अरब जगत , मुहम्मद साहब का जीवन-वृत्त (जीवन परिचय)
अरब जगत प्रस्तावना (Introduction)
➽ पश्चिमी एशिया में स्थित अरब प्रायद्वीप अनेक सभ्यताओं, धर्मों तथा जातियों का उद्गम स्थान रहा है। भूमध्यसागर, लालसागर, अरबसागर और फारस की खाड़ी इस प्रायद्वीप को तीन तरफ से घेरे हुए हैं। कुछ तटवर्ती क्षेत्रों के अलावा सम्पूर्ण प्रायद्वीप रेगिस्तान है। यहाँ बहुत कम वर्षा होती है। कृषि का थोड़ा-बहुत काम समुद्रतटीय क्षेत्रों या रेगिस्तान में ओयसिस क्षेत्र (नखलिस्तान) में ही होता है। अरब में अति प्राचीन काल से ही सेमेटिक जनजातियों के लोग रहते आये थे, जो आज के अरबों के पूर्वज हैं। उनमें से कुछ नखलिस्तानों और नगरों में स्थायी रूप से रहते थे और कृषि, व्यापार तथा दस्तकारी के धन्धे करते थे। दूसरा भाग स्तेपियों तथा रेगिस्तानों में खानाबदोशी करता था और ऊँट, घोड़े, भेड़-बकरियाँ पालता था। ये लोग पालतू पशुओं के साथ सारी गृहस्थी को समेटे जीविका की खोज में घूमते-भटकते. थे। ये लोग कबीलों में बँटे हुए थे। प्रत्येक कबीले का अपना नेता अपने नियम, रहन-सहन तथा रीति-रिवाज होते थे। भौगोलिक अवस्था तथा जलवायु के कारण यह प्रायद्वीप सभ्यता की दौड़ में काफी पीछे रह गया था। उन लोगों का कोई व्यवस्थित राजनीतिक संगठन भी नहीं था। उनका हर परिवार अपने आप में पूर्णतः स्वायत्त इकाई थी। उनमें एकता तथा राष्ट्रीयता की भावना बिल्कुल नहीं थी। उन लोगों के कबीले प्रायः आस-पास के सम्पन्न देशों पर हमला करके लूटमार करते रहते थे। उनमें आपस में भी संघर्ष होता रहता था। उनके सार्वजनिक जीवन में भी कई बुराइयाँ विद्यमान थीं। शराब पीना, जुआ खेलना तथा बहु-विवाह की कुरीतियाँ मौजूद थीं। एकता के अभाव तथा विविध प्रकार की आजीविका के उपरान्त भी उन लोगों का रहन-सहन, भाषा तथा धार्मिक विश्वास एक जैसे थे।
➽ इस्लाम के उदय के पूर्व
अरब के लोग अपने अलग-अलग पारिवारिक एवं कबीलाई देवताओं में विश्वास करते थे तथा
उनकी अलग-अलग मूर्तियाँ बनाकर पूजा किया करते थे। मक्का सभी अरबों का तीर्थस्थल था
और वहाँ के अल-काबा नामक एक विशाल काले पत्थर को पूजते थे। वहाँ विभिन्न अरब
कबीलों के देवताओं की मूर्तियाँ और दूसरी पूजा की वस्तुएँ एकत्र की हुई थीं। इसके
अलावा, उन लोगों में कई प्रकार
के अन्धविश्वास घर किये हुए थे। भूत-प्रेत की भावना उनमें कूट-कूटकर भरी थी। समग्र
रूप में उस समय में अरब में गरीबी, अनियमितता और धार्मिक अन्धविश्वासों का बोलबाला था। वैसे
अरब में विदेशियों, विशेषतः यहूदियों और
ईसाइयों की बस्तियाँ भी थीं। विभिन्न भाषाओं और धर्मों के लोग एक-दूसरे के सम्पर्क
में आते थे और उनके विश्वास एक-दूसरे को प्रभावित करते थे।
➽ अरब लोगों के मेसोपोटामिया, सीरिया, फिलिस्तीन, मिस्र, ईथोपिया आदि पड़ोसी देशों के साथ आर्थिक और सांस्कृतिक सम्बन्ध थे। इन देशों को आपस में जोड़ने वाले व्यापारिक मार्ग अरब से ही गुजरते थे। ऐसे ही मार्गों के एक संधिस्थल पर, लालसागर के तट के निकट मक्का का नखलिस्तान स्थित था। यहाँ रहने वाली कुरैश जनजाति के अभिजात तबके इस कारवाँ व्यापार से भरपूर लाभ उठाते थे परन्तु छठी शताब्दी में अरब में कारवाँ व्यापार का ह्रास शुरू हो गया, क्योंकि व्यापार मार्ग अब पूर्व सासानी ईरान के क्षेत्र में गुजरने लगे। इससे शताब्दियों से चला आ रहा आर्थिक संतुलन भंग हो गया। कारवाँओं से होने वाली आमदनी के छिन जाने पर खानाबदोश अरब स्थायी जीवन अपनाने और कृषि का धंधा करने लगे। फलस्वरूप भूमि की माँग बढ़ गयी और विभिन्न जनजातियों के बीच पहले से भी अधिक खूनी संघर्ष होने लगा। इन्हीं परिस्थितियों में अरब में इस्लाम का अभ्युदय हुआ और मुहम्मद साहब ने अपने विचारों का, जो तत्कालीन समाज की आवश्यकता के अनुरूप थे, प्रचार शुरू किया।
कारवाँओं से होने वाली आमदनी के छिन जाने पर खानाबदोश अरब स्थायी जीवन अपनाने और कृषि का धंधा करने लगे। फलस्वरूप भूमि की माँग बढ़ गयी और विभिन्न जनजातियों के बीच पहले से भी अधिक खूनी संघर्ष होने लगा।
मुहम्मद साहब का जीवन-वृत्त (जीवन परिचय) (Early Life of Prophet Mohammed )
- तीसरा और सबसे बाद में उत्पन्न विश्वव्यापी धर्म इस्लाम का पैगाम दुनिया को सुनाने वाले पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब की जन्म तिथि के बारे में मतभेद है, किन्तु यह प्रामाणिक है कि उनका जन्म सन् 570 ई. में मक्का में हुआ था। उनके पिता का नाम अब्दुल्ला और माता का नाम बीबी अमीना था। जन्म के कुछ दिनों पूर्व ही उनके पिता का देहान्त हो गया और जब वे 6 वर्ष के थे तब उनकी माता का भी स्वर्गवास हो गया, उनका लालन-पालन उनके चाचा ने किया। बचपन में वे भेड़ें चराने का काम करने लगे। भेड़ों को चराते हुए अवकाश के समय में बालक मुहम्मद ईश्वर और उसकी सत्ता के बारे में विचार किया करता था। वयस्क होने पर उन्होंने ऊँट हाँकने तथा ऊँटों के व्यापारिक काफिलों को इधर-उधर ले जाने का काम अपना लिया। एक धनी विधवा बीबी खदीजा ने उनकी ईमानदारी एवं गुणों के कारण उनसे विवाह का प्रस्ताव रखा जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। उस समय मुहम्मद साहब की आयु लगभग 25 वर्ष और बीबी खदीजा की 40 के लगभग थी।
- विवाह के कुछ वर्षों बाद मुहम्मद साहब की धार्मिक जिज्ञासा बढ़ती गई। वे बहुधा एकान्त में जाकर ईश्वर और उसकी सत्ता के बारे में विचार किया करते थे। वहाँ उन्हें कई प्रकार के ईश्वरीय चमत्कारों की अनुभूति होने लगी। वे अपने इन अनुभवों को अपनी पत्नी और निकट साथियों को सुनाया करते थे। धीरे-धीरे उनको ऐसा अनुभव होने लगा कि "ईश्वर एक है" तथा संसार में फैली इस धार्मिक अराजकता और अन्धविश्वासों को दूर करने के लिए ईश्वर ने उनको भेजा है। अतः उन्होंने घोषणा की कि “ ईश्वर एक है और में उसका पैगम्बर हूँ।" इसके साथ ही उन्होंने प्रचलित मूर्ति-पूजा और धार्मिक आडम्बरों एवं अन्धविश्वासों की खुलेआम आलोचना करनी शुरू कर दी। उनकी शिक्षा में यहूदी, ईसाई और हनीफी शिक्षाओं से भिन्न या नया लगभग कुछ नहीं था; उसमें सबसे मुख्य यह कठोर माँग थी कि केवल अल्लाह ( एक मात्र ईश्वर ) में आस्था रखी जाये और उसकी इच्छा को चुपचाप शिरोधार्य किया जाये।
- 'इस्लाम' शब्द का अर्थ ही आत्मसमर्पण है। कुरान की सूरत तीन में कहा गया है- “अल्लाह इस बात की गवाही देता है कि उस (एक अल्लाह) के सिवाय कोई भी पूज्य नहीं और फरिश्ते और इल्मवाले भी गवाही देते हैं कि वहीं इन्साफ के साथ (सब कुछ) सम्भालने वाला है। उसके सिवाय और कोई इलाह (पूज्य) नहीं; वह सर्वशक्तिमान और ज्ञानमय है। बेशक दीन तो अल्लाह के नजदीक है यही इस्लाम (आत्मसमर्पण) है। " परन्तु मुहम्मद साहब के उपदेशों के बारे में आसपास के लोगों, विशेषत: उनकी ही कुरैश जनजाति के बड़े लोगों ने पहले अविश्वास और शत्रुता से भरपूर रवैया दिखाया। व्यापारी अभिजात वर्ग को डर था कि पुराने अरबी जनजातीय देवताओं की पूजा बन्द हो जाने से एक धार्मिक और आर्थिक केन्द्र के रूप में मक्का का महत्त्व खत्म हो जायेगा। उन लोगों ने मिलकर मुहम्मद साहब की हत्या का षडयन्त्र भी रचना शुरू कर दिया। ऐसी स्थिति में मुहम्मद साहब को अपने अनुयायियों के साथ मक्का छोड़कर अपने ननिहाल मदीना जाना पड़ा। यह सन् 622 ई. की बात है और मक्का से जुदाई (हिजरा) को ही मुसलमानों के हिजरी संवत् की शुरुआत माना जाता है।
- मदीना के खेतिहर नखलिस्तान में मुहम्मद को अपने विचारों के प्रचार के लिए अनुकूल वातावरण मिला। मदीना वालों की मक्का के अभिजात लोगों से प्रतिस्पर्धा और शत्रुता थी, अतः उन्होंने मुहम्मद साहब का सहर्ष समर्थन किया और बहुत से लोग उनके अनुयायी बन गये, जो 'अन्सार' कहलाये। मदीना में अपना प्रभाव स्थापित करने के बाद मुहम्मद साहब ने अपने अनुयायियों के साथ 630 ई. में मक्का पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। पराजित मक्कावासियों ने आत्मसमर्पण कर मुहम्मद के धार्मिक विश्वासों को स्वीकार कर लिया। इससे कुरैशी व्यापारियों तथा सरदारों को नुकसान नहीं हुआ, उल्टे फायदा ही हुआ। मक्का का एक जातीय व धार्मिक केन्द्र के रूप में महत्त्व पहले से भी ज्यादा बढ़ गया। जो कुरैशी पहले मुहम्मद साहब के इस्लाम के आन्दोलन को शत्रुता से देखते थे, वे ही अब इससे जुड़ने लगे और अग्रणी भूमिका निभाने लगे। परिणामस्वरूप लगभग सारा अरब थोड़े ही समय में 'इस्लाम' को मानने लग गया। मक्का इस्लाम का तीर्थ स्थान एवं प्रमुख धार्मिक केन्द्र बन गया। मुहम्मद साहब की वफात (स्वर्गारोहण) सन् 632 ई. में हुई। उनके उत्तराधिकारी खलीफाओं ने उनके धर्म को दूर-दूर फैलाया।