आधुनिक भाषाओं का विकास पवित्र - मध्यकालीन यूरोप
आधुनिक भाषाओं का विकास पवित्र
- मध्यकालीन यूरोप की एक महत्त्वपूर्ण देन है आधुनिक भाषाओं के विकास की -- पृष्ठभूमि तैयार करना । मध्यकाल के पूर्वार्द्ध में विद्वान लोग केवल लैटिन अथवा ग्रीक भाषा में ही अध्ययन-अध्यापन तथा लेखन का काम किया करते थे। बोलचाल की भाषाओं को असभ्य तथा पिछड़ी हुई माना जाता था और इनमें साहित्य का सृजन एक प्रकार से अपराध समझा जाता था। परन्तु रोमन साम्राज्य को नष्ट करने वाले बर्बर कबीले लैटिन अथवा ग्रीक में पारंगत नहीं हो पाये और अपनी देशी भाषा का ही प्रयोग करते रहे। धीरे-धीरे पश्चिमी यूरोप में बोलचाल की दो भाषाओं का विकास हुआ। एक थी 'रोमन्स भाषा' जिसके अन्तर्गत फ्रेंच, इटालियन, स्पेनिश और पुर्तगाली भाषाएँ आती हैं और दूसरी थी 'जर्मनिक भाषा' जिसमें जर्मन, अंग्रेजी, डच, नार्वेजियन और स्वीडिश भाषाएँ सम्मिलित थीं।
- तेरहवीं सदी तक यह स्पष्ट हो गया था कि लोगों की बोलचाल की भाषा विद्वानों की लिखित भाषा पर विजय प्राप्त कर लेगी। देशी भाषाओं के विकास के साथ सामान्य लोग धीरे-धीरे अपने साहित्य में अपने विचारों को अभिव्यक्त करने लगे। विद्या अथवा ज्ञान जो अब तक थोड़े से लोगों की बपौती थी, अब सामान्य लोगों के जीवन को भी आलोकित करने लगी। सामान्य लोगों की रचनाओं में कुलीन वर्गीय महिलाएँ घमण्डी सरदार, भिखारी, कृषक दास आदि को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा। उन लोगों ने मनुष्यों की समानता, श्रम की महिमा और पाखण्ड के प्रति घृणा जैसे विचारों पर अधिक जोर दिया।
- मध्ययुगीन लोक-काव्य में शूरमाओं के गीत गाये गये हैं। 'बियोवुल्फ' सबसे पुराने लोक-काव्यों में है अग्लि सैक्सन भाषा का है और इसमें नायक एक भयानक सर्प दैत्य पर विजय प्राप्त करता है। एक अन्य लोग काव्य में राजा आर्थर और उसके शूरमाओं के शौर्य का वर्णन है। इसी प्रकार, जर्मन लोककाव्य 'निवेलु गनलीड' में नायक सौगफ्रिड सर्प- दैत्य से संघर्ष करता है और एक सुन्दरी की प्राण रक्षा करता है। स्पेन के राष्ट्रीय महाकाव्य 'लेसिड' के नायक मूरो के विरुद्ध युद्ध करता है। फ्रांस के महाकाव्य 'रोलॉ का गीत' भी एक फ्रेंच सरदार की मूरो के साथ संघर्ष करते हुये वीर गति प्राप्त करने की गाथा है। संक्षेप में लोक-काव्यों के माध्यम से हमें उस युग की शूरवीरता, ईसाइयत . एवं देश-प्रेम की झलक दिखलाई पड़ती है।
- इसी प्रकार, मध्यकालीन नाटकों में मुख्यतः धर्म और नैतिकता की शिक्षा देने का प्रयास किया गया है। ये नाटक सामान्यत: बाइबिल की कहानियों पर आधारित होते थे या चमत्कार - नाटक होते थे। नैतिक नाटकों में अच्छे और बुरे पात्रों के माध्यमों से सद्गुणों की अवगुणों पर विजय के दृश्य उपस्थित किये जाते थे। ऐसे नाटकों में 'एक्रीमेन' नामक नाटक बहुत प्रसिद्ध हुआ । हास्य कथाओं की रचना भी हुई। इनमें सरदारों, पादरियों और प्रेम का मजाक उड़ाया जाता था। ऐसी रचनाओं को नवोदित व्यापारी व्यवसाय वर्ग काफी पसन्द करता था, क्योंकि इससे उनके अहं को चैन मिलता था।
संगीत - मध्यकालीन यूरोप
प्राचीनकाल से ही संगीत ईश्वर आराधना तथा मनोरंजन का एक साधन रहा है। मध्ययुग के लोग भी संगीत के माध्यम से अपनी भक्ति भावना का प्रदर्शन करते थे। पुरोहित लोग आरती (मास) का गान करते थे। मठवासी भी भक्तिगीत (भजन) बनाते थे और उन्हें गाने वाली भजन मण्डलियाँ (कोइर) काफी लोकप्रिय थीं। आनन्द देने वाले भजन जिन्हें 'कैरोल' कहा जाता था, क्रिसमस या ईस्टर पर गाया जाता था। धीरे-धीरे सांसारिक अर्थात् मौज-मस्ती के गीत भी लोकप्रिय होने लगे।
उदाहरण- विद्यार्थियों में मदिरा गीत, किसानों में कृषि सम्बन्धी गीत और सैनिकों में शूरवीरता के गीत और रसिक लोगों में प्रेमगीत काफी लोकप्रिय थे।
उस समय में सह-वादन (आरकेस्ट्रा) का प्रचलन नहीं था परन्तु विविध वाद्य यन्त्र जैसे कि ढोल, तुरही, बाँसुरी और अन्य वाद्य एक साथ अवश्य बजाये जाते थे।
स्थापत्य कला - मध्यकालीन यूरोप
- मध्ययुग में धर्म का अत्यधिक महत्त्व था। धन-सम्पन्न लोगों, सामन्तों एवं राजाओं ने ईश्वर की महिमा के लिए भव्य गिरजाघरों का निर्माण करवाया। रोमानसक अथवा गौथिक शैली में बने ये गिरजाघर कला के अनुपम नमूने हैं। किसी-किसी गिरजाघर के निर्माण में तो अनेक वर्ष लग जाते थे और उसके निर्माण कार्य में समूचा देश यथाशक्ति आर्थिक सहयोग प्रदान करता था। इस पुण्य कार्य में मजदूर लोग भी अपना सहयोग देने में पीछे नहीं रहते थे। रोमन शैली में निर्मित गिरजाघरों में पत्थर की विशाल छत को सम्भालने के लिये मोटी-मोटी दीवारें बनाई जाती थीं और बहुत कम खिड़कियाँ रखी जाती थीं। वे भी छोटे आकार की होती थीं। परिणामस्वरूप ऐसे गिरजाघरों का भीतरी भाग अन्धकारमय होता था। दरवाजों और खिड़कियों पर गोलाई लिए मेहराबें होती थीं जो कि इस शैली की विशेषता कही जा सकती है। बाद में, गौथिक शैली का प्रचलन बढ़ा। इस शैली के गिरजाघर ऊँचे, हल्के और शोभायमान होते थे। इसमें प्रकाश की समुचित व्यवस्था रहती थी और बड़ी बड़ी अनेक खिड़कियाँ होती थीं। इसमें गोल मेहराबों के स्थान पर नुकीली मेहराबों का प्रयोग किया जाता था तथा सपाट छत की जगह ढलवाँ छत का निर्माण किया जाता था। कुशल कारीगरों ने दीवारों, दरवाजों तथा खिड़कियों पर रंग-बिरंगे काँच के टुकड़ों को जड़ कर गिरजाघरों की सुन्दरता को और भी अधिक निखारने का प्रयत्न किया। मूर्तिकारों ने दीवारों पर उभार - चित्र और मूर्तियाँ बनाई हैं। फ्रांस में स्थित सा के गिरजाघर में अन्दर और बाहर संतों, देवताओं, पैगम्बरों और अन्य धार्मिक नायकों की लगभग दो हजार प्रतिमाएँ हैं। दीवारों पर उभरी हुई इन प्रतिमाओं से गिरजेघरों का सौन्दर्य दुगुना हो उठा है। उस युग के कलाकारों ने लकड़ी, काँसे और लोहे पर भी सुन्दर कोराई और नक्काशी का काम किया है। वैस्टमिंस्टर, ऐवे, नोत्रदाम, कोलोन, मिलान आदि स्थानों के गिरजाघर अधिक विख्यात हैं। ये गिरजाघर जहाँ मध्यकालीन यूरोप की समृद्धि और कारीगरों तथा शिल्पकारों के कला कौशल को अभिव्यक्ति करते हैं, वहीं उस युग की मुख्य विशेषता 'धर्म' की अभिव्यक्ति भी करते हैं और बतलाते हैं कि उस युग के लोगों का ध्यान किस सीमा तक परलोक की कल्पना के साथ जुड़ा हुआ था।