हजरत मुहम्मद की शिक्षाएँ (Precept of Prophet Mohammed )
हजरत मुहम्मद की शिक्षाएँ (Precept of Prophet Mohammed )
जानकारी के स्त्रोत-
- मुस्लिम परम्पराओं के अनुसार इस्लाम के संस्थापक पैगम्बर मुहम्मद थे। उनकी गणना संसार के महापुरुषों में होती है धर्म प्रवर्तक होते हुए भी वे पूर्णतया सांसारिक व्यक्ति और एक राजनेता भी थे। उन्हें अल्लाह की ओर से बहुत से 'इल्हाम' (दिव्य ज्ञान) हुए थे, जो मुसलमानों के धर्मग्रन्थ कुरान में लिखे हुए हैं।
- कुरान मुसलमानों के लिए वही महत्त्व रखता है जो ईसाइयों के लिए न्यू टेस्टामेंट (बाइबिल)। इसे 'कलामे पाक' भी कहा जाता है। यह स्वयं अल्लाह ताला का कलाम है। यह आसमान से हजरत मुहम्मद पर नाजिल किया ( उतारा ) गया । यह इस्लाम की बुनियाद और मुसलमानों का ईमान है। मुहम्मद साहब ने स्वयं कुछ नहीं लिखा था। उनके अनुयायी उनकी कही बातों, उनके उपदेशों और प्रवचनों की शायद टीपें तैयार कर लेते थे और उनकी मृत्यु के बाद बिखरी हुई टीपें ही बाकी रहीं। इन टीपों को 650 ई. में (खलीफा उस्मान के काल में) संकलित कर लिया गया और यह संकलन ही कुरान के नाम से जाना जाता है। इसे पैगम्बरों के पास के ईश्वर का आदेश पहुँचाने वाले फरिश्ते जिब्रील द्वारा स्वयं मुहम्मद को लिखायी गयी पवित्र पुस्तक घोषित किया गया। जो टीपें इस संकलन में शामिल न हो पायीं... उन्हें नष्ट कर दिया गया।
- कुरान शरीफ में 114 सूरतें (अध्याय), 6237 आयतें 3,22,670 शब्द 72 मन्जिलें, 30 पारे और 540 खफू हैं। कुरान का महत्त्व बतलाते हुए मुहम्मद साहब ने स्वयं कहा था- “ कुरान तुम्हारे पथ-प्रदर्शक का कार्य करे। वही करो जो यह आदेश देती है। जो यह मना करता है, उससे अलग रहो।" स्पष्ट है कि इस्लाम के आरम्भिक इतिहास के अध्ययन के लिए कुरान एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्रोत ग्रन्थ है।
- मुसलमानों के धार्मिक साहित्य का दूसरा भाग सुन्नी कहलाता है और उसमें मुहम्मद के जीवन, चमत्कारों और सीखों से सम्बन्धित अनुश्रुतियाँ हदीसें शामिल की जाती हैं। हदीसों का संकलन नौवीं शताब्दी में बुखारी मुस्लिम इब्न अल इज्जाज आदि उलेमाओं ने तैयार किये थे। मुस्लिम उलेमाओं ने कुरान और हदीसों के आधार पर मुहम्मद साहब का जीवन-चरित लिखने का प्रयास किया। उनके उपलब्ध जीवन-चरितों में सबसे पुराना मदीना के निवासी इब्न इसहाक (आठवीं शताब्दी) का लिखा हुआ है।
इस्लाम का धर्म सिद्धान्त -
इस्लाम का धर्म सिद्धांत बड़ा सरल है। मुसलमान को इस विश्वास पर अटल होना चाहिए कि 'ला इलाह इल्ललाह मुहम्मदुर्रसूलिल्लाह' अर्थात् “अल्लाह के सिवा और कोई पूजनीय नहीं है तथा मुहम्मद उसके रसूल हैं।" अल्लाह में विश्वास रखने के साथ-साथ यह मानना भी जरूरी हैं कि मुहम्मद अल्लाह के नबी, रसूल और पैगम्बर हैं। पैगम्बर कहते हैं- पैगाम (संदेश) को ले जाने वाले को, मुहम्मद साहब के माध्यम से ईश्वर का संदेश पृथ्वी पर पहुँचा, इसलिए वे पैगम्बर कहे जाते हैं। नबी कहते हैं किसी उपयोगी परमज्ञान की घोषणा को । मुहम्मद साहब ने चूँकि ऐसी घोषणा की इसलिए ये नबी हुए। रसूल का अर्थ प्रेषित या दूत होता है। मुहम्मद साहब रसूल हैं क्योंकि परमात्मा और मनुष्यों के बीच उन्होंने धर्म का जाप किया।
पाँच धार्मिक कृत्य
1. कलमा पढ़ना (कल्म-ए-तौहीद ) -
अर्थात् इस मन्त्र का परायण करना कि ईश्वर एक है और मुहम्मद उसके रसूल हैं (ला इलाह इल्लिलाह मुहम्मदुर्रसूलिल्लाह ) । इस्लाम की एकेश्वरवादी आधारशिला इसी पर टिकी है। इस कल्मे को हृदय तथा वाणी से स्वीकार करना आवश्यक है।
2. नमाज -
दिन में अनिवार्य रूप से पाँच बार नियत समय पर नमाज पढ़ना । अर्थात् अल्लाह से प्रार्थना करना । नमाज से पहले और दूषित वस्तुओं के सम्पर्क में आने के बाद वुजू अवश्य करना ( हाथ-पाँव, मुँह आदि धोना) शादी, गर्मी, यात्रा, लड़ाई, बेकारी आदि सभी परिस्थितियों में नमाज पढ़ी जा सकती है। नमाज किसी भी परिस्थितियों में मुआफ नहीं हो सकती। नाबालिग बच्चों और पागलों पर नमाज का फर्ज नहीं है।
3. रोजा -
तीसरा प्रमुख कृत्य रोजा है। रमजान महीने भर केवल एक शाम खाना और वह भी सूर्यास्त के बाद। रमजान महीना इसलिए चुना गया कि इसी महीने में पहले-पहल कुरान उतरा था। सूर्योदय से सूर्यास्त के मध्य खाना-पीना वर्जित है।
4. जकात -
जकात का अर्थ है-पवित्र करना । जैसे स्नान से शरीर पवित्र होता है, वैसे ही जकात (दान) करने से मुसलमान का धन व माल पवित्र हो जाता है। जकात की मात्रा वार्षिक आय का चालीसवाँ भाग (ढाई प्रतिशत) है।
5. हज-
अगर अधिक नहीं, तो जीवन में एक बार अवश्य ही हज (मक्का की तीर्थ यात्रा) करना जिलहज (बकरा ईद का महीना) की नवीं तारीख को 'अरफात' (एक स्थान का नाम) के मैदान में उपस्थित होना भी अनिवार्य है।
यद्यपि इनमें से कोई भी धार्मिक कृत्य विशेष कठिन या अपूरणीय नहीं है, फिर भी प्रतिकूल परिस्थितियों में ढील दी जा सकती है या उन्हें छोड़ा भी जा सकता है।
उदाहरण - रेगिस्तान में पानी न होने पर वुजू के लिए रेत अथवा मिट्टी इस्तेमाल की जा सकती है; या बीमार और यात्रियों के लिए रमजान के महीने में रोजा रखना अनिवार्य नहीं है और वे बाद में फिर कभी उतने ही दिन रोजा रख सकते हैं।
मुसलमानों की बहुत-सी प्रथाएँ और प्रतिबन्ध बिल्कुल यहूदियों जैसे हैं; जैसे लड़कों का अनिवार्यतः खतना करना ( अन्तर इतना है कि मुसलमान सामान्यतः लड़के के सात दस वर्ष की अवस्था का हो जाने पर करते हैं और यहूदी जन्म के कुछ समय बाद); सूअर का माँस न खाना; ईश्वर की और इसी तरह मनुष्यों अथवा पशुओं की मूर्ति या चित्र बनाने पर कड़ा प्रतिबन्ध, ताकि मूर्तिपूजा के लिए कोई बहाना न रहे। इस्लाम के अनुयायियों के लिए शराब पीना भी मना है; हालाँकि इस नियम का पालन हर कहीं नहीं किया जाता ।
इस्लाम का ईश्वर -
इस्लाम में ईश्वर (अल्लाह) एक है तथा उसके सिवा किसी और की पूजा नहीं की जानी चाहिए। इस्लाम बहुदेववाद के साथ-साथ मूर्ति पूजा और प्रकृति पूजा का भी विरोधी है। वह ईसाइयों द्वारा प्रतिपादित ईश्वर-त्रय ( पिता, पुत्र एवं पवित्र आत्मा) का भी विरोधी है। वह ईसा को पैगम्बर तो मानता है परन्तु ईश्वर पुत्र नहीं, क्योंकि ईश्वर में पुत्र उत्पन्न करने वाले गुणों को जोड़ना उसे मनुष्य कोटि में ले जाना है। इस विश्वास को हटाने के लिये कुरान में बार-बार कहा गया है; "यदि ईश्वर को संतानोत्पादक कहोगे तो आकाश फट जायेगा और धरती उलट जायेगी । " चित्र, मूर्ति और संगीत के प्रति इस्लाम के द्वेष का भी यही कारण था ।
इस्लाम का ईश्वर देखने, सुनने, बोलने चालने, खुश और नाराज होने वाला ईश्वर है। वह कभी लोगों पर नाराज होता है और कभी उन्हें क्षमा करता है। वह कुछ से प्यार करता है और कुछ से नफरत वह अपने भक्तों की आवाज भी सुनता हैं और दुष्टों का दमन भी करता है। परन्तु उसके ये सभी कार्य मनुष्यों की भाँति नहीं होते, क्योंकि उसके मनुष्यों की भाँति हाथ-पाँव और नाक-कान आदि नहीं हैं। वह निराकार है परन्तु उसमें असीम शक्ति है और इस शक्ति का वर्णन करने के लिये ही मनुष्य की भाषा का प्रयोग किया जाता है। कुरान यह मानता है कि ईश्वर अर्श (आकाश) पर रहता है और वहाँ उसका सिंहासन भी है। वह प्रेम और दया का सागर है। इसीलिए कुरान का सबसे बड़ा सैद्धान्तिक और नैतिक निर्देश है- अल्लाह की इच्छा के सामने पूर्ण और बिना शर्त आत्मसमर्पण।
देवदूत और शैतान कुरान देव योनि को मानता है। कुरान में देवों और देवदूतों का नाम 'मालक' या 'फरिश्ता' है। मनुष्य उन्हें देख नहीं सकता और न वे प्रकट होकर मनुष्यों से सम्पर्क ही रख सकते हैं। ईश्वर, मुहम्मद साहब को जो पैगाम भेजते थे वे पैगाम कभी-कभी देवदूत जिब्रिल ले आते थे परन्तु हजरत जिब्रिल को चर्म चक्षु से नहीं, अपनी आध्यात्मिक दृष्टि से देखते थे। कुरान का कहना है, “धर्म यह है कि मनुष्य अल्लाह, मलायक, कयामत, किताब और नबी में विश्वास करे। " शैतान भी देवताओं की तरह, मलक-योनि का है। किन्तु कुरान शैतान में विश्वास रखने की मनाही करता है।
सावधानी
कुरान के अनुसार नीच वासनाएँ मनुष्य के पतन का मार्ग प्रशस्त करती हैं और नीच वासनाओं को उभारने का काम 'जिन' करते हैं। यह 'इबलीस' को इसी जिन योनि का मानती है। इबलीस मनुष्य को गुमराह करने की कोशिश में लगा रहता है। अतः उससे बचना चाहिए।
कयामत, स्वर्ग और नरक
कुरान शरीफ के अनुसार पृथ्वी पर मनुष्य का जन्म पहला और आखिरी जन्म है। इस जीवन के समाप्त हो जाने पर मनुष्य की देह जब कब्र में दफना दी जाती है, तब भी उसकी आत्मा एक भिन्न प्रकार के कब्र में भी जीवित पड़ी रहती है और इसी आत्मा को कयामत के दिन उठ कर ईश्वर के समक्ष जाना पड़ता है। कुरान में कयामत का वर्णन इस प्रकार से किया गया है- “जब कयामत आयेगी, चाँद में रोशनी नहीं रहेगी, सूरज और चाँद सट कर एक हो जायेंगे और मनुष्य यह नहीं समझ सकेगा कि वह किधर जाये और ईश्वर को छोड़कर अन्यत्र उसकी कोई भी शरण नहीं होगी।' 'जब तारे गुम हो जायेंगे, आकाश टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा, पहाड़ों की धूल उड़ जायेगी और तब नबी अपने निर्धारित क्षण पर पहुँचेंगे।" "न्याय का दिन जरूर आयेगा, जब सुर ( तुरही) की आवाज उठेगी, जब तुम सब उठ कर झुंड के झुंड आगे बढ़ोगे और स्वर्ग के दरवाजे खुल जायेंगे।" कयामत के दिन सभी आत्माएँ भगवान के सामने खड़ी होंगी और मुहम्मद उनके प्रवक्ता होंगे। तब हर एक रूह के पुण्य और पाप का लेखा-जोखा लिया जायेगा। पुण्य और पाप को तोलने का काम जिब्रिल करेंगे। जिसका पुण्य परिमाण में अधिक होगा, वह स्वर्ग में जायेगा। जिनके पाप अधिक होंगे, वे नरक में पड़ेंगे।
कुरान के अनुसार " स्वर्ग सातवें आकाश (अर्श) पर स्थित है। उसमें एक रमणीय उद्यान है, जहाँ झरने और फव्वारें दूध और मधु की नदियाँ बहती हैं। ऐसे-ऐसे वृक्ष हैं जिनके तने स्वर्ण के हैं और उनमें रसदिए फल लगते हैं। स्वर्ग में 'हूर- युल- आयून' जाति की सत्तर युवतियाँ हैं जिनकी आँखें काली काली और बड़ी-बड़ी हैं।" पुण्यात्माओं की सेवा करने के लिये 'गिलमा' जाति के सुन्दर सुन्दर लड़के भी रहते हैं। संक्षेप में, स्वर्ग का बड़ा ही सुन्दर मनमोहक चित्र उपस्थित किया गया है। इसके विपरीत नरक के अत्यन्त भयानक या विकराल रूप की कल्पना की गई है।
कर्मफलवाद में विश्वास-
अन्य धर्मों की भाँति इस्लाम भी कर्मफलवाद में विश्वास करता है। ऐसा करने पर ही मनुष्य अपकर्म को छोड़ने का प्रयास करता है अथवा उससे दूर रहता है। कुरान कहता है, "अच्छे और बुरे कर्मों के परिणाम अवश्य मिलेंगे। जिसने भी कण मात्र भी सुकर्म किया है, वह उसे अपनी आँखों से देखेगा, जिसने भी कण मात्र भी दुष्कर्म किया है, वह भी उसे अपनी आँखों से देखेगा।" कयामत के बाद स्वर्ग और नरक का निर्णय इसी जन्म में किये गये कर्मों के फलानुसार ही होता है। कुरान स्पष्ट शब्दों में कहता है, “अगर तुम ज्ञान से देखते तो तुम यहीं नरक को भी देख सकते थे। " कुरान मनुष्य जीवन का लक्ष्य 'लिका-अल्लाह' (ईश्वर मिलन) को मानता है। यह मिलन सम्भवतः सुकर्मों के द्वारा ही सम्भव हो सकता है।
ईमान और कुफ्र
कुरान शरीफ में दो शब्दों ईमान और अमल का उल्लेख मिलता है। विद्वानों की मान्यता है कि ईमान का अर्थ 'उसूल' अथवा 'अमल' से लिया जाना चाहिए। उसूल वे धार्मिक सिद्धान्त हैं जिन्हें नबी ने बताया है। । अमल का अर्थ है उन उसूलों को अपनाना तथा उन पर अमल करना । कुरान में ईमान की 60 शाखाएँ बतलाई गई हैं जबकि हदीस 70 शाखाओं की बात कहता है सबसे ऊँची यह कि अल्लाह को छोड़कर और किसी की पूजा मत करो और सबसे बाद यह कि जिन बातों से किसी का नुकसान होता हो, उन्हें छोड़ दो। नवी द्वारा उद्घोषित सत्य को नकारना अथवा उसपर विश्वास न करना 'कुफ' कहलाता है। कुफ्र का सबसे बुरा रूप 'शिर्क' है जिससे मनुष्य ईश्वर के अलावा और देवताओं को भी ईश्वर मान लेता है अथवा उनमें ईश्वरीय गुणों का आरोप करता है। शिर्क का सबसे बुरा रूप मूर्ति पूजा है।
मुहम्मद साहब का सबसे अधिक जोर ईश्वर को एक केवल एक मानने पर था। उन्होंने कहा है, “मैं सिर्फ यह कहने आया हूँ कि ईश्वर एक है और केवल उसी की पूजा की जानी चाहिए।"
संसार के धर्मों में इस्लाम ही ऐसा धर्म है जिसका विषय केवल व्यक्ति नहीं सारा समाज है। कुरान में मनुष्य मनुष्य के विविध सम्बन्ध, राजनीतिक व्यवहार तथा आचरण, न्याय प्रशासन, सैन्य संगठन, विवाह, तलाक, शान्ति, युद्ध, कर्ज, सूदखोरी, दान आदि के सम्बन्ध में भी धार्मिक उपदेश है। जिनका पालन धार्मिक नियमों के समान ही आवश्यक माना जाता है। उदाहरणार्थ, इस्लाम सूदखोरी को पाप समझता है, एक साथ चार स्त्रियों से अधिक रखना बुरा मानता है और शराब पीने का निषेध करता है।
इस्लाम के नैतिक सिद्धान्त
- इस्लाम के नैतिक सिद्धान्त बड़े ही सरल हैं। मुसलमानों से न्यायी होने, भलाई का बदला भलाई से और बुराई का बदला बुराई से चुकाने, उदारता दिखाने, गरीबों की मदद करने आदि की अपेक्षा की जाती है। इस्लाम में ऐसे कोई नैतिक नियम नहीं हैं जिन पर अमल न किया जा सके।
- इस्लाम के पारिवारिक नैतिकता और स्त्री-पुरुषों के आपसी सम्बन्धों के बारे में विचारों पर पितृसत्तात्मक गोत्रीय जीवन पद्धति की छाप है। स्त्री को अल्लाह ने पुरुष के उपभोग के लिए बनाया है और उसे दब कर रहना चाहिए। मगर, दूसरी ओर, कुरान में स्त्रियों के मानवीय और नागरिक अधिकारों को मान्यता भी दी गई है। पति द्वारा पत्नी से अनावश्यक क्रूर व्यवहार किये जाने की निन्दा की गयी है। स्त्रियों को सम्पत्ति का अधिकार, दहेज का अधिकार और दयाधिकार प्रदान किये गये हैं। अरबों की पितृसत्तात्मक प्रथागत विधि से आगे बढ़कर कुरान ने स्त्रियों की स्थिति को काफी बेहतर बना दिया।
- अल्लाह के सामने सभी मुसलमान बराबर हैं; मगर साम्पत्तिक अन्तरों को, अमीरी और गरीबी को प्राकृतिक चीजें माना गया है, जिन्हें स्वयं अल्लाह ने बनाया है। गरीबों के लिये दिये जाने वाले जकात का उद्देश्य जैसे कि साम्पत्तिक विषमता को कम करना है। कुरान निजी सम्पत्ति की संस्था का समर्थन करता है। व्यापारिक मुनाफे को सर्वथा न्यायसंगत माना गया है, जबकि सूदखोरी की निन्दा की गयी है- “बेचने (व्यापार) को तो अल्लाह ने हलाल (जाइज) किया है और सूद (ब्याज) को हराम (नाजाइज)। " कर्जदार को बन्धुआ बनाने की सख्त मनाही कर दी गयी । संक्षेप में, इस्लाम की विचारधारा सरल थी और आसानी से समझ में आ जाती थी। उसके निर्देश भी कठिन नहीं थे और सहजता से पूरे किये जा सकते थे। हजरत मुहम्मद की शिक्षाओं तथा उनके द्वारा प्रवर्तित धर्म की विशेषता यह है कि यह दार्शनिक उलझनों के चक्कर में न पड़कर व्यावहारिकता पर अधिक जोर देता है। इस धर्म में पुरोहित की कोई आवश्यकता नहीं। इसमें कोई बात ऐसी नहीं है जो मनुष्य की बुद्धि से परे हो, इसमें आचरण की शुद्धता और बन्धुत्व की भावना पर जोर दिया गया है।
- मुहम्मद साहब की शिक्षाओं पर समकालीन यहूदी तथा ईसाई धर्मों का प्रभाव देखने को मिलता है। उन्होंने इन धर्मों के अच्छे तत्वों का इस्लाम में समावेश किया। इसी प्रकार उन्होंने अरबों के पुराने विचारों और प्रथाओं को भी स्थान दिया। सम्भवतः काबा और मक्का का महत्त्व इसी का परिणाम रहा हो। चार स्त्रियों को रखने के पीछे भी अरबों में प्रचलित बहुपत्नी प्रथा कारण रही हो। इसीलिए कुछ विद्वानों का मानना है कि हजरत मुहम्मद एक बहुत बड़े समाज सुधारक भी थे। उन्होंने अरबों के प्रचलित धर्म तथा समाज की बुराइयों को दूर करने का प्रयत्न किया।
जिहाद -
- इस्लाम का एक निर्देश धर्म की खातिर पवित्र युद्ध ( जिहाद ) से सम्बन्ध रखता है। कुरान में इस निर्देश को स्पष्टतः सूत्रबद्ध किया गया है-वर्ष में आठ मास ( अन्य चार मास वर्जित माने जाते हैं) बहुदेववादियों और विधर्मियों से लड़ना, उनका संहार करना और उनकी जमीन जायदाद को छीन लेना चाहिए। मगर आगे चलकर मुस्लिम धर्मशास्त्रियों और अन्य विद्वानों ने जिहाद से सम्बन्धित निर्देश की अलग-अलग ढंग से व्याख्या की। बहुदेवपूजक धर्मों के अनुयायियों के बारे में कुरान का रवैया बहुत ही सख्त है उसमें कहा गया है, "ऐ ईमान वालों अपने आसपास के काफिरों से लड़ जाओ जिससे कि वह तुमसे अपनी बाबत सख्ती महसूस करे और जानो कि अल्लाह उन लोगों का साथी है जो अल्लाह से डरते हैं।" मगर 'किताबवालों' अर्थात् यहूदियों और ईसाइयों के प्रति कुरान थोड़ा उदार है। फिर भी कुरान में 'किताबवालों' के साथ भी लड़ने का आदेश दिया गया है, यदि वे अल्लाह को नहीं मानते और सच्चे धर्म के आगे नहीं झुकते हैं। सम्भवतः इसका कारण सम्पूर्ण संसार को एक राज्य और एक धर्म के अधीन लाना था। क्लेन नामक एक विद्वान् ने जिहाद का अर्थ 'संघर्ष' बताया है और इस संघर्ष के उसने तीन क्षेत्र माने हैं- (1) दृश्य शत्रु के विरुद्ध संघर्ष (2) अदृश्य शत्रु ( जिन) के विरुद्ध संघर्ष और (3) इन्द्रियों के विरुद्ध संघर्ष । कुछ विद्वानों का मानना है कि इस्लाम के प्रचार के लिए जो लड़ाइयाँ लड़ी गयीं. उन्हें पवित्र विशेषण देने के लिए ही इस शब्द का प्रचलन किया गया। मुहम्मद अली (रिलीजन ऑफ इस्लाम के लेखक ) का मत है कि इस शब्द का अर्थ इस्लाम के प्रचार के लिए युद्ध करना नहीं है; इसका अर्थ परिश्रम, उद्योग या सामान्य संघर्ष ही है। हदीस में हज की गिनती भी जिहाद के रूप में की गई है-"नबी ने कहा है कि सबसे अच्छा जिहाद हज में जाना है।" मगर व्यवहार में आगे चलकर काजियों ने जिहाद का अर्थ युद्ध कर दिया। उन्होंने सारे संसार को दो हिस्सों में बाँट दिया - (1) दारूल इस्लाम (जिस हिस्से पर मुसलमानों की हकूमत थी, उसे शांति का देश कहा गया और (2) दारूल - हरब ( युद्ध-स्थल) जिस हिस्से पर गैर-मुसलमानों की हकूमत थी। उन्होंने मुसलमानों की धार्मिक भावना को उत्तेजित किया कि ऐसे देशों को जीत कर इस्लाम का झण्डा गाड़ना जिहादियों का परम कर्त्तव्य है।