परवर्ती रोमन विश्व (The Late Roman World in Hindi)
परवर्ती रोमन विश्व प्रस्तावना ( Introduction)
मध्ययुगीन समाज पर चर्च
का जितना व्यापक प्रभाव था,
वैसा प्रभाव किसी
समय में किसी भी संगठन का कभी नहीं रहा। चर्च अपने अनुयायियों के तन, मन एवं धन का स्वामी था।
वह निर्बलों और असहायों का आश्रयदाता था । उसने असभ्य बर्बरों को ईसाई बनाकर सभ्य
बनाया। उसने प्राचीन ज्ञान-विज्ञान और सांस्कृतिक पहलू को बचाये रखा। उसने युद्ध
की विभीषिका को कम करके शान्ति और व्यवस्था को पुनः स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण
योगदान दिया । चर्च ने यूरोप को उस समय धार्मिक एकता प्रदान की जिस समय उसकी
राजनैतिक एकता लुप्त हो चुकी थी। ऐसी स्थिति में मध्ययुगीन समाज पर उसका वर्चस्व
कायम होना स्वाभाविक ही था ।
मध्यकालीन यूरोप की
विशेषताएँ (Features of
Middle Age Europe )
रोमन साम्राज्य के पतन से
लेकर पुनर्जागरण तक का काल यूरोपीय इतिहास का मध्ययुग कहलाता है। इसकी दो मुख्य
विशेषताएँ हैं- धर्म और साम्राज्य धर्म के अन्तर्गत रोमन कैथोलिक चर्च और सर्वोच्च
प्राधिकारी पोप की शक्तियों का अभूतपूर्व विकास हुआ। धर्म के नाम पर धर्मयुद्ध
लड़े गये। इस्लाम के अनुयायियों ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की, शार्लमेन और औट्टो जैसे
सम्राटों ने रोमन साम्राज्य को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया, नई राजसत्ताओं का जन्म
हुआ, सामन्तवाद का
विकास हुआ, सर्वोच्चता के
प्रश्न को लेकर पोपों एवं सम्राटों के मध्य संघर्ष हुआ, परन्तु मध्य युग के पिछले
दिनों सभ्यता एवं संस्कृति के अनेकों क्षेत्रों में सुधार भी हुआ। राष्ट्रीय
भाषाओं का विकास हुआ, साहित्य समृद्ध
हुआ, व्यापार वाणिज्य
उन्नत हुआ, नगरों का विकास
हुआ, सामन्त प्रथा का
अन्त हुआ और चर्च के वर्चस्व में कमी आई सुख-सुविधाओं में वृद्धि हुई, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र
में प्रगति हुई और आधुनिक युग का प्रवेश द्वार खुला।
रोमन कैथोलिक चर्च का
प्रभुत्व (Supremacy of
Roman Catholic Church)
चर्च का वर्चस्व -
सोलहवीं सदी के प्रारम्भ में लिथुआनिया से आयरलैंड तक और नार्वे तथा फिनलैण्ड से
लेकर पुर्तगाल और हंगरी तक सम्पूर्ण पश्चिमी और मध्य यूरोप में रोमन कैथोलिक ईसाई
चर्च का वर्चस्व था। ईसाई परिवार में उत्पन्न प्रत्येक शिशु इसका सदस्य समझा जाता
था और जन्म से लेकर कब तक लोगों के जीवन पर चर्च का नियन्त्रण एवं प्रभुत्व था। जब
रोमन साम्राज्य टूटा तब कोई ऐसा सुदृढ़ शासन नहीं था, जो उसका स्थान ले सकता।
उस समय रोमन कैथोलिक चर्च धार्मिक संगठन के साथ-साथ एक सशक्त राजनीतिक संगठन भी बन
गया। उसने सांसारिक कर्तव्यों को भी अपने हाथ में ले लिया । तेरहवीं शताब्दी तक
चर्च ने प्रचुर सम्पत्ति अर्जित कर ली थी। यूरोप की बीस प्रतिशत भूमि का वह स्वामी
बन चुका था। उसके अपने नियम, न्यायालय एवं कारागार थे। अपने नियमों के उल्लंघन करने
वालों को वह मुकदमा चलाकर दण्डित करता था। चर्च, ईसाई धर्म के परम्परागत विश्वासों तथा आस्थाओं
का प्रतीक समझा जाता था। वह धार्मिक संस्कारों तथा नैतिक मापदण्डों का संरक्षक
माना जाता था। किसी भी व्यक्ति में उसके विरुद्ध अँगुली उठाने का साहस नहीं था।
मध्य युग में लोगों के जीवन पर चर्च का पूर्ण एकाधिकार था और लोगों को चर्च के
द्वारा निर्देशित मार्ग पर चलते हुए जीवन बिताना पड़ता था अथवा धर्मद्रोही करार
दिये जाने का भय बना रहता था।
ईसाई जगत् के इस धार्मिक साम्राज्य के संगठनात्मक ढाँचे का अध्यक्ष रोम का बिशप होता था, जिसे 'पोप' के नाम से पुकारा जाता था।
पोप की शक्तियाँ -
ईसाई
जगत् के इस धार्मिक साम्राज्य के संगठनात्मक ढाँचे का अध्यक्ष रोम का बिशप होता
था. जिसे 'पोप' के नाम से पुकारा जाता
था। प्राचीन रोम के कुछ थोड़े से ही सम्राटों के हाथ में उतनी शक्ति रही थी, जितनी की मध्यकालीन पोप
के हाथ में थी। कैथोलिक जनता उसे पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि मानने लगी थी। वह
चर्च का सर्वोच्च नियम निर्माता, सर्वोच्च न्यायाधीश और चर्च की समस्त गतिविधियों का
सर्वोच्च प्रशासक था। वह यूरोप के किसी भी ईसाई राज्य के शासक को पदच्युत करने की
क्षमता रखता था। वह किसी भी ईसाई राज्य के किसी भी ऐसे सिविल कानून को जो उसकी
निगाह में अनुचित हो, रद्द कर सकता था
। विवाह, तलाक, वसीयत, उत्तराधिकार सम्बन्धी कई
वैधानिक मामले अन्तिम निर्णय के लिए उसी के सामने प्रस्तुत किये जाते थे। वह
विभिन्न यूरोपीय राज्यों में सर्वोच्च धर्माधिकारियों की नियुक्ति भी करता था।
स्पष्ट है कि पोप के अधिकारों की कोई सीमा न थी। मध्य युग में समय-समय पर पोप के
अधिकारों को कम करने के प्रयास भी किये गये थे, प्रयास को सफलता न मिली और ईसाई जगत् पर पोप का वर्चस्व बना
रहा । परन्तु किसी भी
चर्च के सांसारिक कर्तव्य-
रोमन साम्राज्य के पतन के फलस्वरूप उत्पन्न अव्यवस्था और अराजकता के समय
चर्च ने कई प्रकार के सांसारिक दायित्वों का भार भी उठाया। अपने नियम, न्यायालय और कारागार
बनाने के साथ-साथ चर्च ने शिक्षा की व्यवस्था अपने हाथ में ली तथा बन्द पड़ी
पाठशालाओं में अपने पादरी शिक्षकों को नियुक्त करके शिक्षा का काम शुरू किया।
रोगियों, गरीबों, विधवाओं और अनाथों की
देखभाल की व्यवस्था की। विवाहों, वसीयतों, उत्तराधिकार के मामलों, अनुबन्धों की समस्याओं आदि को सुलझाने की व्यवस्था की।
धर्मद्रोहियों का दमन किया तथा बर्बर जर्मन कबीलों को ईसा का अनुयायी बनाकर उन्हें
सभ्य जीवन का पाठ पढ़ाया। आधुनिक समय में धर्मद्रोहियों के साथ किये जाने वाले
अमानवीय व्यवहार को बुरा समझा जा सकता है, परन्तु मध्ययुग के लोगों में धार्मिक जोश इतना तीव्र था कि
वे लोग धर्मद्रोहियों को ईश्वर के विरुद्ध विद्रोह का अपराधी मानते थे। चर्च में
काम करने वाले लोगों की समाज में अत्यधिक प्रतिष्ठा थी। उन्हें शक्ति और
विशेषाधिकार प्राप्त थे। वे राज्य को किसी प्रकार का कर नहीं देते थे और सैनिक
सेवा से भी मुक्त रखे जाते थे।
मठवासियों और मठवासिनियों के कार्य
मठों में निवास करने वाले पुरुषों को 'मोंक' और स्त्रियों को 'नन'
कहा जाता था।
इनके जीवन निश्चित नियमों से बँधे होते थे। इसलिए उन्हें 'नियमित पादरी' कहा जाता था। मध्य युग के
मठवासियों और मठवासिनियों ने अन्धकार युग को आलोकित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान
दिया। अनेकों ने बर्बर लोगों को ईसाई बनाने के प्रयास में अपने प्राण गँवा दिये।
बहुत से विद्वान मठवासियों ने प्राचीन विश्व की प्रसिद्ध पांडुलिपियों की
प्रतिलिपियाँ हाथ से लिखकर तैयार की और इस प्रक्रिया में अपना समस्त जीवन बिता
दिया। उन्हीं की रचनाओं के माध्यम से हमें मध्यकालीन यूरोप के इतिहास की विस्तृत
जानकारी मिलती है। मध्यकालीन मठ आस-पास की बस्तियों के बालकों के लिए विद्यालयों
का दायित्व भी निभाते थे और यात्रियों के लिए विश्रामगृहों का काम भी करते थे। मठवासी
चिकित्सक का काम भी करते थे। कृषि, पशुपालन और उद्योग के क्षेत्र में उनका योगदान रहा, क्योंकि अपनी दैनिक
आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वे स्वयं कठोर शारीरिक श्रम करते थे। ग्रामीण
क्षेत्रों के लोगों पर चर्च तथा धर्म का प्रभाव स्थापित करने में उन्होंने सक्रिय
भूमिका अदा की थी।
क्या आप जानते हैं मठों में निवास करने वाले पुरुषों को 'मोंक' और स्त्रियों को 'नन' कहा जाता था ।