धर्मयुद्ध ( क्रूसेड) , Crusade in Hindi
धर्मयुद्ध ( क्रूसेड) , Crusade in Hindi
मध्यकालीन यूरोप की एक प्रमुख विशेषता है-धर्म के नाम पर लड़े जाने वाले धर्मयुद्ध । ईसाई धर्म के पवित्र तीर्थ स्थान जेरूसलम के अधिकार को लेकर ईसाइयों और मुसलमानों (सैल्युक तुर्की) के मध्य लड़े गये युद्ध इतिहास में 'धर्मयुद्धों' (क्रूसेड्स) के नाम से विख्यात हैं। ये युद्ध लगभग दो शताब्दियों ( 1095-1291 ई.) तक चलते रहे। इतिहासकार ऐसे सात धर्मयुद्ध मानते हैं। धर्मयुद्ध के कारणों एवं घटनाओं का उतना महत्त्व नहीं है, जितना कि उसके परिणामों का है।
धर्मयुद्ध के कारण एवं घटना
(1) सांस्कृतिक आदान-प्रदान
- परिणाम- धर्मयुद्ध यूरोप के ईसाई जगत् को उसका पवित्र तीर्थ स्थान जेरूसलम तो नहीं दिलवा पाये परन्तु वे एक नये यूरोप के निर्माण में सहायक अवश्य बने। धर्मयुद्धों के परिणामस्वरूप यूरोपवासी पूर्वी रोमन साम्राज्य तथा दूसरे पूर्वी देशों के सम्पर्क में आये। इस समय जहाँ यूरोप अज्ञान एवं अन्धकार में डूबा हुआ था. पूर्वी देश ज्ञान के प्रकाश से आलोकित थे। पूर्वी देशों में अरब लोगों ने यूनान तथा भारतीय सभ्यताओं के सम्पर्क से अपनी एक नई समृद्ध सभ्यता का विकास कर लिया था। इस नवीन सभ्यता के सम्पर्क में आने पर यूरोपियों को यह पता चल गया कि अन्य लोगों के पास ऐसा बहुत कुछ है जिसे वे सीख सकते हैं। जब उन्होंने देखा कि मुसलमान कितनी स्वच्छता से रहते थे, तो उन्हें अपनी गन्दगी पर लज्जा आने लगी।
- पूर्व और पश्चिम के इस मिलन के ऐतिहासिक महत्त्व को कई लोगों ने बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया है। वस्तुतः पश्चिम पर पूर्व का प्रभाव वैज्ञानिक और साहित्यिक की अपेक्षा कलात्मक, औद्योगिक व्यापारिक एवं सांस्कृतिक अधिक था। वैसे धर्मयुद्धों के समय में पूर्व में मुस्लिम संस्कृति अपने ह्रास की ओर अग्रसर थी। दर्शन, चिकित्सा, संगीत और दूसरे अन्य क्षेत्रों में उसकी पुरानी चमक मंद पड़ चुकी थी। यह स्थिति शायद इस तथ्य को स्पष्ट करने में सहायक हो सकती है कि बारहवीं और तेरहवीं शताब्दियों में स्पेन, सिसली, उत्तरी अफ्रीका और यहाँ तक कि बाईजेण्टियन साम्राज्य (पूर्वी रोमन साम्राज्य) की अपेक्षा सीरिया ही इस्लाम और पश्चिमी ईसाइयत के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान का प्रमुख केन्द्र बना रहा। सीरिया के माध्यम से ही इस्लाम ने यूरोपीय ईसाइयत को प्रत्यक्ष रूप में धर्मयोद्धाओं के द्वारा सांस्कृतिक दृष्टि से प्रभावित किया था। दूसरी तरफ, यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि सीरिया में आने वाले फ्रेंक अथवा जर्मन योद्धा, पश्चिमी संस्कृति के उन्नत प्रतिनिधि न होकर दुर्गा और गढ़ियों के सीमित क्षेत्र में जीवनयापन करने वाले सामान्य स्तर के लोग थे जिनका पश्चिम के बौद्धिक वर्ग से विशेष सम्पर्क नहीं था। इसके अलावा राष्ट्रीय और धार्मिक पूर्वाग्रहों ने भी पूर्व और पश्चिम के उन्मुक्त मिलन में कई प्रकार की कथाएँ उत्पन्न कर दी थीं। कला और विज्ञान के क्षेत्र में पूर्व के स्थानीय लोगों को सिखाने लायक कोई बात पश्चिम के इन धर्मयोद्धाओं के पास नहीं थी। अरब इतिहासकारों ने फ्रेंकी की न्याय विधि का मजाक उड़ाते हुए लिखा है कि वे लोग कितने अज्ञानी हैं जो विवादों का निर्णय द्वन्द्व युद्ध अथवा पानी में डुबो कर करते हैं।
(2) लोककल्याणकारी कार्य
बारहवीं सदी से हमें सम्पूर्ण यूरोप में धर्मशालाएँ और चिकित्सालयों, विशेषकर कुष्ठ रोगियों के आश्रम दिखाई पड़ते हैं। इससे हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि व्यवस्थित चिकित्सालयों का विचार पूर्वी मुसलमानों की देन है। यूरोप में सार्वजनिक स्नानागारों का पुनर्प्रचलन भी पूर्व की देन है, क्योंकि रोमनों ने तो इसे संरक्षण दिया था परन्तु ईसाइयों ने इस सार्वजनिक संस्था को निरुत्साहित किया था।
(3) साहित्य पर प्रभाव
साहित्य के क्षेत्र में पूर्व का प्रभाव अधिक व्यापक रहा। 'होलीग्रेल' के आख्यानों में - निस्सन्देह सीरियन मूल के तत्व सम्मिलित हैं। धर्मयोद्धाओं ने पूर्वी लोगों से 'अरेबियन नाइट्स' की कहानियाँ सुनी होंगी और वापसी में अन्य लोगों को पूर्वी किस्से सुनाये होंगे। चौसर की 'स्कॉयरर्स टेलस्' वास्तव में एक अरेबियन नाइट्स की कहानी है। बुकासियो ने मौखिक स्रोतों से जिन पूर्वी कहानियों को प्राप्त किया, उन्हें उसने अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना 'डेकामेरन' में रूपान्तरित किया है। धर्म युद्धों के परिणामस्वरूप ही यूरोपवासियों में अरबी तथा अन्य इस्लामी भाषाओं में गहरी रुचि उत्पन्न हुई।
(4) युद्ध कला-कौशल पर प्रभाव-
युद्ध कला कौशल के क्षेत्र में पूर्वी प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। क्रॉस धनुष का उपयोग, शूरमाओं द्वारा भारी जिरह बख्तर पहनना, अस्त्र-शस्त्रों के नीचे रूई के पैड का इस्तेमाल, घोड़ों की सुरक्षा पर अधिक ध्यान देना आदि धर्मयुद्धों की सीख के ही परिणाम हैं। सीरिया में तो फ्रैंक लोगों ने अपने सैनिक बैण्ड में मृदंग तथा ढोल को भी सम्मिलित कर लिया था। उन्होंने स्थानीय लोगों से सैनिक सूचनाओं को पहुँचाने के लिए कबूतरों को प्रशिक्षित करने की कला भी सीखी और विजय के जश्न को मनाने तथा अन्य पुरुषोचित खेल - कूदों को सीखा तथा उनका यूरोप में प्रसार किया। वस्तुतः सामन्तवाद की कई महत्त्वपूर्ण शौर्य विशेषताओं के विकास में सीरिया का अप्रत्यक्ष योगदान रहा है। आयुधांक और सायुधांक (कुल चिन्ह - अस्त्रध्वजादि चित्रण) के बढ़ते हुए प्रयोग का मूल कारण मुस्लिम सरदारों के साथ उनका सम्पर्क ही था। धर्मयोद्धाओं ने घेरा डालने की उन्नत तकनीक भी सीखी जिसमें सुरंगें बिछाना तथा दुर्ग की प्राचीरों एवं बुर्जियों को ध्वंस करने के लिए विस्फोटक सामग्री का उपयोग आदि सम्मिलित था। वैसे बारूद का आविष्कार चीन में हुआ था। मंगोलों के माध्यम से इसकी जानकारी यूरोप को मिली परन्तु आग्नेय शस्त्रों में इसके उपयोग की जानकारी धर्मयुद्धों के बाद ही हो पाई और चौदहवीं सदी में यूरोप वाले इसके प्रयोग में काफी निपुण हो चुके थे।
(5) कृषि के क्षेत्र में नई फसले
कृषि, उद्योग और बाणिज्य के क्षेत्र में बौद्धिक क्षेत्र से भी अधिक महत्त्वपूर्ण परिणाम निकले। उन्होंने पश्चिमी भूमध्यसागरीय क्षेत्रों में नींबू, प्याज, खुबानी, तरबूजा, बाजरा, चावल आदि के नये पौधों और फसलों को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। यूरोप में कई वर्षों तक खुबानी को दमिश्क के बेर के नाम से पुकारा जाता रहा।
(6) खान-पान एवं रहन सहन पर प्रभाव
पूर्वी देशों के अपने प्रवास काल में धर्मयोद्धाओं ने खाने-पीने के - मामलों में नये स्वादों का अनुभव किया और यूरोप लौटने के बाद उनका प्रचार भी किया। सीरिया में बाजारों में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध सुगन्धित पदार्थों, गर्म मसालों, मिठाइयों और अरब तथा भारत जैसे देशों के अनेक खाद्य पदार्थों ने उन्हें अत्यधिक प्रभावित किया। इन सुस्वादों ने आगे चलकर इटालियन और भूमध्यसागरीय नगरों के वाणिज्यों को भी काफी सहारा दिया। क्योंकि अब यूरोप में सहभोजों के अवसर पर पूर्वी देशों के मसालों से छौंके गये अधिकाधिक व्यंजन बनने लगे। आडू, खुबानी, तरबूज, खजूर, नींबू आदि दुर्लभ फलों का प्रयोग बढ़ने लगा। चीनी का प्रयोग भी बढ़ा। इससे पूर्व यूरोपवासी अपने खाद्य पदार्थों को मीठा बनाने के लिए शहद का प्रयोग किया करते थे। चीनी के साथ ही कई-कई प्रकार के शर्बत तथा पेय पदार्थ भी पश्चिम में जा पहुँचे। पूर्व ने पश्चिम के रहन-सहन और घरों की सजावट को भी प्रभावित किया। सम्पन्न घरों में पूर्वी देशों के कालीन और पर्दे प्रयुक्त होने लगे। अब यूरोपीय महिलाएँ मखमल, रेशम, मलमल छींट और दामस्क के परिधान पहनने लगीं। विशेष अवसरों पर ईरानी इत्र और सुगन्धित तेलों का प्रयोग किया जाने लगा। फिटकरी और अगर नामक द्रव्यों की जानकारी मिली। संक्षेप में, धर्मयुद्धों ने यूरोप के खान-पान, रहन-सहन, ज्ञान-विज्ञान, व्यापार वाणिज्य सभी को काफी प्रभावित किया।
(7) व्यापार एवं बैंकिंग व्यवस्था में सुधार
पूर्वी कृषि उत्पादों और औद्योगिक वस्तुओं की बढ़ती माँग ने यूरोप - में एक नया बाजार खोल दिया। धर्मयोद्धाओं और तीर्थ यात्रियों को लाने-ले जाने की आवश्यकता ने समुद्री परिवहन के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को रोमन युग के स्तर तक पहुँचा दिया। धर्मयुद्धों के समय में अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण इतालवी नगरों ने व्यावसायिक समृद्धि का पूरा लाभ उठाया। इटली के नगरों के व्यापारी धर्मयोद्धाओं को आवश्यक सामग्रियाँ बेच बेच कर मालामाल हो गये। वेनिस, जिनोआ, पीसा तथा अन्य इतालवी व्यापारिक बेड़े, सुदूरपूर्व से आने वाली विलास सामग्रियाँ तथा मसाले उठाते थे। वेनिस के रास्ते वे अन्ततोगत्वा यूरोप के अन्य नगरों तक पहुँच जाती थीं। धर्मयुद्धों के बाद पश्चिमी यूरोप के अन्य नगर भी इतालवी नगरों से व्यापारिक प्रतिस्पर्धा करने लगे। लन्दन, पेरिस, कोलोन और हेम्बर्ग मुख्यतया व्यापारिक गतिविधियों के बढ़ जाने के कारण बड़े नगर बन गये। नई स्थिति की वित्तीय आवश्यकता ने धन के तीव्र हस्तांतरण को बढ़ावा दिया। परिणामस्वरूप बैंकिंग व्यवसाय का विकास हुआ। जिनोआ और पीसा में बैंकरों के फर्म कायम हुए। इन फर्मों की शाखाएँ अन्य नगरों में भी काम करने लगीं। ब्याज पर धन जमा करना और कर्जा देना ही इनका मुख्य काम था। व्यापार वाणिज्य तथा बैंकिंग के विकास से एक शक्तिशाली एवं सम्पन्न व्यवसायी वर्ग उठ खड़ा हुआ। इस वर्ग ने जिज्ञासु वैज्ञानिकों, अन्वेषकों, कलाकारों तथा साहित्यकारों को संरक्षण एवं प्रोत्साहन देकर पुनर्जागरण की आर्थिक एवं वैचारिक पृष्ठभूमि तैयार कर दी।
(8) भौगोलिक ज्ञान में वृद्धि
धर्मयुद्धों की समुद्री गतिविधियों से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण खोज दिशा सूचक - यन्त्र (कुतुबनुमा) की है। शायद चीनियों ने सर्वप्रथम इसकी खोज की थी। परन्तु मुसलमानों ने जो कि ईरान की खाड़ी से सुदूर पूर्वी सागरों तक व्यापार करते थे, दिशा सूचक यन्त्र का व्यावहारिक उपयोग किया। उन्होंने अपनी यह जानकारी पश्चिम को प्रदान की। धर्मयुद्धों के परिणामस्वरूप यूरोपवासियों को नवीन मार्गों की जानकारी मिली। कुतुबनुमा की जानकारी भी मिल चुकी थी। इस अवधि में जहाँ अरब साम्राज्य सिकुड़ता जा रहा था और मुसलमानों का व्यापार वाणिज्य एक सीमा पर पहुँच कर स्थिर हो गया था, वहीं यूरोप के साहसिक लोग पूर्वी देशों की यात्रा के लिए चल पड़े। उनमें से कुछ ने पूर्वी देशों की यात्राओं के दिलचस्प वर्णन लिखे, जिन्हें पढ़कर यूरोपवासियों की कूप मंडूकता दूर हुई।
(9) पोप के प्रभाव में कमी-
मध्य युग में लोग अपने सर्वोच्च धर्माधिकारी पोप को ईश्वर का प्रतिनिधि मानने लगे थे, परन्तु जब धर्मयुद्धों में पोप की सम्पूर्ण शुभकामनाओं एवं आशीर्वादों के बाद भी ईसाइयों की पराजय हुई तो लाखों लोगों की धार्मिक आस्था डगमगा गई और वे सोचने लगे कि पोप भी हमारी तरह एक साधारण मनुष्य मात्र है। उसके चारों तरफ जो दिव्य आडंबरयुक्त वातावरण निर्मित किया गया है, वास्तव में धर्म के नाम पर धर्माचार्यों की स्वार्थ सिद्धि का साधन मात्र है। पोप की गिरती प्रतिष्ठा से धर्म का शिकंजा कुछ ढीला पड़ गया और एक नया तार्किक दृष्टिकोण उभरकर सामने आया जिसने पुनर्जागरण को आहूत करने में भारी योगदान दिया।
(10) सामन्ती प्रथा का अश्वासन
दीर्घकालीन धर्म युद्धों ने अप्रत्यक्ष रूप से सामन्ती प्रथा के पतन में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। पोप की अपील पर असंख्य सामना अपने अनुचरों और सैनिकों के साथ धर्मयुद्धों में भाग लेने मध्य एशिया पहुँचे। उनमें से अधिकांश सामन्त और उनके अनुचर युद्धों में मारे गये। बहुत से वहीं बस गये। परिणामस्वरूप यूरोप में सामन्तों की शक्ति क्षीण हो गई और नवोदित राजाओं के लिए सामन्तों की बची हुई शक्ति को कुचलना सम्भव हो गया।
(11) निष्कर्ष -
कुछ विद्वानों का मानना है कि धर्मयुद्धों के इस प्रकार के तथाकथित परिणाम धर्मयुद्धों के बिना भी होकर रहते। उनका मानना है कि पश्चिम का पूर्व से मिलन व्यापार और यात्रा द्वारा अनिवार्य रूप से होना ही था। धर्मयुद्धों ने केवल इस मिलन की गति को तीव्र कर दिया। जो भी हो, इतना तो निश्चित है कि धर्मयुद्ध मध्ययुगीन यूरोपवासियों के धार्मिक उत्साह को प्रदर्शित करते हैं और यह बताते हैं कि लोगों के जीवन पर धर्म का कितना जबरदस्त प्रभाव था । इसीलिए धर्म को मध्यकालीन यूरोप की एक मुख्य विशेषता माना जाता है।