितृतंत्री खिलाफत कहा जाता है। सुन्नी मुसलमानों का इन चारों खलीफाओं के प्रति बड़ा स्निग्ध सम्मान है। ये खलीफा हैं - अबूबक्र (632 से 634 ई.), उमर (634 से 644 ई.). उस्मान (644 से 656 ई.) और अली (656 से 661 ई.)। ये सभी नबी के चुने हुए साथी ( साहिब) थे और उन्होंने भी उनकी ही तरह अभाव और दरिद्रता में जीवन बिताया। उन्हें इन्तिहाद अथवा व्याख्यात्मक विधि निर्माण का अधिकार था और सुन्नी कुछ महत्त्वपूर्ण बातों में उनके निर्णय अनुल्लंघनीय मानते हैं। धर्मनिष्ठ खिलाफत ने इस्लाम को पुष्ट और उसका प्रसार किया ।
अबूबक्र (632 से 634 ई.) -
प्रथम खलीफा अबूबक्र की राजधानी मदीना रही। अरब इतिहासकारों के अनुसार हजरत मुहम्मद की मृत्यु के तत्काल बाद मदीना, मक्का और थाइफ नगरों को छोड़कर समूचे अरब में इस्लाम के नवोदित संगठित राज्य के विरुद्ध विद्रोह उठ खड़ा हुआ। वास्तव में यातायात के सुगम मार्गों तथा संचार साधनों के अभाव, धर्म प्रचार कार्य के संगठित उपायों की कमी और समयाभाव के कारण हजरत मुहम्मद के जीवनकाल में लगभग आधा अरब क्षेत्र ही नये धर्म और राज्य के संरक्षण में आ पाया था। परन्तु अबूबक्र के नेतृत्व में एक के बाद एक लड़े गये निर्णायक युद्धों में अलगाववादियों के विद्रोह को पूरी तरह से कुचल दिया गया। इन युद्धों में अबू बक़ के सेनापति खालिद बिन अल वालिद ने सैन्य नेतृत्व की अनुपम योग्यता का प्रदर्शन किया। उसके प्रयत्नों से इस्लाम की एकता कायम की गई और अब इस्लाम आगे बढ़ने के लिये तैयार था।
अरब प्रायद्वीप का विजेता और इस्लाम की नींव और एकता को सुदृढ़ करने वाला अबूबक्र पितृतन्त्रात्मक सादगी के साथ जीवन बिताने वाला व्यक्ति था। अपने अल्प शासन के प्रारम्भिक छ: महीने तक वह अपने पैतृक स्थान अल-सुनह में अपनी बीवी हबीबा के साथ साधारण मकान में ही रहा। वहाँ से वह प्रतिदिन अपनी राजधानी मदीना आता-जाता था और इसके लिये उसे किसी प्रकार का भत्ता नहीं मिलता था; क्योंकि उस समय में राज्य की आमदनी नाममात्र की थी। मदीना में हजरत मुहम्मद की मस्जिद के आँगन में ही अन्य साथियों के परामर्श से वह राजकाज किया करते थे। मदीना का कोई भी नागरिक सीधे उन तक पहुँच सकता था। अपनी मृत्यु के पूर्व वे उमर को अपना उत्तराधिकारी मानोनीत कर गये। लोगों ने उमर को मान्य किया।
उमर (634 से 644 ई.)-
खलीफा उमर लम्बे कद तथा हृष्ट-पुष्ट शरीर वाले व्यक्ति थे। उनका व्यवहार अत्यधिक विनम्र एवं मिलनसार था। खलीफा बनने के बाद भी उन्हें व्यापार के द्वारा अपनी जीविका का साधन जुटाना पड़ा। अपने शेष जीवन में भी वे एक सामान्य अरब शेख की भाँति ही रहे। मुस्लिम परम्परा में हजरत मुहम्मद के बाद उमर का नाम ही अत्यधिक सम्मान के साथ लिया जाता है। मुस्लिम लेखकों ने उनकी दयालुता, न्यायप्रियता और पितृतंत्रात्मक सादगी के लिये उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए लिखा है कि उमर ने उन समस्त गुणों का प्रदर्शन किया जो कि एक खलीफा में होने चाहिए। उनके पास पहनने के लिए एक ही कुर्त्ता और ओढ़ने के लिए एक ही वस्त्र था और दोनों ही पैबन्दों के कारण प्रसिद्ध थे। घास-फूस और पत्तियाँ ही उनकी शय्या थी और उनके जीवन का एक ही उद्देश्य था - अरब और इस्लाम की सुरक्षा और उसके प्रभुत्व की वृद्धि । उमर अपनी कठोरता के लिए भी विख्यात थे। शराब पीने तथा अनैतिक कृत्य में लिप्त होने पर उन्होंने अपने ही पुत्र को मौत की सजा दी थी। उमर के शासन काल में इस्लाम का विजय अभियान शुरू हुआ। सर्वप्रथम, अरब प्रायद्वीप के उत्तर में स्थित सीरिया पर आक्रमण किया गया। इस समय सीरिया क्षेत्र पर बाइजेन्टियन साम्राज्य का अधिकार था। उस साम्राज्य के सैनिक अधिकारी अरबों की गतिविधियों का सही अनुमान नहीं लगा पाये और उन्हें सीमावर्ती लुटेरे मात्र समझ बैठे. परन्तु शीघ्र ही उन्हें पता चल गया कि उनके शत्रु एक नये उत्साह और उत्तम गतिशीलता के धनी हैं। उनके साथ रेगिस्तानी ऊँटों का सैनिक दस्ता था जिसको रोकना कठिन काम था। पहली मुठभेड़ में अरबों को पीछे हटना पड़ा। इसकी सूचना मिलते ही निचले इराक से सेनानायक खालिद ने द्रुतगति से रेगिस्तान को पार किया और सीरिया की राजधानी ने आत्मसमर्पण कर दिया। आस-पास के अन्य नगरों पर भी इस्लामी सेना का अधिकार हो गया। मुसलमानों का सामना करने के लिये पूर्वी साम्राज्य के शासक हेराक्लीज ने 50,000 सैनिकों की एक शक्तिशाली सेना भेजी । जोर्डन नदी की एक सहायक नदी यारमुक की घाटी में खालिद ने अपने 20-25 हजार सैनिकों के साथ उसका सामना किया और 20 अगस्त, 636 ई. के दिन उसे बुरी तरह से पराजित किया। इसके बाद मुस्लिम सेना को प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा और सीरिया के प्राकृतिक सीमान्त टोरस पर्वतमाला तक सम्पूर्ण क्षेत्र उसके अधिकार में आ गया। इस प्रारम्भिक परन्तु सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण विजय ने इस्लामी सेना के उत्साह को तो बढ़ाया ही साथ ही उसकी सैनिक प्रतिष्ठा भी जम गई। सीरिया को आधार बना कर इस्लामी सेना के लिए आर्मीनिया, उत्तरी मेसोपोटामिया, जार्जिया आदि की तरफ बढ़ना सुगम हो गया। कुछ ही वर्षों में सम्पूर्ण इराक पर मुसलमानों का अधिकार हो गया। इसके बाद अल्लाह के सैनिकों ने फारस की तरफ अपना ध्यान केन्द्रित किया। 637 ई. में एक विशाल सासानी सेना को अरबों के हाथों बुरी तरह पराजित होकर भागना पड़ा और तिगरस नदी के पश्चिम में स्थित इराक का सम्पूर्ण निचला क्षेत्र आक्रमणकारियों के अधिकार में चला गया। इसके बाद आक्रमणकारियों ने उफनती हुई तिगरस को पार किया। सीरिया की भाँति यहाँ के स्थानीय लोगों ने भी अरब विजेताओं का स्वागत किया, क्योंकि दोनों ही क्षेत्रों के लोगों ने अपने पुराने विदेशी शासकों के शासन को कभी पसन्द नहीं किया था। फारसी (पर्शियन) सम्राट और उसकी सेना बिना युद्ध लड़े ही अपनी राजधानी को असहाय छोड़कर भाग खड़ी हुई। मुसलमानों ने एशिया के इस मुख्य नगर में धूम-धाम के साथ प्रवेश किया। कुछ दिनों बाद ही पर्शियन सम्राट की हत्या कर दी गई और विगत बारह सदियों से ईरान तथा इराक पर शासन करने वाले राजवंश का अन्त हो गया। सम्पूर्ण फारस मुसलमानों के अधिकार में चला गया।
अब मरुभूमि के पुत्र पहली बार सुख-सुविधा और विलासिता के प्रत्यक्ष सम्पर्क में आये। अपने वैभवपूर्ण दीवाने आम, आकर्षक मेहराबों और मूल्यवान फर्नीचर तथा साज-सज्जा से युक्त राजप्रासाद को देखकर अरब पुत्र अपने रेगिस्तान के मिट्टी से बने आवासों की तुलना करके अवाक् रह गये। उनके सभ्य जीवन की प्रारम्भिक शिक्षा शुरू हुई और जैसाकि एक इतिहासकार ने लिखा है- "फारस विजय से पूर्व अरबों ने कभी कपूर नहीं देखा था। यहाँ उन्होंने भ्रमवश उसे नमक समझकर सब्जी पकाने के काम में लेना शुरू कर दिया। " कुछ सैनिकों ने स्वर्ण को चाँदी से बदल लिया क्योंकि वे सोने की उपयोगिता तथा कीमत से अपरिचित थे।
इराक की सीमा को पार करने के बाद मध्यवर्ती फारस में अरबों को जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा और शेष फारस को जीतने में उन्हें लगभग दस वर्ष लग गये। 643 ई. में अरब लोग भारत के सीमावर्ती क्षेत्र तक आ पहुँचे, जबकि पूर्व में इस्लाम का विजय अभियान जारी रहा। पश्चिम में भी उनका विजय अभियान काफी सफल रहा। अब उसका ध्येय मिस्र था। मिस्र की सामरिक स्थिति सीरिया और हेजाज के लिए खतरनाक थी। यहाँ की उर्वरा भूमि कुस्तुनतुनिया का अन्न भण्डार था, यहाँ की तत्कालीन राजधानी सिकन्दरिया बाइजेण्टियन नौसेना का आधार थी और मिस्र शेष उत्तरी अफ्रीका की विजय का प्रवेश द्वार था। इन सभी कारणों ने अरबों को अपने प्रसार के प्रारम्भिक काल से ही मिस्र को जीतने की प्रेरणा प्रदान की। अपने सुप्रसिद्ध प्रतिस्पर्धी खालिद से भी अधिक प्रतिष्ठा अर्जित करने की कामना संजोये अम्र विन-उल-अस ने अपने चार हजार सवारों के साथ मिस्र पर धावा बोल दिया। देखते-देखते मिस्र का बहुत बड़ा क्षेत्र अरबों के अधिकार में आया। इस प्रारम्भिक सफलता से उत्साहित खलीफा ने उमर की सहायता के लिये और कुमक भेज दी। इससे उसके सैनिकों की संख्या 20,000 तक पहुँच गई। अपनी इस विशाल सेना के साथ उसने मिस्र की राजधानी तथा प्रमुख बन्दरगाह सिकन्दरिया को घेरा। कहा जाता हैं कि उस समय सिकन्दरिया की सुरक्षा के लिए 50,000 सैनिक तैनात थे। इनके अलावा, बन्दरगाह की सुरक्षा के लिए बाइजेण्टियन नौसेना भी थी। इसके विपरीत आक्रमणकारी अरबों के पास एक नौका भी नहीं थी, न ही उनके पास घेरेबन्दी लायक यन्त्र थे और नई कुमक और खाद्य पदार्थों की पूर्ति का तो सवाल ही नहीं था । इन विपरीत परिस्थितियों में भी अरब सैनिकों ने अद्भुत शौर्य का परिचय देते हुए अपने शत्रुओं को परास्त करके सिकन्दरिया नगर पर अधिकार कर लिया। कुछ इतिहासकारों ने अरबों पर सिकन्दरिया के सुप्रसिद्ध पुस्तकालय के ग्रन्थों को जलाकर पानी गर्म करने का आरोप लगाया, परन्तु फिलिप के हित्ती के अनुसार इस प्रकार के आरोप बेबुनियाद हैं। इसे तो रोमनों ने बहुत पहले ही जला डाला था। विजित क्षेत्रों में अपनी स्थिति को सुरक्षित बनाने की दृष्टि से अरबों ने उत्तरी अफ्रीका में त्रिपोली तक का इलाका भी अपने अधिकार में कर लिया। मदीना में इस विजय पर भारी प्रसन्नता व्यक्त की गई। खलीफा उमर का शासन अपने चरमोत्कर्ष पर था। तभी अचानक एक दिन एक ईरानी ईसाई गुलाम ने उमर की हत्या कर दी।
अपनी मृत्यु के पूर्व खलीफा उमर ने अरबों की भुखमरी की स्थिति को बदल दिया। अब वे सुसम्पन्न हो गये थे। फिर भी, शासन का ढाँचा नगर-राज्य की भाँति ही रहा। उमर ऐसी संस्थाओं की स्थापना नहीं कर पाये जो उनके द्वारा निर्मित विस्तृत मुस्लिम साम्राज्य का शासन कर सकतीं। अपनी मृत्यु के पहले उमर ने 6 व्यक्तियों की एक समिति बना दी और समिति को अपने सदस्यों में से ही किसी को खलीफा मनोनीत करने को कहा। समिति ने उस्मान को नया खलीफा चुना।
उस्मान (644 से 656 ई.) -
धर्मनिष्ठ खलीफाओं में तीसरा नाम उस्मान का है। उनकी खिलाफत लगभग बारह वर्ष तक रही। ऐसा प्रतीत होता है कि उनके शासन काल में नवीन क्षेत्रों की विजय की तरफ कम ध्यान दिया गया और उमर के समय में जीते गये प्रदेशों पर इस्लामी शासन को सुदृढ़ बनाने तथा शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित करने की तरफ अधिक ध्यान दिया गया। कूफा, बसरा और मिस्र के मुसलमानों ने उपद्रव मचाना शुरू कर दिया और एक दिन उन विद्रोहियों ने खलीफा उस्मान को उनके ही घर में घेर लिया और उनकी हत्या कर दी।
हजरत अली (656 से 661 ई.) -
उस्मान की मृत्यु के बाद मदीनावासियों ने हजरत अली को खलीफा चुना। उनमें बहुत से वे लोग भी थे जो मदीना के नहीं थे और जिनमें उस्मान के हत्यारे भी थे। जो भी हो, पूरे मुस्लिम जगत् के लिये मदीना वालों द्वारा शासक चुने जाने के अधिकार को देर-सबेर चुनौती मिलनी ही थी। अली की खिलाफत अधिकांशतः युद्धों का युग रहा। शीघ्र ही अली के विरुद्ध एक दल संगठित हो गया और वंशानुगत युद्धों ने इस्लाम की आधारशिला को ही हिला कर रख दिया। सीरिया के अतिरिक्त समस्त मुस्लिम जगत् ने अली को अपना खलीफा स्वीकार कर लिया, परन्तु सीरिया का शासनाध्यक्ष मुआविया ने उनकी खिलाफत का विरोध किया। चूँकि मुआविया के अधिकार में सीरिया की शक्तिशाली सेना थी, अतः उसको पराजित करना सम्भव नहीं था। एक दिन जब हजरत अली धर्मनिष्ठ लोगों को नमाज पढ़ा रहे थे, उनका वध कर दिया गया। कुछ के अनुसार अली मुआविया से पराजित हुए और उनका वध कर दिया गया। जैसे भी हुआ, यह सत्य है कि वे शहीद किये गये थे।